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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 30
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    अ॒पां गम्भ॑न्त्सीद॒ मा त्वा॒ सूर्य्यो॒ऽभिता॑प्सी॒न्माग्निर्वै॑श्वान॒रः। अच्छि॑न्नपत्राः प्र॒जाऽ अ॑नु॒वीक्ष॒स्वानु॑ त्वा दि॒व्या वृष्टिः॑ सचताम्॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। गम्भ॑न्। सी॒द॒। मा। त्वा॒। सूर्य्यः॑। अ॒भि। ता॒प्सी॒त्। मा। अ॒ग्निः। वै॒श्वा॒न॒रः। अच्छि॑न्नपत्रा॒ इत्यच्छि॑न्नऽपत्राः। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। अ॒नु॒वीक्ष॒स्वेत्य॑नु॒ऽवीक्ष॑स्व। अनु॑। त्वा॒। दि॒व्या। वृष्टिः॑। स॒च॒ता॒म् ॥३० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाङ्गम्भन्त्सीद मा त्वा सूर्याभि ताप्सीन्माग्निर्वैश्वानरः । अच्छिन्नपत्राः प्रजा अनुवीक्षस्वानु त्वा दिव्या वृष्टिः सचताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। गम्भन्। सीद। मा। त्वा। सूर्य्यः। अभि। ताप्सीत्। मा। अग्निः। वैश्वानरः। अच्िछन्नपत्रा इत्यच्िछन्नऽपत्राः। प्रजा इति प्रऽजाः। अनुवीक्षस्वेत्यनुऽवीक्षस्व। अनु। त्वा। दिव्या। वृष्टिः। सचताम्॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 30
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    भावार्थ -
    हे पुरुष ! प्रजापते ! राजन् ! तू (अपां गम्भन ) जलों को धारण करने वाले मेघ या सूर्य के समान प्रजाओं और आप्त पुरुषों को वश करने वाले राजपद पर ( सीद ) विराजमान हो। ( सूर्यः ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष तुझ से अधिक वलवान् पुरुष भी ( त्वा मा अभि- ताप्सीत् ) तुझे संतापित या पीड़ित न करे । ( वैश्वानरः ) समस्त विश्व का हितकारी नायक ( अग्निः ) प्रजा का अग्रणी नायक भी (मा) तुझे जत सतावे | तू केवल ( प्रजाः ) प्रजाओं को ( अच्छिन पत्राः ) बिना किसी प्रकार के आघात पाये, सर्वाङ्ग, हृष्ट पुष्ट ( अनुवीक्षस्व ) सुखी देख उनको कटे मुंडे वृक्ष लतादि के समान हीन, क्षीण, दुखी, पीड़ित मत होने दे । ( त्वा अनु ) तेरे अनुकूल ही ( दिव्या वृष्टिः ) आकाश से होने वाली वृष्टि और सुखदायी पदार्थों की वृष्टि भी ( सचताम् ) प्राप्त हो || शत० ७ । ५।१।८॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कूर्मः प्रजापतिर्देवता । आर्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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