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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 74
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    ति॒र॒श्चीनो॒ वित॑तो र॒श्मिरे॑षाम॒धः स्वि॑दा॒सी३दु॒परि॑ स्विदासी३त्।रे॒तो॒धाऽआ॑सन् महि॒मान॑ऽआसन्त्स्व॒धाऽअ॒वस्ता॒त् प्रय॑तिः प॒रस्ता॑त्॥७४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒र॒श्चीनः॑। वित॑त॒ऽइति॒ विऽत॑तः। र॒श्मिः। ए॒षा॒म्। अ॒धः। स्वि॒त्। आ॒सीत्। उ॒परि॑। स्वि॒त्। आ॒सी॒त् ॥ रे॒तो॒धा इति॑ रेतः॒ऽधाः। आ॒स॒न्। म॒हि॒मानः॑। आ॒स॒न्। स्व॒धा। अ॒वस्ता॑त्। प्रय॑ति॒रिति॒ प्रऽय॑तिः। प॒रस्ता॑त् ॥७४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त् । रेतोधाऽआसन्महिमानऽआसन्त्स्वधाऽअवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तिरश्चीनः। विततऽइति विऽततः। रश्मिः। एषाम्। अधः। स्वित्। आसीत्। उपरि। स्वित्। आसीत्॥ रेतोधा इति रेतःऽधाः। आसन्। महिमानः। आसन्। स्वधा। अवस्तात्। प्रयतिरिति प्रऽयतिः। परस्तात्॥७४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 74
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    भावार्थ -
    राष्ट्रपक्ष में- ( एषाम् ) इन अपने स्थानों पर आदरपूर्वक अभिषेक को प्राप्त हुए विद्वान् अधिकारी पुरुषों का शासनाधिकार या तेज (रश्मिः) तेजस्वी सूर्य आदि पदार्थों की किरणों के समान (तिरश्चीनः ) बहुत दूर तक जाने वाला, प्रकाश की किरण के समान तिरछा, अपनी सीध में जाने वाला और ( विततः) विविध प्रकारों से फैलता है । (अधः स्वित् आसीत् ) वह नीचे भी रहता है और ( उपरस्वित् ) और ऊपर भी रहता है । वे सभी राष्ट्र के भीतर ( रेतो-धाः आसन् ) शरीर में वीर्य को धारण करने वाले अंगों के समान स्वयं वीर्यवान् बलवान् एवं ब्रह्मचारी हों और वे (महिमानः) महान् सामर्थ्य वाले हों । उनकी (स्वधा ) अपने शरीर धारण निमित्त प्राप्त अन्न, वेतन आदि पदार्थ ( अवस्तात् ) नीचे अर्थात् तुच्छ हैं परन्तु उनका (प्रयतिः) राष्ट्र की व्यवस्था का उत्तम यत्न और नियम का कार्य (परस्तात्) परम उच्च, उत्कृष्ट हो । (२) अधिदैवत पक्ष में- इन सूर्यादि लोकों का प्रकाश तिरछा, सर्वत्र दूर दूर तक फैलता है । क्या नीचे, क्या ऊपर, क्या पास, क्या दूर ? सभी स्थान पर है । ये सभी ज्योतिर्मय सूर्य आदि पदार्थ, जीव सृष्टि के उत्पन्न करने वाले बीजों को धारण करते हैं और बड़े सामर्थ्य वाले । (स्वधा) स्वयं संसार को धारण करने वाली प्रकृति, शरीर को धारण करने वाले जीव भोग्य पदार्थ अन्न आदि के समान (अवस्तात् ) पर भोग्य और अधीन रहने से नीची श्रेणी के हैं और (प्रयतिः) उनको प्रेरणा देने वाला, चलाने वाला परम प्रयत्न- -स्वरूप परमेश्वर ( परस्तात् ) बहुत ऊंचा, उनसे कहीं महान् है । (३) अध्यात्म में - ( एषाम् रश्मिः ) प्रकृति, प्रजापति का संकल्प और सृष्टि प्रेरक बल इन तीनों का ( रश्मिः) नियामक बल (तिरश्चीनः) मध्य में, (अधस्तात्, उपरिस्वित् ) ऊपर और नीचे सर्वत्र व्यापक है । सृष्टि-रचना के अवसर में (रेतोधाः आसन्) बीजरूप से कर्मों को संस्कार रूप में धारण करने वाले कर्त्ता और भोक्ता जीव भी विद्यमान थे और ( महिमानः आसन् ) पृथिवी आदि पांच महाभूत भोग्यरूप भी थे, परन्तु उनमें भी ( स्वधा अवस्तात् ) अन्न के समान भोग, पदार्थ निकृष्ट था और (प्रयतिः परस्तात्) प्रयत्नशील आत्मा उत्कृष्ट था ( सायण, मही०)(४) अथवा - परमेश्वर के उत्पादक और नियामक बल का वर्णन है- (एषां लोकानां मध्ये रश्मिः) इन समस्त लोकों के बीच में सबका प्रकाशक रश्मि और सर्वनियन्ता ( तिरश्चीनः ) सब दूर ( अधः स्विद् उपरिस्वित् ) ऊपर और नीचे, सर्वत्र व्याप्त है । ये समस्त लोक और महत् आदि प्रकृति विकार गण (रेतोधा:) सृष्टि के उत्पादक ब्रह्म बीज को धारण करने वाले और उसी के (महिमानः) समान सामर्थ्य को धारण करने हारे हैं । परमात्मा (स्वधा ) स्व- रूप को धारण करने वाली परम शक्ति ही ( अवस्तात् ) उरे, छोटे से छोटे पदार्थ में भी है और उसका लोक-सञ्चालक (प्रयतिः) महान् प्रयत्न ( परस्तात् ) दूर से दूर लोक में भी विद्यमान है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिर्ऋषिः । सूर्यो भाववृत्तो देवता । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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