अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 28
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
अत॑न्द्रो या॒स्यन्ह॒रितो॒ यदास्था॒द्द्वे रू॒पे कृ॑णुते॒ रोच॑मानः। के॑तु॒मानु॒द्यन्त्सह॑मानो॒ रजां॑सि॒ विश्वा॑ आदित्य प्र॒वतो॒ वि भा॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठअत॑न्द्र: । या॒स्यन् । ह॒रित॑: । यत् । आ॒ऽअस्था॑त् । द्वे इति॑ । रू॒पे इति॑ । कृ॒णु॒ते॒ । रोच॑मान: । के॒तु॒ऽमान् । उ॒त्ऽयन् । सह॑मान: । रजां॑सि। विश्वा॑: । आ॒दि॒त्य॒: । प्र॒ऽवत॑:। वि । भा॒सि॒॥२.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
अतन्द्रो यास्यन्हरितो यदास्थाद्द्वे रूपे कृणुते रोचमानः। केतुमानुद्यन्त्सहमानो रजांसि विश्वा आदित्य प्रवतो वि भासि ॥
स्वर रहित पद पाठअतन्द्र: । यास्यन् । हरित: । यत् । आऽअस्थात् । द्वे इति । रूपे इति । कृणुते । रोचमान: । केतुऽमान् । उत्ऽयन् । सहमान: । रजांसि। विश्वा: । आदित्य: । प्रऽवत:। वि । भासि॥२.२८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 28
विषय - रोहित, परमेश्वर और ज्ञानी।
भावार्थ -
हे (आदित्य) आदित्य ! आदित्य के समान तेजस्वी आत्मन् ! सूर्य जिस प्रकार (विश्वा रजांसि सहमानः) समस्त लोकों और धूलि पटलों को अपने तेज से दूर करता हुआ (केतुमान्) रश्मियों से युक्त होकर (प्रवतः) दूर से ही प्रकाशित होता है उसी प्रकार तू भी (विश्वा रजांसि) समस्त प्रकार के रजों, विकारों को (सहमानः) अपने तपोबल से दूर करता हुआ (उद्यन्) उनसे ऊपर उठता हुआ (केतुमान्) ज्ञानवान् होकर (प्रवतः) दूर से (विभासि) प्रकाशित होता, प्रसिद्ध होता है। और जिस प्रकार (अतन्द्रः) विना अस्त हुए सूर्य दिशाओं में गति करता है तो (द्वे रूपे कृणुते) दो रूप दिन और रात्रि के प्रगट करता है उसी प्रकार आदित्य योगी भी (अतन्द्रः) तन्द्रा रहित, आलस्य रहित होकर (यास्यन्) मोक्ष-मार्ग में गति करने की इच्छा करता हुआ (यदा) जब (हरितः) अपने हरणशील प्राणों को (आस्थात्) वश करता है तब (रोचमानः) अति प्रकाशमान होता हुआ (द्वे रूपे) दो रूपों को (कृणुते) प्रकट करता है। दो रूप = सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात, निर्बीज और सबीज।
टिप्पणी -
(द्वि०) “दिवि रूपं कृणुषे रोचमानः” इति पैप्प० सं०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्म रोहितादित्यो देवता। १, १२-१५, ३९-४१ अनुष्टुभः, २३, ८, ४३ जगत्यः, १० आस्तारपंक्तिः, ११ बृहतीगर्भा, १६, २४ आर्षी गायत्री, २५ ककुम्मती आस्तार पंक्तिः, २६ पुरोद्व्यति जागता भुरिक् जगती, २७ विराड़ जगती, २९ बार्हतगर्भाऽनुष्टुप, ३० पञ्चपदा उष्णिग्गर्भाऽति जगती, ३४ आर्षी पंक्तिः, ३७ पञ्चपदा विराड़गर्भा जगती, ४४, ४५ जगत्यौ [ ४४ चतुष्पदा पुरः शाक्वरा भुरिक् ४५ अति जागतगर्भा ]। षट्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
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