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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 22
    ऋषिः - इन्द्राग्नी ऋषी देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यास्ते॑ऽ अग्ने॒ सूर्य्ये॒ रुचो॒ दिव॑मात॒न्वन्ति॑ र॒श्मिभिः॑। ताभि॑र्नोऽ अ॒द्य सर्वा॑भी रु॒चे जना॑य नस्कृधि॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याः। ते॒। अ॒ग्ने॒। सूर्ये॑। रुचः॑। दिव॑म्। आ॒त॒न्वन्तीत्या॑ऽत॒न्वन्ति॑। र॒श्मिभि॒रिति॑ र॒श्मिऽभिः॑। ताभिः॑। नः॒। अ॒द्य। सर्वा॑भिः। रु॒चे। जना॑य। नः॒। कृ॒धि॒ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यास्तेश्अग्ने सूर्ये रुचो दिवमातन्वन्ति रश्मिभिः । ताभिर्ना अद्य सर्वाभी रुचे जनाय नस्कृधि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    याः। ते। अग्ने। सूर्ये। रुचः। दिवम्। आतन्वन्तीत्याऽतन्वन्ति। रश्मिभिरिति रश्मिऽभिः। ताभिः। नः। अद्य। सर्वाभिः। रुचे। जनाय। नः। कृधि॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 22
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    भावार्थ -
    हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्विन् राजन् ! जिस प्रकार सूर्य में विद्यमान ( रुचः ) कान्तियां (रश्मिभिः) सूर्य की किरणों से ( दिवम् ) द्यौलोक को ( आतन्वन्ति ) घेर लेती हैं उसी प्रकार ( या: ) जो (ते ) तेरी ( सूर्ये) सूर्य के समान उज्ज्वल मानास्पद स्वरूप में विद्यमान ( रुचः ) दीप्तियां, उत्तमं ख्यातियां या उत्तम कामनाएं या अभिलाषाएं ( रश्मिभिः ) सब को प्रकाश देने वाले साधनों से ( दिवम् आ तन्वन्ति ) प्रकाश को फैलाती हैं ( ताभिः सर्वाभिः ) उन सब अभिलाषाओं से ( अद्य ) अब, सदा तू, ( नः ) हमारे और ( जनाय ) प्रजा जन के ( रुचे ) अभिलापा पूर्ति के लिये ( कृधि ) प्रयत्न कर। और ( नः ) हमें भी ( जनाय रुचे कृधि ) प्रजा की अभिलाषा पूर्ति के लिये समर्थ कर || शत० ७ । ४ । २ । २१ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इन्द्राग्नी ऋषी । अग्निर्देवता । भुरिगनुष्टुप् । गांधारः ॥

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