अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 17
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - आर्षी गायत्री
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
अप॒ त्ये ता॒यवो॑ यथा॒ नक्ष॑त्रा यन्त्य॒क्तुभिः॑। सूरा॑य वि॒श्वच॑क्षसे ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । त्ये । ता॒यव॑: । य॒था॒ । नक्ष॑त्रा । य॒न्ति॒ । अ॒क्तुऽभि॑: । सूरा॑य । वि॒श्वऽच॑क्षसे ॥२.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
अप त्ये तायवो यथा नक्षत्रा यन्त्यक्तुभिः। सूराय विश्वचक्षसे ॥
स्वर रहित पद पाठअप । त्ये । तायव: । यथा । नक्षत्रा । यन्ति । अक्तुऽभि: । सूराय । विश्वऽचक्षसे ॥२.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 17
विषय - रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ -
(विश्वचक्षसे) समस्त विश्व को देखने वाले या समस्त विश्व को अपने प्रकाश से प्रदीप्त करने वाले (सूराय) सूर्य के तीव्र प्रकाश के कारण (यथा) जिस प्रकार (अक्तुभिः) अपने दीप्तियों या अन्धकारमय रात्रियों सहित (अपयन्ति) विलुप्त हो जाते हैं उसी प्रकार (विश्वचक्षसे सूराय) सर्वद्रष्टा सूर्य के समान योगी के प्रबल प्रभाव से (त्ये) वे नाना प्रकार के (तायवः) चार स्वभाव, अज्ञान अन्धकार के गहरे पर्दे में छिप कर विषय वासना रूप से आत्मा को छलने, लुभाने वाले भोग और वञ्चनाकारी लोग भी (अपयन्ति) भाग जाते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
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