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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 21
    ऋषिः - सुनीतिर्ऋषिः देवता - वेनो देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    आ सु॒ते सि॑ञ्चत॒ श्रिय॒ꣳ रोद॑स्योरभि॒श्रिय॑म्।र॒सा द॑धीत वृष॒भम्। तं प्र॒त्नथा॑। अ॒यं वे॒नः॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। सु॒ते। सि॒ञ्च॒त॒। श्रिय॑म्। रोद॑स्योः। अ॒भि॒श्रिय॒मित्य॑भि॒ऽश्रिय॑म् ॥ र॒सा। द॒धी॒त॒। वृ॒ष॒भम् ॥२१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ सुते सिञ्चत श्रियँ रोदस्योरभिश्रियम् । रसा दधीत वृषभम् तम्प्रत्नथायँवेन्॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। सुते। सिञ्चत। श्रियम्। रोदस्योः। अभिश्रियमित्यभिऽश्रियम्॥ रसा। दधीत। वृषभम्॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 21
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    भावार्थ -
    हे मनुष्यो ! तुम ( रसाः) सारवान्, बलवान् एवं तीव्र वेग -से जाने वाले जलप्रवाहों के समान बलवान् होकर (रोदस्योः अभिश्रियम् ) आकाश और पृथिवी के बीच सर्वत्र शोभाजनक (वृषभम् ) वर्षणशील सूर्य या मेघ के समान राजवर्ग और प्रजावर्ग या दो बड़े राज्यों के बीच ( अभिश्रियम् ) अति अधिक शोभा पाने वाले, आश्रय करने योग्य, एवं ( वृषभस् ) अति बलवान् पुरुष को (सुते) राष्ट्र के बीच में ( श्रियम् ) राज्यलक्ष्मी (असिञ्चत) प्रदान करके अभिषेक करें और वह राज्य को (दधीत) धारण करे ।'तं प्रत्नथा ०' और 'अयं वेन: ०' ये दोनों (अ० ७/१२) और (२६) मन्त्रों की प्रतीक मात्र हैं । उनकी व्याख्या वहीं देखो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सुनीतिर्ऋषिका । रसाः । गायत्री । षड्जः ।।

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