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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 55
    ऋषिः - याज्ञवल्क्य ऋषिः देवता - वायुर्देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प्र वा॒युमच्छा॑ बृह॒ती म॑नी॒षा बृ॒हद्र॑यिं॒ वि॒श्ववा॑रꣳ रथ॒प्राम्। द्यु॒तद्या॑मा नि॒युतः॒ पत्य॑मानः क॒विः क॒विमि॑यक्षसि प्रयज्यो॥५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र। वा॒युम्। अच्छ॑। बृ॒ह॒ती। म॒नी॒षा। बृ॒हद्र॑यि॒मिति॑ बृ॒हत्ऽर॑यिम्। वि॒श्ववा॑र॒मिति॑ वि॒श्वऽवा॑रम्। र॒थ॒प्रामिति॑ रथ॒ऽप्राम्। द्यु॒तद्या॒मेति॑ द्यु॒तत्ऽया॑मा। नि॒युत॒ इति॑ नि॒ऽयुतः॑। पत्य॑मानः। क॒विः। क॒विम्। इ॒य॒क्ष॒सि॒। प्र॒य॒ज्यो॒ इति॑ प्रऽयज्यो ॥५५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वायुमच्छा बृहती मनीषा बृहद्रयिँविश्ववारँ रथप्राम् । द्युतद्यामा नियुतः पत्यमानः कविः कविमियक्षसि प्रयज्यो ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वायुम्। अच्छ। बृहती। मनीषा। बृहद्रयिमिति बृहत्ऽरयिम्। विश्ववारमिति विश्वऽवारम्। रथप्रामिति रथऽप्राम्। द्युतद्यामेति द्युतत्ऽयामा। नियुत इति निऽयुतः। पत्यमानः। कविः। कविम्। इयक्षसि। प्रयज्यो इति प्रऽयज्यो॥५५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 55
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    भावार्थ -
    हे (प्रयज्यो) उत्तम रीति से यज्ञ उपासना सगति, संगठन करने में कुशल विद्वन् ! त् ( नियुतः ) निश्चित, नियुक्त पुरुषों, निश्चित पदार्थों को प्राप्त होकर ( बृहती ) बड़ी भारी (मनीपा) प्रज्ञा, बुद्धिबल, मानस प्रेरणा से स्वयं (कवि:) क्रान्तदर्शी होकर (बृहद्रयिम् ) महान् ऐश्वयों के स्वामी, ( विश्ववारम् ) सबके वरण करने वाले, सबके रक्षक, ( रथप्राम् ) रथों के रणाङ्गण को भर देने वाले, (द्युतद्यामा) तेजस्वी अग्नि को प्राप्त कर उसको अधिक तेजस्वी बनाने वाले, ( वायुम् ) वायु के समान तीव्र वेगवान बलशाली ( कांवम् ) क्रान्तदर्शी, मेधावी, विद्वान् ( वायुम् ) प्राणवायु के समान पत्रके जीवनाधार पुरुष का ( इयक्षसि) आदर कर और उसमें सगति लाभ कर । अथवा (२) (द्यतद्-यामा कविम् कविः इयक्षसि) समस्त यामों अर्थात् आठों पहरों को प्रकाशित करने वाले सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष का तू विद्वान् पुरुष ही आदर कर । (३) सबका जीवनाधार होने से परमेश्वर 'वायु' है । महान् ऐश्वर्यवान् होने से 'बृहद्र्यि' है, सबका रक्षक होने से 'विश्ववार' है । उसकी नियम व्यवस्था सर्वत्र प्रकाशित होने से वह द्यतद् यामा है । रमणसाधन, परम आनन्द रस से पूर्ण करने हारा होने से 'रथप्रा' है, क्रान्तदर्शी होने से 'कवि' है । उस परमेश्वर को (नियुतः पत्यमानः) प्राणों द्वारा ऐश्वर्यवान् होकर तु साधक ( इयक्षसि ) उसकी उपासना कर । (४) आचार्य ज्ञानवान् होने से वायु, बृहती वेद वाणी के ऐश्वर्य से युक्त होने से 'बृहद्रय' ज्ञानरस से शिष्य को पूर्ण करने वाला होने से 'रथप्रा' है । प्रकाश रूप ज्ञान का प्राप्त कराने से 'द्युतद्- यामा' है उसको प्राप्त करके गुरुवत् सदा आदर करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - [ ५५—अ० ३४ । ५८ ] आदित्यो याज्ञवल्क्यश्च ऋषी ।अनारभ्याधीतमन्त्राः ब्रह्मयज्ञार्हाः । तत्र 'प्रवायुम्' इति ऋजित्वा ऋषिः । पायुर्देवता । त्रिष्टुप । धैवतः ॥

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