Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 35
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - जातवेदाः देवताः छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः
    2

    इ॒षे रा॒ये र॑मस्व॒ सह॑से द्यु॒म्नऽ ऊ॒र्जेऽ अप॑त्याय। स॒म्राड॑सि स्व॒राड॑सि सारस्व॒तौ त्वोत्सौ॒ प्राव॑ताम्॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒षे। रा॒ये। र॒म॒स्व॒। सह॑से। द्यु॒म्ने। ऊ॒र्जे। अप॑त्याय। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। अ॒सि॒। स्व॒राडिति॑ स्व॒ऽराट्। अ॒सि॒। सा॒र॒स्व॒तौ। त्वा॒। उत्सौ॑। प्र। अ॒व॒ता॒म् ॥३५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इषे राये रमस्व सहसे द्युम्नऽऊर्जे अपत्याय । सम्राडसि स्वराडसि सारस्वतौ त्वोत्सौ प्रावताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इषे। राये। रमस्व। सहसे। द्युम्ने। ऊर्जे। अपत्याय। सम्राडिति सम्ऽराट्। असि। स्वराडिति स्वऽराट्। असि। सारस्वतौ। त्वा। उत्सौ। प्र। अवताम् ॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 35
    Acknowledgment

    भावार्थ -
    हे प्रजापते ! पुरुष ! हे राजन् ! तू ( इषे ) अन्न, (राये ) ऐश्वर्य, ( सहसे ) बल, ( द्युम्ने ) तेज वा यश और ( ऊर्जे) पराक्रम और ( अपत्याय ) सन्तान के लाभ के लिये तू (रमस्व ) यत्र कर, इसी प्रकार है स्त्री ! एवं पृथिवीनिवासिनि प्रजे ! तू भी इस अपने प्रजापति राजा और पति के साथ अन्न, धन, बल, यश, पराक्रम और सन्तान के लाभ के लिये ( रमस्व ) क्रीड़ा कर उसके साथ प्रसन्नता पूर्वक रह । हे राजन् ! तू (सम्राड् असि ) सम्राड् है । तू (स्वराड् असि) हे स्त्री ! हे पृथिवी ! तू स्वराट् स्वयं प्रकाशमान है । ( सारस्वतौ उत्सौ) सरस्वती, वेद ज्ञान के दोनों निकास, मन और वाणी राष्ट्र के नर और नारी, पृथिवी के जड़ और चेतन, अध्यापक और उपदेशक दोनों प्रकार के पदार्थ, (त्वा) तेरी ( प्र अवताम् ) खूब रक्षा करें ॥ शत ७ । ५ । १ ॥ ३१ ॥ मनो वा सरस्वान् वाक् सरस्वती ! एतौ सारस्वतावुत्सौ ॥ द्वयं हवेत मृच्चापश्च ॥ शत० ७।७।५।१।२१ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - उखा, प्रजापतिर्जातवेदा वा देवता । निचृद बृहत्ती । मध्यमः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top