यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 43
ऋषिः - हिरण्यस्तूप ऋषिः
देवता - सूर्यो देवता
छन्दः - विराट् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
आ कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒ वर्त्त॑मानो निवे॒शय॑न्न॒मृतं॒ मर्त्यं॑ च।हि॒र॒ण्यये॑न सवि॒ता रथे॒ना दे॒वो या॑ति॒ भुव॑नानि॒ पश्य॑न्॥४३॥
स्वर सहित पद पाठआ। कृ॒ष्णेन॑। रज॑सा। वर्त्त॑मानः। नि॒वे॒शय॒न्निति॑ निऽवे॒शय॑न्। अ॒मृत॑म्। मर्त्य॑म्। च॒ ॥ हि॒र॒ण्यये॑न। स॒वि॒ता। रथे॑न। आ। दे॒वः। या॒ति॒। भुव॑नानि। पश्य॑न् ॥४३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतम्मर्त्यञ्च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। कृष्णेन। रजसा। वर्त्तमानः। निवेशयन्निति निऽवेशयन्। अमृतम्। मर्त्यम्। च॥ हिरण्ययेन। सविता। रथेन। आ। देवः। याति। भुवनानि। पश्यन्॥४३॥
विषय - विजिगीषु नायक के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
सूर्य (कृष्णेन रजसा) परस्पर आकर्षण करने वाले लोक समूह के साथ सर्वत्र भ्रमण करता हुआ मर्त्य, नाशवान् प्राणियों और अनाशवान् भौतिक तत्वों को अपने-अपने स्थान पर स्थिर करता है और (हिरण्ययेन रथेन) तेजस्वी स्वरूप से सब लोकों को प्रकाशित करता हुआ जाता है । उसी प्रकार (कृष्णेन) शत्रुओं को काट गिरा देने वाले (रजसा ) सैन्य-बल से (आवर्तमानः) सर्वत्र विद्यमान रहता ( सविता ) सबक शासक राजा ( अमृतम् ) अमृत, अखण्ड, अविनाश्य स्थिर पदार्थों को और (मर्त्य च) मरने वाले सामान्य जनों को ( निवेशयन् ) यथा स्थान स्थापित करता हुआ (देवः) विजिगीषु राजा (हिरण्येन) स्वर्ण या लोह के बने (रथेन) रथ से अथवा धनैश्वर्यादि रमणसाधन रथ आदि से (भुवनानि) समस्त प्राणियों को ( पश्यन् ) देखता, उनका निरीक्षण करता हुआ (याति) प्रयाण करे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - हिरण्यस्तूपः । सूर्यः । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
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