अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 63
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
36
यो द॒ध्रेअ॒न्तरि॑क्षे॒ न म॑ह्ना पितॄ॒णां क॒विः प्रम॑तिर्मती॒नाम्। तम॑र्चतवि॒श्वमि॑त्रा ह॒विर्भिः॒ स नो॑ य॒मः प्र॑त॒रं जी॒वसे॑ धात् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । द॒ध्रे । अ॒न्तरि॑क्षे । न । म॒ह्ना । पि॒तॄ॒णाम् । क॒वि: । प्रऽम॑ति: । म॒ती॒नाम् । तम् । अ॒र्च॒त॒ । वि॒श्वऽमि॑त्रा: । ह॒वि:ऽभि॑: । स: । न॒: । य॒म: । प्र॒ऽत॒रम् । जी॒वसे॑ । धा॒त् ॥३.६३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो दध्रेअन्तरिक्षे न मह्ना पितॄणां कविः प्रमतिर्मतीनाम्। तमर्चतविश्वमित्रा हविर्भिः स नो यमः प्रतरं जीवसे धात् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । दध्रे । अन्तरिक्षे । न । मह्ना । पितॄणाम् । कवि: । प्रऽमति: । मतीनाम् । तम् । अर्चत । विश्वऽमित्रा: । हवि:ऽभि: । स: । न: । यम: । प्रऽतरम् । जीवसे । धात् ॥३.६३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अभय पाने का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जिस [परमात्मा]ने (पितॄणाम्) पितरों [पालक महात्माओं] में (कविः) बुद्धिमान् और (मतीनाम्)बुद्धिमानों में (प्रमतिः) बड़ा बुद्धिमान् होकर (अन्तरिक्षे) आकाश के बीच (न)प्रबन्ध के साथ (मह्ना) अपनी महिमा से [सब लोकों को] (दध्रे) धारण किया है। (तम्) उस [परमात्मा] को (विश्वमित्राः) सबके मित्र होकर तुम (हविर्भिः)आत्मसमर्पणों से (अर्चत) पूजो, (सः) वह (यमः) न्यायकारी परमेश्वर (नः) हमें (प्रतरम्) अधिक उत्तमता से (जीवसे) जीने के लिये (धात्) धारण करे ॥६३॥
भावार्थ
जो परमात्मा आकाश केबीच सब लोगों को रचकर आकर्षण आदि नियम में रखता है, सब मनुष्य उस जगदीश्वर कीउपासना कर के अपने जीवन को अधिक-अधिक उच्च बनाते हैं ॥६३॥इस मन्त्र का उत्तरार्धआगे है, अ० १८।४।५४ ॥
टिप्पणी
६३−(यः) परमात्मा (दध्रे) धृञ् धारणे-लिट्। धृतवान् (अन्तरिक्षे) आकाशे (न) णह बन्धने-ड। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेर्लुक्। नेन प्रबन्धेन। आकर्षणादिनियमेन (मह्ना) स्वमहिम्ना (पितॄणाम्)पालकमहात्मनां मध्ये (कविः) मेधावी (प्रमतिः) प्रकृष्टबुद्धियुक्तः (मतीनाम्)मतयो मेधाविनाम-निघ० ३।१५। मेधाविनां मध्ये (तम्) परमात्मानम् (अर्चत) पूजयत (विश्वमित्राः) सर्वेषां सखायः सन्तः (हविर्भिः) आत्मदानैः (सः) (नः) अस्मान् (यमः) नियामकः परमेश्वरः (प्रतरम्) प्रकृष्टतरम् (जीवसे) जीवनाय (धात्)दध्यात्। धारयेत् ॥
विषय
'मतीनां प्रमतिः' प्रभुः
पदार्थ
१. (य:) = जो (पितॄणां कविः) = पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त लोगों को उनके कर्तव्यों का उपदेश देनेवाले है [कौति, उक शब्दे] तथा (मतीनाम् प्रमतिः) = ज्ञानियों को प्रकृष्ट ज्ञान प्राप्त करनेवाले हैं, वे प्रभु (नु) = अब [न संप्रत्यर्थे] (मह्ना) = अपनी महिमा से (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्ष में (दधे) = सब लोक लोकान्तरों का धारण कर रहे हैं। हे (विश्वामित्रा:) = सब प्राणियों के प्रति स्नेहवाले लोगो! (तम्) = उस प्रभु को (हविभि:) = दानपूर्वक अदन से-यज्ञशेष के सेवन से (अर्चत) = पूजो। २. ऐसा करने पर (स:) = वे (यम:) = सर्वनियन्ता प्रभु (नः) = हमें (प्रतरं जीवसे) = प्रकृष्टतर जीवन के लिए (धात्) = धारण करें|
भावार्थ
प्रभु ही हमें कर्तव्यों का उपदेश देनेवाले हैं-सब ज्ञान के दाता हैं। वे अपनी महिमा से सब लोकों को अन्तरिक्ष में धारण कर रहे हैं। हम त्यागपूर्वक अदन करते हुए प्रभु का अर्चन करें। वे नियन्ता प्रभु हमें दीर्घजीवन प्राप्त कराएँ।
भाषार्थ
(यः) जो परमेश्वर (मला) निज महिमा से हम प्राणियों को (दध्रे) धारण कर रहा है, (न) जैसे कि (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में वह वायु, मेघ, सूर्य, चान्द, ग्रह, नक्षत्र, तारागणों को धारण किये हुए है। वह (पितृणाम्) हमारे पितृ-कवियों में (कविः) सर्वश्रेष्ठ कवि है, और (मतीनाम्) मतिमानों में (प्रमतिः) सर्वाधिक मतिमान् है। (विश्वमित्राः) हे सर्वभूत- मैत्रीसम्पन्न उपासको ! (हविर्भिः) यज्ञिय हवियों और आत्मसमर्पणों द्वारा (तम्) उसकी (अर्चत) अर्चनाएं किया करो। (सः) वह (यमः) जगन्नियन्ता (नः) हमारा (धात्) धारण-पोषण करे। (प्रतरं जीवसे) ताकि हम दीर्घकाल तक जीवित रह सकें। [पितृ कवि = मनुष्यकवि।]
विषय
स्त्री-पुरुषों के धर्म।
भावार्थ
(यः) जो (मह्ना) महान् सामर्थ्य से (न) मानो (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष आकाश में समस्त लोकों को (दध्रे) धारण करता है और जो (पितॄणां) पालन करने वाले समस्त पालकों में से (कविः) सब से अधिक प्रज्ञावान्, कवि और (मतीनाम्) मननशील पुरुषों में से (प्रमतिः) सबसे उत्कृष्ट मननशील है। हे (विश्वमित्राः) समस्त प्राणियों को स्नेह करने वाले सज्जन पुरुषो ! आप लोग (तम् अर्चत) उसकी अर्चना करो, उसके गुणानुवाद करो। (नः) हम सबका (यमः) नियन्ता यम वही है, जो हमें (जीवसे) जीवन भर (प्रतरम्) बड़ी ही उत्तम रीति से (धात्) पालन पोषण करता है।
टिप्पणी
‘अन्तरिक्षेण’ इति क्वचित सायणाभिमतश्च।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः मन्त्रोक्ताश्च बहवो देवताः। ५,६ आग्नेयौ। ५० भूमिः। ५४ इन्दुः । ५६ आपः। ४, ८, ११, २३ सतः पंक्तयः। ५ त्रिपदा निचृद गायत्री। ६,५६,६८,७०,७२ अनुष्टुभः। १८, २५, २९, ४४, ४६ जगत्यः। (१८ भुरिक्, २९ विराड्)। ३० पञ्चपदा अतिजगती। ३१ विराट् शक्वरी। ३२–३५, ४७, ४९, ५२ भुरिजः। ३६ एकावसाना आसुरी अनुष्टुप्। ३७ एकावसाना आसुरी गायत्री। ३९ परात्रिष्टुप् पंक्तिः। ५० प्रस्तारपंक्तिः। ५४ पुरोऽनुष्टुप्। ५८ विराट्। ६० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ६४ भुरिक् पथ्याः पंक्त्यार्षी। ६७ पथ्या बृहती। ६९,७१ उपरिष्टाद् बृहती, शेषास्त्रिष्टुमः। त्रिसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O men and women, friends of the world of life, worship him, with homage of faith, love and havi, who is the creative visionary and wisest of the wise and parental powers of nature and humanity, and who, surely with his sole omnipotence, holds and sustains the stars and planets in space. May he, Yama, lord ordainer of life and time, sustain us too unto a long and full life of high quality beyond sorrow and suffering.
Translation
He who maintains himself by his might, like (birds ?) in the atmosphere, poet of the Fathers, favorer of prayers - him, with oblations; may that Yama give us to live further on.
Translation
O friends, all the people, you adore and pray with faith and knowledge Him (God) who, through His grandeur now holds up all the worlds and who is most intelligent amongst all the pretective forces and is most excellent in understanding amongest all indowed with good understand. May He who is All-controlling Divinity lead us to lengthened life.
Translation
God, who is the Sage of Fathers, Wisest among the wise, verily holds all worlds with His might in air’s mid-region. Praise Him ye lovers of mankind with devotion. To lengthened life shall He, the Just God, lead us.
Footnote
See Atharva, 18-4-54.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६३−(यः) परमात्मा (दध्रे) धृञ् धारणे-लिट्। धृतवान् (अन्तरिक्षे) आकाशे (न) णह बन्धने-ड। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तेर्लुक्। नेन प्रबन्धेन। आकर्षणादिनियमेन (मह्ना) स्वमहिम्ना (पितॄणाम्)पालकमहात्मनां मध्ये (कविः) मेधावी (प्रमतिः) प्रकृष्टबुद्धियुक्तः (मतीनाम्)मतयो मेधाविनाम-निघ० ३।१५। मेधाविनां मध्ये (तम्) परमात्मानम् (अर्चत) पूजयत (विश्वमित्राः) सर्वेषां सखायः सन्तः (हविर्भिः) आत्मदानैः (सः) (नः) अस्मान् (यमः) नियामकः परमेश्वरः (प्रतरम्) प्रकृष्टतरम् (जीवसे) जीवनाय (धात्)दध्यात्। धारयेत् ॥
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