यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 85
ऋषिः - जमदग्निर्ऋषिः
देवता - वायुर्देवता
छन्दः - विराड् बृहती
स्वरः - मध्यमः
1
आ नो॑ य॒ज्ञं दि॑वि॒स्पृशं॒ वायो॑ या॒हि सु॒मन्म॑भिः।अ॒न्तः प॒वित्र॑ऽउ॒परि॑ श्रीणा॒नोऽयꣳ शु॒क्रोऽअ॑यामि ते॥८५॥
स्वर सहित पद पाठआ। नः॒। य॒ज्ञम्। दि॒वि॒स्पृश॒मिति॑ दिवि॒ऽस्पृश॑म्। वायो॒ऽइति॒ वायो॑। या॒हि। सु॒मन्म॑भि॒रिति॑ सु॒मन्म॑ऽभिः ॥ अ॒न्तरित्य॒न्तः। प॒वित्रे॑। उ॒परि॑। श्री॒णा॒नः। अ॒यम्। शु॒क्रः। अ॒या॒मि॒। ते॒ ॥८५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो यज्ञन्दिविस्पृशँवायो याहि सुमन्मभिः । अन्तः पवित्रऽउपरि श्रीणानोयँ शुक्रो अयामि ते ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। नः। यज्ञम्। दिविस्पृशमिति दिविऽस्पृशम्। वायोऽइति वायो। याहि। सुमन्मभिरिति सुमन्मऽभिः॥ अन्तरित्यन्तः। पवित्रे। उपरि। श्रीणानः। अयम्। शुक्रः। अयामि। ते॥८५॥
भावार्थ -
हे (वायो ) वायो ! वायु के समान प्रचण्ड वेग से शत्रुरूप वृक्ष को उखाड़ने में समर्थ ! अथवा, छाज से गिरते अन्न को वेग से पवित्र करने हारे वायु के समान विवेकवान् ! वायो ! तू (सुमन्मभिः) उत्तम ज्ञानों सहित (नः) हमारे ( दिविस्पृशम् ) राजसभा में आश्रित, विद्या प्रकाश से युक्त ( यज्ञम् ) राज्य- पालन के कार्य, या प्रजापति पद को (आयाहि) प्राप्त हो । ( पवित्रे अन्तः उपरि ) पावन या शोधन करने वाले छाज पर जिस प्रकार अन्न रहता उसी प्रकार ( पवित्रे) शुद्ध सदाचार युक्त एवं प्रजा को पवित्र करने वाले तुझ पर ( अयम् ) यह ( शुक्रः) शुद्ध किरणों वाले सूर्य के समान विद्वान् वेदज्ञ पुरुष (श्रीणान) अधिष्टित हैं । इसी कारण मैं प्रजाजन (ते अयामि) तुझ बलबान् राजा के शरण आता हूँ । अर्थात् जिस प्रकार छाज पर से अन्न गिरता है, वायु उसको पवित्र करता, उसके भी ऊपर सूर्य का प्रकाश रहता है उसी प्रकार प्रजा पालन के कार्य में विवेकी सभाध्यक्ष और उस पर भी सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष हो । प्रजा उसके अधीन रहे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - जमदग्निर्ऋषिः । वायुर्देवता । बृहती । मध्यमः ॥
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