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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 11
    ऋषिः - पराशर ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    1

    आ यदि॒षे नृ॒पतिं॒ तेज॒ऽआन॒ट् शुचि॒ रेतो॒ निषि॑क्तं॒ द्यौर॒भीके॑।अ॒ग्निः शर्द्ध॑मनव॒द्यं युवा॑नꣳस्वा॒ध्यं जनयत्सू॒दय॑च्च॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। यत्। इ॒षे। नृ॒पति॒मिति॑ नृ॒ऽपति॑म्। तेजः॑। आन॑ट्। शुचि॑। रेतः॑। निषि॑क्तम्। निषि॑क्त॒मिति॒ निऽसि॑क्तम्। द्यौः। अ॒भीके॑ ॥ अ॒ग्निः। शर्द्ध॑म्। अ॒न॒व॒द्यम्। युवा॑नम्। स्वा॒ध्य᳖मिति॑। सुऽआ॒ध्य᳖म्। ज॒न॒य॒त्। सू॒दय॑त्। च॒ ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यदिषे नृपतिन्तेज आनट्शुचि रेतो निषिक्तन्द्यौरभीके । अग्निः शर्धमनवद्यँयुवानँ स्वाध्यञ्जनयत्सूदयच्च ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। यत्। इषे। नृपतिमिति नृऽपतिम्। तेजः। आनट्। शुचि। रेतः। निषिक्तम्। निषिक्तमिति निऽसिक्तम्। द्यौः। अभीके॥ अग्निः। शर्द्धम्। अनवद्यम्। युवानम्। स्वाध्यमिति। सुऽआध्यम्। जनयत्। सूदयत्। च॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 11
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    भावार्थ -
    ( यत् ) जिस प्रकार (नृपतिम् ) नर रूप नायक, पति अर्थात् पुरुष को (इषे) कामनापूत्ति वा निषेक के निमित्त (तेजः) तेज, वीर्य ( आनट ) प्राप्त होता है तभी वह ( शुचि) शुद्ध, दीप्तियुक्त (रेतः) उत्पादक वीर्य (द्यौ: अभीके) कामना युक्त स्त्री में ( निषिक्तम् ) निपिक्त हो तो (अग्नि) वह तेजस्वी पुरुष (शर्धम् ) बलवान्, (अनवद्यम् ) निर्दोष, अनिन्द्य, सुन्दर ( स्वाध्यम् ) उत्तम विचारानुसार ( युवानम् ) जवान, दीर्घायु हृष्ट-पुष्ट सन्तान को ( जनयत् ) उत्पन्न करता है और (सूदयत् च ) इसी के निमित्त निषेक करता है उसी प्रकार (यत्) जब (इपे) वर्षा के निमित्त या अन्नादि से उत्पन्न होने के लिये राजा के समान नेतृ शक्तियों के पालक या सब मनुष्यों के पालक सूर्य का (तेजः) तेज ( आ आनट् ) सर्वत्र व्याप्त होता है तब और (द्यौ: अभीके) आकाश में सर्वत्र ( शुचि रेतः निषिक्तम् ) शुद्ध जल रूप से गर्भित हो जाता है । तब (अग्नि) वह सूर्य (शर्धम् ) बलकारी ( अनवद्यम् ) निर्दोष (युवानम् ) 'यौवन या बल के वर्धक परस्पर मिश्रित, (स्वाध्यम् ) सुख से स्मरण या "धारण करने योग्य, उत्तम पोषक जल को ( जनयत् ) उत्पन्न करता है और (सूदयत् च) भूमि पर वर्षाता है । (२) राजा जब (इषे) अन्नादि के 'वितरण के लिये राजा का तेज फैलता है (द्यौरभीके) ज्ञान प्रकाश से युक्त राजसभा में विशुद्ध सामर्थ्य को प्रदान करता है और तब (अग्निः) अग्रणी नेता दोषरहित, स्तुतियोग्य, राष्ट्र के यौवन या धारण करने योग्य (दर्शम् ) सामर्थ्य को उत्पन्न करता है और उसको पुनः प्रजा पर ही वर्षा कर देता है। प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत् । सहस्रगुणमुत्सष्टुमादत्ते हि रसं रविः ॥ रघुवंशे ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पराशरः । अग्निः । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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