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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 60
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - वैश्वनरो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    न॒हि स्पश॒मवि॑दन्न॒न्यम॒स्माद् वै॑श्वान॒रात् पु॑रऽए॒तार॑म॒ग्नेः।एमे॑नमवृधन्न॒मृता॒ऽअम॑र्त्यं वैश्वान॒रं क्षैत्र॑जित्याय दे॒वाः६०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि। स्पश॑म्। अवि॑दन्। अ॒न्यम्। अ॒स्मात्। वै॒श्वा॒न॒रात्। पु॒र॒ऽए॒तार॒मिति॑ पुरःऽए॒तार॑म्। अ॒ग्नेः ॥ आ। ई॒म्। ए॒न॒म्। अ॒वृ॒ध॒न्। अ॒मृताः॑। अम॑र्त्यम्। वैश्वा॒न॒रम्। क्षैत्र॑जित्याय। दे॒वाः ॥६० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि स्पशमविदन्नन्यमस्माद्वैश्वानरात्पुरऽएतारमग्नेः । एमेनमवृधन्नमृताऽअमर्त्यं वैश्वानरङ्क्षैत्रजित्याय देवाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नहि। स्पशम्। अविदन्। अन्यम्। अस्मात्। वैश्वानरात्। पुरऽएतारमिति पुरःऽएतारम्। अग्नेः॥ आ। ईम्। एनम्। अवृधन्। अमृताः। अमर्त्यम्। वैश्वानरम्। क्षैत्रजित्याय। देवाः॥६०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 60
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    भावार्थ -
    ( अस्मात् ) इस ( वैश्वानरात् ) सब मनुष्यों के हितकारी (अग्नेः ) अग्नि, सूर्य या दीपक के समान प्रकाशस्वरूप तेजस्वी राजा, विद्वान् के (अन्यम् ) अतिरिक्त दूसरे किसी को (देवाः) विद्वान् और विजयी पुरुष भी ( पुरः एतारम् ) अपने आगे २ चलने वाले नायक रूप ( स्पृशं न अविदन् ) दूत या द्रष्टा को नहीं जानते । वे ( अमृता: ) स्वयं दीर्घ, शतायु जीवन वाले होकर इस ( अमर्त्य ) अन्य मनुष्यों से अधिक उच्च कोटि के ( वैश्वानरम् ) सर्वजन हितकारी पुरुष को ही ( क्षैत्रजित्याय) क्षेत्र, भूमि विजय करने के लिये ( ईम् एनम् ) इसको ( अवीवृधन् ) बढ़ाते हैं । (२) अध्यात्म में – समस्त देहों में विद्यमान समस्त प्राणों के 'पुरोगामी आत्मा के सिवाय ( नहि स्पशम् अविदन् ) किसी दूसरे को नहीं पाते । ये (अमृता) अमर (देवा) विद्वान् पुरुष भी ( क्षैत्रजित्याय) क्षेत्र, देह या बन्धन को विजय करने के लिये (अमर्त्य वैश्वानरम् अवृधन् ) मरण रहित वैश्वानर, सर्वात्मा की शक्ति को बढ़ाते हैं । (३) परमेश्वर के पक्ष में व्यापक परमेश्वर के सिवाय विद्वान् जन किसी दूसरे को ( स्पशम् ) सर्वद्रष्टा नहीं जानते । फल भोगों की प्राप्ति के लिये कर्म रूप बीजों के वपन के लिये एकमात्र क्षेत्र रूप इस देह के बन्धन को विजय करने के लिये ही (अमृतासः देवाः) अमृत, ज्ञानी, एवं अमर परमात्मा में लीन, अविनाशी विद्वान्, मुमुक्षु जन इसी अभय परमेश्वर की महिमा को स्तुति से बढ़ाया करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः । वैश्वानरो देवता । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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