यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 17
ऋषिः - त्रिशिरा ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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प्र॒जाप॑तिष्ट्वा सादयत्व॒पां पृ॒ष्ठे स॑मु॒द्रस्येम॑न्। व्यच॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्व पृथि॒व्यसि॥१७॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। त्वा॒। सा॒द॒य॒तु॒। अ॒पाम्। पृ॒ष्ठे। स॒मु॒द्रस्य॑। एम॑न्। व्यच॑स्वतीम्। प्रथ॑स्वतीम्। प्रथ॑स्व पृ॒थि॒वी। अ॒सि॒ ॥१७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजापतिष्ट्वा सादयत्वपापृष्ठे समुद्रस्येमन् । व्यचस्वतीम्प्रथस्वतीम्प्रथस्व पृथिव्यसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। त्वा। सादयतु। अपाम्। पृष्ठे। समुद्रस्य। एमन्। व्यचस्वतीम्। प्रथस्वतीम्। प्रथस्व पृथिवी। असि॥१७॥
विषय - नौका के दृष्टान्त से प्रजा और पृथ्वी, पक्षान्तर में स्त्री का वर्णन ।
भावार्थ -
हे पृथिवी निवासिनी प्रजे! अथवा राज्यशक्ते ! ( व्यचस्वतीम् ) नाना प्रकार के उत्तम गुणों वाली ( प्रथस्वतीम् ) उत्तम रूप से विस्तारशील ( स्वा) तुझको ( प्रजापति ) प्रजा का स्वामी ( अपां पृष्ठे ) जलों केपृष्ठ पर नौका के समान और ( समुदस्य एमन् ) समुद्र के यातव्य यात्रायोग्य स्थान में ( सादयतु ) स्थापित करे हे प्रजे ! तू भी ( पृथिवी असि ) विस्तृत होने से हे राजशक्ने ! तू भी 'पृथिवी' कहाती है । शत० ७।४।२।६॥
स्त्री के पक्ष में - ( प्रजापतिः ) प्रजा का पालक पति ( समुद्रस्य एमन् ) समुद्र के समान अपार कामोपयोगों में भी (अपां पृष्ठे ) स पुरुषों के अथवा समस्त कार्यों के ( पृष्ठे ) आश्रय में (वि- अचस्वतीं ) विविध गुणों से प्रकाशित और ( प्रथस्वतीम् ) गुणों से विख्यात, प्रजा विस्तार करने हारी तुझको ( सादयतु ) स्थापित करे उनके बतलाये धर्म- मार्ग पर चलावे। तू ( पृथिवी असि ) पृथिवी के समान प्रजोत्पत्ति करने हारी है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिर्देवता । अनुष्टुप् । गांधारः ॥
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