यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 36
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
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अग्ने॑ यु॒क्ष्वा हि ये तवाश्वा॑सो देव सा॒धवः॑। अरं॒ वह॑न्ति म॒न्यवे॑॥३६॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। यु॒क्ष्व। हि। ये। तव॑। अश्वा॑सः। दे॒व॒। सा॒धवः॑। अर॑म्। वह॑न्ति। म॒न्यवे॑ ॥३६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने युक्ष्वा हि ये तवाश्वासो देव साधवः । अरँ वहन्ति मन्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने। युक्ष्व। हि। ये । तव। अश्वासः। देव। साधवः। अरम्। वहन्ति। मन्यवे॥३६॥
विषय - राजा और विद्वान् योगी का अश्वों, योग्य पुरुषों और प्राणों पर वश ।
भावार्थ -
हे ( अग्ने ) शत्रु संतापक राजन् ! हे (देव) विद्वन्, विजिगीषो ! ( ये ) जो ( तव ) तेरे ( साधवः ) कार्यसाधक ( अश्वास: ) अश्व ( मन्यवे ) शत्रु के स्तम्भन करने के लिये, उस पर आये क्रोधशमन करने के लिये स्थादि को ( अरं वहन्ति ) खूब अच्छी प्रकार वहन करते हैं उनको ( युक्ष्वा ) रथ में नियुक्त कर। और हे देव ! राजन् ! हे पुरुष जो तेरे कार्यसाधकों को समान व्यापक, गतिशील प्राण हैं या ( साधवः) उत्तम पुरुष हैं जो ( मन्यवे अरं वहन्ति ) मन्यु अर्थात् मनन करने योग्य ज्ञान तक पर्याप्त रूप से पहुंचाते हैं उनको ( युंक्ष्व ) राज्य कार्य में नियुक्त कर और प्राणों को योन्याभ्यास में नियुक्त कर शत० ७ ।५ । १ ।२।३ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भारद्वाज ऋषिः । अग्निर्देवता । निचृद्गायत्री । षड्जः ॥
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