यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 35
ऋषिः - श्रुतकक्षसुकक्षावृषी
देवता - सूर्यो देवता
छन्दः - पिपीलिकामध्या निचृदगायत्री
स्वरः - षड्जः
1
यद॒द्य कच्च॑ वृत्रहन्नु॒दगा॑ऽअ॒भि सू॑र्य्य।सर्वं॒ तदि॑न्द्र ते॒ वशे॑॥३५॥
स्वर सहित पद पाठयत्। अ॒द्य। कत्। च॒। वृ॒त्र॒ह॒न्निति॑ वृत्रऽहन्। उ॒दगा॒ इत्यु॒त्ऽअगाः॑। अ॒भि। सू॒र्य्य॒ ॥ सर्व॑म्। तत्। इ॒न्द्र॒। ते॒ वशे॑ ॥३५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य । सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्। अद्य। कत्। च। वृत्रहन्निति वृत्रऽहन्। उदगा इत्युत्ऽअगाः। अभि। सूर्य्य॥ सर्वम्। तत्। इन्द्र। ते वशे॥३५॥
विषय - संघ के वशकर्त्ता का सूर्यवत् उदय ।
भावार्थ -
हे (सूर्य) समस्त ऐश्वर्य के उत्पादक ! हे ( वृत्रहन् ) मेघनाशक सूर्य के समान शत्रुओं के नाशक ! तू (अभि उद् अगाः) उदय कोप्राप्त हो, उन्नत पद पा । (अद्य) आज दिन ( यत् यत् ) जो कुछ भी है (तत् सर्वम्) वह सब हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (ते वशे) तेरे ही वश में हैं।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्रुतकक्षः सुकक्षश्च ऋषी । सूर्य: । पिपीलिकामध्या निचृद् गायत्री । षड्जः ॥
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