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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 46
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - वरुणो देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    वरु॑णः प्रावि॒ता भु॑वन्मि॒त्रो विश्वा॑भिरू॒तिभिः॑।कर॑तां नः सु॒राध॑सः॥४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वरु॑णः। प्रा॒वि॒तेति॑ प्रऽअ॒वि॒ता। भु॒व॒त्। मि॒त्रः। विश्वा॑भिः। ऊ॒तिभि॒रित्यू॒तिऽभिः॑ ॥ कर॑ताम्। नः॒। सु॒राध॑स॒ इति॑ सु॒ऽराध॑सः ॥४६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वरुणः प्राविता भुवन्मित्रो विश्वाभिरूतिभिः । करतान्नः सुराधसः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वरुणः। प्रावितेति प्रऽअविता। भुवत्। मित्रः। विश्वाभिः॥ ऊतिभिरित्यूतिऽभिः। करताम्। नः। सुराधस इति सुऽराधसः॥४६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 46
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    भावार्थ -
    ( वरुण: ) दुष्ट पुरुषों का निवारक प्रजा द्वारा वरण करने योग्य और (मित्रः) प्रजा को मरने से बचाने हारा, सबका स्नेही दोनों पदाधिकारी शरीर में उदान और प्राण के समान (विश्वाभिः ऊतिभिः) समस्त रक्षा कार्यों से (प्र अविता) उत्तम रक्षक ( भुवत् ) हों और (नः) हमें (सुराधसः) उत्तम ऐश्वर्य युक्त ( करताम् ) करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेधातिथिः । वरुणः । गायत्री । षड्जः ॥

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