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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 71
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - मित्रावरुणौ देवते छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    गाव॒ऽउपा॑वताव॒तं म॒ही य॒ज्ञस्य॑ र॒प्सुदा॑।उ॒भा कर्णा॑ हिर॒ण्यया॑॥७१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गावः। उप॑। अ॒वत॒। अ॒वतम्। म॒हीऽइति॑ म॒ही। य॒ज्ञस्य॑। र॒प्सुदा॑ ॥ उभा। कर्णा॑। हि॒र॒ण्यया॑ ॥७१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गावऽउपावतावतम्मही यज्ञस्य रप्सुदा । उभा कर्णा हिरण्यया ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    गावः। उप। अवत। अवतम्। महीऽइति मही। यज्ञस्य। रप्सुदा॥ उभा। कर्णा। हिरण्यया॥७१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 71
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    भावार्थ -
    इस ऋचा की व्याख्या देखो अ० ३३ । १९ ॥ तथापि, हे (गाव:) सूर्य की रश्मियों के समान तेजस्वी पुरुषो ! आप लोग (उप भवत) हमारी रक्षा करो और (यज्ञस्य) यज्ञ, सबको एकत्र मिलाये रहने रखने वाले, राष्ट्रीयज्ञ के (रप्सुदा) उत्तम रूप प्रदान करने वाले, सूर्य पृथिवी के समान राजा और प्रजाजन (मही) दोनों पूज्य हैं और (उभा) दोनों ही (हिरण्यया) एक दूसरे के प्रति हितकर और रमणीय ज्ञानवान् और सम्पन्न कार्य करने में पतिपत्नी के समान, (कर्णा) एक ही राष्ट्र के कार्य करने हारे होकर ( अवतम् ) एक दूसरे की रक्षा करो। अथवा- जिस प्रकार गौवें अपने ( अवतम् ) रक्षक गोपति के पास आती हैं उसी प्रकार विद्वान् भी अपने रक्षक को प्राप्त करे उसकी रक्षा करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसिष्ठः । मित्रावरुणौ । गायत्री । षड्जः ॥

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