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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 38
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    60

    इ॒तश्च॑मा॒मुत॑श्चावतां य॒मे इ॑व॒ यत॑माने॒ यदै॒तम्। प्र वां॑ भर॒न्मानु॑षा देव॒यन्त॒आ सी॑दतां॒ स्वमु॑ लो॒कं विदा॑ने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒त: । च॒ । मा॒ । अ॒मुत॑: । च॒ । अ॒व॒ता॒म् । य॒मे इ॒वेति॑ य॒मेऽइ॑व । यत॑माने॒ इति॑ । यत् । ऐ॒तम् । प्र । वा॒म् । भ॒र॒न् । मानु॑षा: । दे॒व॒ऽयन्त॑: । आ । सी॒द॒ता॒म् । स्वम् । ऊं॒ इति॑ । लो॒कम् । विदा॑ने॒ इति॑ ॥३.३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इतश्चमामुतश्चावतां यमे इव यतमाने यदैतम्। प्र वां भरन्मानुषा देवयन्तआ सीदतां स्वमु लोकं विदाने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इत: । च । मा । अमुत: । च । अवताम् । यमे इवेति यमेऽइव । यतमाने इति । यत् । ऐतम् । प्र । वाम् । भरन् । मानुषा: । देवऽयन्त: । आ । सीदताम् । स्वम् । ऊं इति । लोकम् । विदाने इति ॥३.३८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 38
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्यों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे स्त्री-पुरुषो !आप दोनों] (इतः) यहाँ से [समीप में वा इस जन्म में] (च च) और (अमुतः) वहाँ से [दूर में वा परजन्म में] (मा) मुझे (अवताम्) बचावें, (यत्) क्योंकि (यमे इव) दोनियमवालों के समान (यतमाने) यत्न करते हुए तुम दोनों (ऐतम्) चले हो। (देवयन्तः)उत्तम गुण चाहनेवाले (मानुषाः) मननशील मनुष्यों ने (वाम्) तुम दोनों को (प्र)अच्छे प्रकार (भरन्) पाला है, (स्वम्) अपने (लोकम्) स्थान को (उ) अवश्य (विदाने)जानते हुए [आप दोनों] (आ) आकर (सीदताम्) बैठें ॥३८॥

    भावार्थ

    सब स्त्री-पुरुषजितेन्द्रिय होकर समीप और दूर में तथा लोक और परलोक में सुख के लिये यत्न करकेपरस्पर अपनी सत्ता को उच्च बनावें ॥३८॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१३।२ ॥

    टिप्पणी

    ३८−(इतः) अस्मात् स्थानाल्लोकाद् वा (च) (मा) माम् (अमुतः) तस्माद्दूरदेशात् परलोकाद् वा (च) (अवताम्) रक्षतां भवन्तौ (यमे) सुपां सुलुक्०। पा०७।१।३९। इति सुपः शे इत्यादेशः। यमौ। नियमवन्तौ (इव) यथा (यतमाने) सुपः शे।यतमानौ व्याप्रियमाणौ (यत्) यतः (ऐतम्) अगच्छतं युवाम् (प्र) प्रकर्षेण (वाम्)युवाम् (भरन्) अभरन्। पालितवन्तः (मानुषाः) मननशीलाः पुरुषाः (देवयन्तः)दिव्यगुणान् कामयमानाः (आ) आगत्य (सीदताम्) उपविशतां भवन्तौ (स्वम्) स्वकीयम् (उ) अवश्यम् (लोकम्) स्थानम् (विदाने) सुपः शे। विदाना। जानन्तौ ॥

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    विषय

    यमे इव यतमाने

    पदार्थ

    १. प्रभु गृहस्थ पति-पत्नी से कहते हैं कि आप दोनों (इतः च अमुता च) = इधर से और उधर से-इस लोक से और परलोक से-इहलोक के अभ्युदय व परलोक के निःश्रेयस के द्वारा-(मा अवताम्) = मुझे प्रीणित करनेवाले होओ। अभ्युदय और निःश्रेयस को सिद्ध करते हुए आप मेरे प्रिय बनो। यह होगा तभी (यदा) = जबकि (यमे इव) = एक युगल की भाँति-बिलकुल मिलकर चलनेवालों की भाँति (यतमाने) = घर को स्वर्ग बनाने के लिए यत्नशील होते हुए तुम दोनों (एतम्) = गति करते हो। पति-पत्नी की क्रियाएँ बिलकुल मिलकर हों-वे एक-दूसरे के पूरक बनें। परस्पर का विरोध तो घर को नरक ही बना देता है। २.(वाम्) = आप दोनों को (मानुषा) = मानवमात्र का हित करनेवाले (देवयन्तः) = दिव्यगुणों को अपनाने की कामनावाले पुरुष (प्रभरन्त) = उत्कृष्ट भावनाओं से भरनेवाले हों। इनसे आपको उत्कृष्ट प्रेरणा प्रास हो। आप दोनों विदाने-स्वाध्याय द्वारा ज्ञान की प्रवृत्तिवाले होते हुए (उ) = निश्चय से (स्वं लोक आसीदताम्) = अपने घर में आसीन होओ। इधर-उधर कल्बों में न जाकर घर को ही अपना प्रिय स्थान बनाओ।

    भावार्थ

    गृहस्थ में पति-पत्नी एक युगल की भाँति मिलकर घर को स्वर्ग बनाने का प्रयत्न करते हुए, अभ्युदय और निःश्रेयस को सिद्ध करते हुए प्रभु के प्रिय बने। घरों में मानवहित में प्रवृत्त देवपुरुषों से प्रेरणा प्राप्त करते हुए अतिरिक्त समय को घरों को अच्छा बनाने में लगाएँ।

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    भाषार्थ

    हे प्रधानमन्त्री तथा मुख्यसेनापति! अथवा हे राजा और राणी! (यद्) जब (ऐतम्) तुम दोनों शासन-गद्दी पर आओ, तब (मा) मुझ प्रजाजन की आप दोनों (इतः च) इहलोक से (च) और (अमुतः) उस परलोक से (अवताम्) रक्षा कीजिये। (इव) जैसे कि (यमे) यमाचार्य और यमाचार्या (यतमाने) यत्नपूर्वक, सदुपदेशों द्वारा शिष्यवर्ग की रक्षा इहलोक और परलोक से करते हैं। (देवयन्तः) परमेश्वर देव की कामनावाले (मानुषाः) प्रजाजन (वाम्) आप दोनों को (प्र भरन्) ऐश्वर्य से भर दें। आप दोनों (स्वं लोकम्) शासकरूप में स्थित हूजिये। (विदाने) आप दोनों अपने-अपने विभाग का पूर्णज्ञान रखें, और परस्पर ऐकमत्य से शासन करें।

    टिप्पणी

    [इतश्च अमुतश्च=प्रधानमन्त्री तथा मुख्यसेनापति इहलोक की दृष्टि से, अर्थात् लौकिक समृद्धि तथा शत्रु से रक्षा की दृष्टि से, और परलोक की दृष्टि से, अर्थात् सदाचार और आत्मिकोन्नति की भी दृष्टि से प्रजावर्ग की रक्षा करें। और वे यतमाने=इस उद्देश्य की पूर्ति में सदा यत्नवान् रहें।यमे=यमश्च यमा च यमे। एकशेष में स्त्री का शेष हुआ। जैसे कि "पितरा" अर्थात् "पिता च माता च" में पिता का शेष होता है। और "मातरा" अर्थात् "माता च पिता च" में माता का शेष होता है। पितरा मातरा (अथर्व १८।१।२३; ५।१।४, तथा २०।१०५।२)। यम=यमनियमवान् आचार्य, अशद्यिच्; तथा यमा=यमनियमवती आचार्या। शिक्षा की दृष्टि से प्रधानमन्त्री और मुख्यसेनापति प्रजावर्ग की रक्षा करें। देवयन्तः— जब प्रजावर्ग आस्तिक हो, तभी प्रजावर्ग अपने अधिकारियों का समुचित चुनाव कर सकता हैं।]

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    विषय

    स्त्री-पुरुषों के धर्म।

    भावार्थ

    (यत्) जब तुम दोनों राजागण और प्रजागण माता और पित्ता, अन्न का धारण करने वाले आप दोनों (यमे) सुव्यवस्थित युगलरूप से (यतमाने) परस्पर के पालन में यत्न करते हुए (ऐतम्) आते हो तब तुम दोनों (माम्) मुझको (इतः च) समीप के देश से और (अमुतः च) दूर के देश से भी (अवताम्) रक्षा करो। पृथ्वी समीप से और आकाश दूरके देश से रक्षा करे। (देवयन्तः) देव, चमकने वाले और शक्ति देने वाले पदार्थों को अपने वश करने वाले विद्वान् (मानुषाः) बिचारशील लोग (वां) तुम दोनों का (भरन्) भली प्रकार पालन पोषण करें। आप दोनों (स्वं लोकम्) अपने अपने स्थान, पद और प्रतिष्ठा को (विदाने) प्राप्त करते हुए (आसीदताम्) विराजमान रहो। द्यौर्हविर्धानम्। तै० २। १। ५। १॥ द्यावा पृथिवी वै देवानां हविर्धाने आस्ताम्। ऐ० १। २९ ॥

    टिप्पणी

    त्क्वार्थे क्तः। संवृत्य इत्यर्थः। ३८-४१ पर्यन्तानामृचां ऋग्वेदे विवस्वानादित्य ऋषिः हविर्धाने देवते।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमः मन्त्रोक्ताश्च बहवो देवताः। ५,६ आग्नेयौ। ५० भूमिः। ५४ इन्दुः । ५६ आपः। ४, ८, ११, २३ सतः पंक्तयः। ५ त्रिपदा निचृद गायत्री। ६,५६,६८,७०,७२ अनुष्टुभः। १८, २५, २९, ४४, ४६ जगत्यः। (१८ भुरिक्, २९ विराड्)। ३० पञ्चपदा अतिजगती। ३१ विराट् शक्वरी। ३२–३५, ४७, ४९, ५२ भुरिजः। ३६ एकावसाना आसुरी अनुष्टुप्। ३७ एकावसाना आसुरी गायत्री। ३९ परात्रिष्टुप् पंक्तिः। ५० प्रस्तारपंक्तिः। ५४ पुरोऽनुष्टुप्। ५८ विराट्। ६० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ६४ भुरिक् पथ्याः पंक्त्यार्षी। ६७ पथ्या बृहती। ६९,७१ उपरिष्टाद् बृहती, शेषास्त्रिष्टुमः। त्रिसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O complementarities of life, nature and existence, men and women, heaven and earth, Prakrti and Purusha, mother and father, who move together in action like twins, pray save me from the sufferance of life here and there in the other beyond. Let the people dedicated to divinity serve you both together for prosperity and self-fulfilment. You know your own place in the world of existence, pray come and be seated there with us.

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    Translation

    Both from here and from yonder let them aid me. As yé (du.) (neut.) went pressing on (root yat) like two twins, godloving men bring you forward; set ye, (each) on thine own place, knowing (it).

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    Translation

    O Teacher and teacheress, you both like twain engaged in effort to do the good when come (to me) guard our safety in this world and also in other world. The men deserving to become Deva, the men of merit support and nourish you both. You knowing your position occupy your seats.

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    Translation

    O father and mother, behaving like twins working for the good of the world, let ye both protect me from near and far! May virtuous, learned persons protect ye. Knowing your distinct places be ye seated.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३८−(इतः) अस्मात् स्थानाल्लोकाद् वा (च) (मा) माम् (अमुतः) तस्माद्दूरदेशात् परलोकाद् वा (च) (अवताम्) रक्षतां भवन्तौ (यमे) सुपां सुलुक्०। पा०७।१।३९। इति सुपः शे इत्यादेशः। यमौ। नियमवन्तौ (इव) यथा (यतमाने) सुपः शे।यतमानौ व्याप्रियमाणौ (यत्) यतः (ऐतम्) अगच्छतं युवाम् (प्र) प्रकर्षेण (वाम्)युवाम् (भरन्) अभरन्। पालितवन्तः (मानुषाः) मननशीलाः पुरुषाः (देवयन्तः)दिव्यगुणान् कामयमानाः (आ) आगत्य (सीदताम्) उपविशतां भवन्तौ (स्वम्) स्वकीयम् (उ) अवश्यम् (लोकम्) स्थानम् (विदाने) सुपः शे। विदाना। जानन्तौ ॥

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