यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 87
ऋषिः - जमदग्निर्ऋषिः
देवता - मित्रावरुणौ देवते
छन्दः - निचृद् बृहती
स्वरः - मध्यमः
1
ऋध॑गि॒त्था स मर्त्यः॑ शश॒मे दे॒वता॑तये।यो नू॒नं मि॒त्रावरु॑णाव॒भिष्ट॑यऽआच॒क्रे ह॒व्यदा॑तये॥८७॥
स्वर सहित पद पाठऋध॑क्। इ॒त्था। सः। मर्त्यः॑। श॒श॒मे। दे॒वता॑तये॒ इति॑ दे॒वऽता॑तये ॥ यः। नू॒नम्। मि॒त्रावरु॑णौ। अ॒भिष्ट॑ये। आ॒च॒क्रे इत्या॑ऽच॒क्रे। ह॒व्यदा॑तय॒ इति॑ ह॒व्यऽदा॑तये ॥८७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋधगित्था स मर्त्यः शशमे देवतातये । यो नूनम्मित्रावरुणावभिष्टयऽआचक्रे हव्यदातये ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋधक्। इत्था। सः। मर्त्यः। शशमे। देवतातये इति देवऽतातये॥ यः। नूनम्। मित्रावरुणौ। अभिष्टये। आचक्रे इत्याऽचक्रे। हव्यदातय इति हव्यऽदातये॥८७॥
भावार्थ -
जिस प्रकार मनुष्य (मित्रावरुणा ) प्राण और उदान दोनों को (अभिष्टये) अभीष्ट सुख और (हव्यदातये) प्राप्त करने योग्य परम पद की प्राप्ति के लिये (आचक्रे ) यत्न करता है (सः मर्त्यः) वह पुरुष (देवतातये) इन्द्रियों के विशेष हित के लिये ( ऋधक्) अति समृद्धिमान् शक्तिशाली होकर भी ( इत्था शशमे) सचमुच शान्ति को प्राप्त कर लेता है । ( २ उसी प्रकार (यः) जो ( नूनं) निश्चय से (मित्रावरुणा ) प्रजा के स्नेही न्यायाधीश और शत्रुओं और दुष्टों के वारक श्रेष्ठ राजा दोनों का (हव्य- दातये) ग्रहण करने योग्य उत्तम पदार्थों के प्रदान और स्वयं प्राप्त करने के लिये (आचक्रे) आश्रय लेता है (सः मर्त्यः) वह मनुष्य ( देवतातये) विद्वान् और विजयी पुरुषों के हित के लिये (ऋधक् ) समृद्धिमान् होकर भी (इत्था) इस प्रकार से (शशमे) बहुत अधिक शान्ति प्राप्त करता है, वह मान, मद, गर्व नहीं करता और स्वतः उपद्रव रहित भी रहता है । उसके यश और समृद्धि में दूसरे उपद्रव नहीं करते ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - जमदग्निः । मित्रावरुणौ । निचृद् बृहती । मध्यमः ॥
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