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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 37
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - एकवसाना आसुरी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    उ॑द॒पूर॑सिमधु॒पूर॑सि वात॒पूर॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒द॒ऽपू: । अ॒सि॒ । म॒धु॒ऽपू: । अ॒सि॒ । वा॒त॒ऽपू: । अ॒सि॒ ॥३.३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदपूरसिमधुपूरसि वातपूरसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उदऽपू: । असि । मधुऽपू: । असि । वातऽपू: । असि ॥३.३७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 37

    भावार्थ -
    हे राजन् ! प्रभो ! (धर्त्ता असि) प्रजाओं का धारण करने हारा, (धरुणः असि) सबका आश्रय या सबको अपने में धारण करने योग्य, सर्वतः उपास्य है। और (वंसगः) वृषभ के समान सुन्दर मनोहर गति से चलने वाला नरपुंगव, नरश्रेष्ठ है। (उदपूः असि) मेघ के समान जल द्वारा प्रजा का पालन करने वाला और (मधुपूः असि) अन्न द्वारा प्रजा का पालन करने वाला और (वातपूः असि) वायु द्वारा प्रजा का पालक है अथवा जल, मधु, अन्न और वायु इनको पवित्र करने वाला है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। यमः मन्त्रोक्ताश्च बहवो देवताः। ५,६ आग्नेयौ। ५० भूमिः। ५४ इन्दुः । ५६ आपः। ४, ८, ११, २३ सतः पंक्तयः। ५ त्रिपदा निचृद गायत्री। ६,५६,६८,७०,७२ अनुष्टुभः। १८, २५, २९, ४४, ४६ जगत्यः। (१८ भुरिक्, २९ विराड्)। ३० पञ्चपदा अतिजगती। ३१ विराट् शक्वरी। ३२–३५, ४७, ४९, ५२ भुरिजः। ३६ एकावसाना आसुरी अनुष्टुप्। ३७ एकावसाना आसुरी गायत्री। ३९ परात्रिष्टुप् पंक्तिः। ५० प्रस्तारपंक्तिः। ५४ पुरोऽनुष्टुप्। ५८ विराट्। ६० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ६४ भुरिक् पथ्याः पंक्त्यार्षी। ६७ पथ्या बृहती। ६९,७१ उपरिष्टाद् बृहती, शेषास्त्रिष्टुमः। त्रिसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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