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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 5
    ऋषिः - हिरण्यगर्भ ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    द्र॒प्सश्च॑स्कन्द पृथि॒वीमनु॒ द्यामि॒मं च॒ योनि॒मनु॒ यश्च॒ पूर्वः॑। स॒मा॒नं योनि॒मनु॑ सं॒चर॑न्तं द्र॒प्सं जु॑हो॒म्यनु॑ स॒प्त होत्राः॑॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्र॒प्सः। च॒स्क॒न्द॒। पृ॒थि॒वीम्। अनु॑। द्याम्। इ॒मम्। च॒। योनि॑म्। अनु॑। यः। च॒। पूर्वः॑। स॒मा॒नम्। योनि॑म्। अनु॑। सं॒चर॑न्त॒मिति॑ स॒म्ऽचर॑न्तम्। द्र॒प्सम्। जु॒हो॒मि। अनु॑। स॒प्त। होत्राः॑ ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्रप्सश्चस्कन्द पृथिवीमनु द्यामिमञ्च योनिमनु यश्च पूर्वः । समानँयोनिमनु सञ्चरन्तन्द्रप्सञ्जुहोम्यनु सप्त होत्राः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    द्रप्सः। चस्कन्द। पृथिवीम्। अनु। द्याम्। इमम्। च। योनिम्। अनु। यः। च। पूर्वः। समानम्। योनिम्। अनु। संचरन्तमिति सम्ऽचरन्तम्। द्रप्सम्। जुहोमि। अनु। सप्त। होत्राः॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 5
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    भावार्थ -
    ( द्रप्स : ) आदित्य का तेज ( पृथिवीम् अनु ) पृथिवी पर ( चस्कन्द ) प्रकाश और मेघ जल के रूप में प्राप्त होता है । ( अनु द्याम् ) और फिर वह आकाश में जाता है । ( यः च पूर्व: ) जो स्वयं वह आदि में पूर्व या पूर्ण है वह ( इमं च योनिम् अनु ) इस स्थान को भी प्राप्त होता है । इस प्रकार ( समानम् योनिम् अनु ) अपने समान अनुरूप आश्रय- स्थान को प्राप्त करते हुए ( द्रप्सं ) हर्ष के कारणरूप आदित्य को जिस प्रकार ( सप्त होत्रा: ) सातों आदानकारी दिशाओं में फैलता देखते हैं उसी प्रकार हम (द्रप्ंस ) आनन्द और हर्ष के हेतु वीर्य को ( सप्त होत्रा: ) सातों प्राणों में (अनुजुहोमि ) संचारित करूं । राष्ट्र-पक्ष में- ( द्रप्स : ) प्रजा के हर्षजनक राजा ( य: च पूर्व: ) जो पूर्ण शक्तिमान है वह ( पृथिवीम् अनु द्यामनु च ) पृथिवी को और सूर्य को अनुकरण करता हुआ ( पृथिवीन् चस्कन्द ) पृथिवी को प्राप्त होता है । (योनिम् ) अपने भूलोक के समान सं चरन्तं ) समान रूप से संचरण करनेवाले ( द्रप्सं ) हर्षकारी आदित्य के समान तेजस्वी पुरुष को ( सप्त होत्रा : अनु ) सात प्राणों में वीर्य के सामान सातों दिशाओं में सूर्य के समान ( जुहोमि ) स्थापित करता हूं ॥ शत० ७ ।४ । १ । २०॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ईश्वर, आदित्यो देवता । विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ॥

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