अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 37
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - एकवसाना आसुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
42
उ॑द॒पूर॑सिमधु॒पूर॑सि वात॒पूर॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒द॒ऽपू: । अ॒सि॒ । म॒धु॒ऽपू: । अ॒सि॒ । वा॒त॒ऽपू: । अ॒सि॒ ॥३.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
उदपूरसिमधुपूरसि वातपूरसि ॥
स्वर रहित पद पाठउदऽपू: । असि । मधुऽपू: । असि । वातऽपू: । असि ॥३.३७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सर्वत्र परमेश्वर के धारण का उपदेश।
पदार्थ
(उदपूः) तू जल सेशोधनेवाला [वा जल से अग्रगामी] (असि) है, (वातपूः) तू वायु से पालनेवाला [वावायु से अग्रगामी] (असि) है, (मधुपूः) तू मधुर [स्वास्थ्यवर्धक] रस से पूर्णकरनेवाला [वा ज्ञान से अग्रगामी] (असि) है ॥३७॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य हैकि पूर्वोक्त प्रकार से परमात्मा को सब दिशाओं में व्यापक जानकर दृढ़ स्वभावहोवें और शुद्ध जल, वायु, अन्न आदि से शरीर के धातुरसों को पुष्ट करें। वहसर्वपोषक परमात्मा जल आदि स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों से और ज्ञानियों के ज्ञानसे अधिक आगे है ॥३६, ३७॥
टिप्पणी
३७−(उदपूः) उदक+पूञ शोधने-क्विप्, वा पुरअग्रगमने-क्विप्। जलेन शोधयिता जलादग्रगामी वा (असि) (मधुपूः) मधु+पॄ पालनपूरणयोः-क्विप्, वा पुर-क्विप्। मधुरस्य स्वास्थ्यवर्धकस्य रसस्य पूरयिता मधुनोज्ञानादग्रगामी वा (असि) (वातपूः) वात+पॄ-क्विप्, वा पुर-क्विप्। वातेन वायुनापालयिता वायोः सकाशादग्रगामी वा (असि) ॥
विषय
'उदपू:-मधुपूः-वातपूः' धर्ता प्रभु
पदार्थ
१.हे प्रभो! आप (धर्ता असि) = हम सबका धारण करनेवाले हैं। आप अपने उपासकों के शरीरों को स्वस्थ करते हैं। उपासना से हमारी वृत्ति विलास की ओर नहीं झुकती और परिणामत: हम स्वस्थ बने रहते हैं। (धरुणः असि) = आप सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्वों का भी धारण करनेवाले हैं आप हमारे मनों व बद्धियों को भी सुरक्षित रखते हैं। आपकी उपासना से हमारे मन निर्मल व बुद्धियाँ सूक्ष्मार्थनाहिणी बनती हैं। (वंसगः असि) = हे प्रभो! आप हमें [वंसानां बननीयगतीनां गमयता] सम्भजनीय, सुन्दर व्यवहारों को प्राप्त करानेवाले हैं। प्रभु का उपासक सदा यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होता है। २.हे प्रभो! आप (उदपः असि) = [उदकस्य पुरयिता] हमारे शरीरों में रेत:कणों [उदक] के पूरयिता हैं। इन रेत:कणों के रक्षण के द्वारा (मधुपू: असि) = माधुर्य के पूरयिता हैं। विलासी व शक्ति का अपव्य करनेवाले लोग ही कटुवचनों का प्रयोग करते हैं। रेत:कणों के रक्षण व माधुर्य के द्वारा आप (वातपू: असि) = [वातस्य पूरयिता] वात का-प्राणशक्ति का पूरण करनेवाले हैं। रेत:कणों का अपव्य व कटुता प्राणशक्ति का संहार करती है।
भावार्थ
प्रभु हमारे शरीरों को धारण करते हैं-मन व बुद्धि का भी धारण करते हैं। इसप्रकार वे हमें 'स्वस्थ शरीर, मन व बुद्धि' वाला बनाकर उत्तम कर्मों में प्रवृत्त करते है। प्रभु हमारे रेत:कणों का व माधुर्य का पूरण करके प्राणशक्ति का पूरण करते हैं।
भाषार्थ
हे परमेश्वर! आप ने पृथिवी को (उदपूः असि) जल से भरपूर किया हैं, (मधुपूः असि) आप ने पृथिवी को माधुर्य ओर मधुर पदार्थों से भरपूर किया हैं, (वातपूः असि) आप ने पृथिवी को प्राणवायु से भरपूर किया हैं।
विषय
स्त्री-पुरुषों के धर्म।
भावार्थ
हे राजन् ! प्रभो ! (धर्त्ता असि) प्रजाओं का धारण करने हारा, (धरुणः असि) सबका आश्रय या सबको अपने में धारण करने योग्य, सर्वतः उपास्य है। और (वंसगः) वृषभ के समान सुन्दर मनोहर गति से चलने वाला नरपुंगव, नरश्रेष्ठ है। (उदपूः असि) मेघ के समान जल द्वारा प्रजा का पालन करने वाला और (मधुपूः असि) अन्न द्वारा प्रजा का पालन करने वाला और (वातपूः असि) वायु द्वारा प्रजा का पालक है अथवा जल, मधु, अन्न और वायु इनको पवित्र करने वाला है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः मन्त्रोक्ताश्च बहवो देवताः। ५,६ आग्नेयौ। ५० भूमिः। ५४ इन्दुः । ५६ आपः। ४, ८, ११, २३ सतः पंक्तयः। ५ त्रिपदा निचृद गायत्री। ६,५६,६८,७०,७२ अनुष्टुभः। १८, २५, २९, ४४, ४६ जगत्यः। (१८ भुरिक्, २९ विराड्)। ३० पञ्चपदा अतिजगती। ३१ विराट् शक्वरी। ३२–३५, ४७, ४९, ५२ भुरिजः। ३६ एकावसाना आसुरी अनुष्टुप्। ३७ एकावसाना आसुरी गायत्री। ३९ परात्रिष्टुप् पंक्तिः। ५० प्रस्तारपंक्तिः। ५४ पुरोऽनुष्टुप्। ५८ विराट्। ६० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ६४ भुरिक् पथ्याः पंक्त्यार्षी। ६७ पथ्या बृहती। ६९,७१ उपरिष्टाद् बृहती, शेषास्त्रिष्टुमः। त्रिसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
You are the treasure-hold, giver and purifier of the waters of life, you are the treasure-hold, giver and purifier of the honey sweets of life, you are the treasure- hold, giver and purifier of prana and pranic energies of life.
Translation
Water-purifying art thou; honey-purifying art thou; wind purifying art thou.
Translation
O God, you are bestower of water, you are bestower of honey and sweet juices and you are the bestower of wind (in this universe).
Translation
O God, Thou art the Nourisher of the people through water, the Rearer of the people through cereals, the Guardian of the people through air!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३७−(उदपूः) उदक+पूञ शोधने-क्विप्, वा पुरअग्रगमने-क्विप्। जलेन शोधयिता जलादग्रगामी वा (असि) (मधुपूः) मधु+पॄ पालनपूरणयोः-क्विप्, वा पुर-क्विप्। मधुरस्य स्वास्थ्यवर्धकस्य रसस्य पूरयिता मधुनोज्ञानादग्रगामी वा (असि) (वातपूः) वात+पॄ-क्विप्, वा पुर-क्विप्। वातेन वायुनापालयिता वायोः सकाशादग्रगामी वा (असि) ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal