अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 59
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
47
ये नः॑ पि॒तुःपि॒तरो॒ ये पि॑ताम॒हा य आ॑विवि॒शुरु॒र्व॑न्तरि॑क्षम्। तेभ्यः॑स्व॒राडसु॑नीतिर्नो अ॒द्य व॑थाव॒शं त॒न्वः कल्पयाति ॥
स्वर सहित पद पाठये । न: । पि॒तु: । पि॒तर॑: । ये । पि॒ता॒म॒हा: । ये । आ॒ऽवि॒वि॒शु: । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । तेभ्य॑: । स्व॒ऽराट् । असु॑ऽनीति: । न॒: । अ॒द्य । य॒था॒ऽव॒शम् । त॒न्व॑: । क॒ल्प॒या॒ति॒ ॥३.५९॥
स्वर रहित मन्त्र
ये नः पितुःपितरो ये पितामहा य आविविशुरुर्वन्तरिक्षम्। तेभ्यःस्वराडसुनीतिर्नो अद्य वथावशं तन्वः कल्पयाति ॥
स्वर रहित पद पाठये । न: । पितु: । पितर: । ये । पितामहा: । ये । आऽविविशु: । उरु । अन्तरिक्षम् । तेभ्य: । स्वऽराट् । असुऽनीति: । न: । अद्य । यथाऽवशम् । तन्व: । कल्पयाति ॥३.५९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
घर की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो पुरुष (नः)हमारे (पितुः) पिता के (पितरः) पिता के समान हैं, और (ये) जो [उसके] (पितामहाः)दादे के तुल्य हैं, और (ये) जो (उरु) चौड़े (अन्तरिक्षम्) आकाश में [विद्याबल सेविमान आदि द्वारा] (आविविशुः) प्रविष्ट हुए हैं, (तेभ्यः) उन [पितरों] के लिये (स्वराट्) स्वयं राजा (असुनीतिः) प्राणदाता परमेश्वर (नः) हमारे (तन्वः) शरीरोंको (अद्य) अब (यथावशम्) [हमारी] कामना के अनुकूल (कल्पयाति) समर्थ करे ॥५९॥
भावार्थ
जो पितर लोग विद्या केभण्डार परोपकारी होवें, सब मनुष्य परमेश्वर की प्रार्थना द्वारा विद्या आदि शुभगुण प्राप्त कर के उन महात्माओं के उद्देश्य पूरे करने में समर्थ होवें ॥५९॥इसमन्त्र का उत्तरार्द्ध कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१५।१४ तथा यजुर्वेद में−१९।६० और पूर्वार्द्ध ऊपर आया है-अ० १८।२।४९ ॥
टिप्पणी
५९−पूर्वार्द्धो व्याख्यातः-अ०१८।२।४९। (तेभ्यः) पितृभ्यः (स्वराट्) स्वयमेव राजा शासकः (असुनीतिः) असूनांप्राणानां नेता प्रापकः परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (अद्य) इदानीम् (यथावशम्)यथाकामम् (तन्वः) शरीराणि (कल्पयाति) कल्पयेत्। समर्थयेत् ॥
विषय
स्वराट् असुनीतिः पिता
पदार्थ
१. (ये) = जो (न:) = हमारे (पितुः पितर:) = पिता के भी पिता हैं, (ये पितामहा:) = जो हमारे पितामह हैं अथवा जो हमारे पिता के पितामह, अर्थात् हमारे प्रपितामह है, (ये) = जो गृहस्थ से ऊपर उठकर (उरु अन्तरिक्षम्) = विशाल अन्तरिक्ष में-वसुधारूप विस्तृत परिवार में (आविविशुः) = प्रविष्ट हुए हैं, २. (तेभ्य:) = उन पितरों से शिक्षित होकर (न:) = हमारे पिता भी (अद्य) = आज (स्वराट) = आत्मशासन करनेवाले तथा (असुनीति:) = प्राणों का ठीक प्रणयन करनेवाले-प्राणायाम द्वारा प्राणसाधना सम्पन्न बने हैं। ये हमारे पिता (यथावशम्) = अपनी इच्छा के अनुसार (तन्वः) = हमारे शरीरों को कल्पयाति निर्मित करते हैं। पिता जैसा संकल्प करते हैं, वैसे ही उनके सन्तान होते हैं।
भावार्थ
हम अपने पितरों से उत्तम शिक्षा प्राप्त करके आत्मशासन की वृत्तिवाले व प्राण साधना सम्पन्न बनें। ऐसा होने पर हम संकल्प के अनुसार उत्तम सन्तानों को जन्म दे सकेंगे।
भाषार्थ
(ये) जो (नः) हमारे (पितुः) पिता के (पितरः) पितर, (ये) जो पिता के (पितामहाः) पितामह, (ये) जो कि (उरु अन्तरिक्षम्) विस्तृत-अन्तरिक्ष में, या सर्वान्तर्वासी परमेश्वर में (आ विविशुः) प्रवेश पाए हुए हैं, (नः तेभ्यः) हमारे उन पितर आदि के लिये (स्वराट्) स्वयं ज्योतिस्वरूप तथा (असुनीतिः) प्राणों का नेता परमेश्वर (अद्य) आज (यथावशम्) उन की कामनाओं के अनुसार (तन्वः) शरीरों को (कल्पयाति) सामर्थ्य युक्त रचता है।
टिप्पणी
[मन्त्र में गृहस्थी अपने पिता पितामह प्रपितामह आदि के लिये शुभ कामनाएं करता है। अन्तरिक्षम् = अन्तरि अन्तः क्षम् (क्षि निवासे) = सर्वान्तर्वासी परमेश्वर। सम्भवतः मन्त्र में मुक्तात्माओं का वर्णन है, जो कि अन्तरिक्ष और परमेश्वर में स्वच्छन्द विचरते हैं। अद्य = किसी भी शुभ दिन में। यथावशम् = मुक्तात्मा जीव मुक्तावस्था में पुनर्जन्म के लिये जैसी कामना (=वश) करता है, मुक्तिकाल के उपभोग के पश्चात् उसे उस कामना के सदृश शरीर और शारीरिक-सामर्थ प्राप्त होता है।]
विषय
स्त्री-पुरुषों के धर्म।
भावार्थ
(ये) जो (नः) हमारे (पितुः) पिता के (पितरः) पिता लोग और (पितामहाः) उनके भी पिता पितामह लोग हैं और (ये) जो भी (उरु) विशाल (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष में (आविविशुः) प्रविष्ट हैं अर्थात् देह छोड़ कर जो मोक्ष में आश्रय करते हैं (असुनीतिः) प्राणों को बाद में वायु में प्राप्त करानेवाला सर्व प्राणप्रद (स्वराड्) स्वयं प्रकाशमान परमेश्वर (यथावशम्) उनके आपने वश=कामना या प्रबल इच्छा के अनुसार (अद्य) आज तक (तेभ्यः) उनके (तन्वः) शरीरों को (कल्पयाति) बनाता है।
टिप्पणी
‘तेभ्यः स्वराडसुनीतिमेता यथावशं तन्वं कल्पयस्व’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः मन्त्रोक्ताश्च बहवो देवताः। ५,६ आग्नेयौ। ५० भूमिः। ५४ इन्दुः । ५६ आपः। ४, ८, ११, २३ सतः पंक्तयः। ५ त्रिपदा निचृद गायत्री। ६,५६,६८,७०,७२ अनुष्टुभः। १८, २५, २९, ४४, ४६ जगत्यः। (१८ भुरिक्, २९ विराड्)। ३० पञ्चपदा अतिजगती। ३१ विराट् शक्वरी। ३२–३५, ४७, ४९, ५२ भुरिजः। ३६ एकावसाना आसुरी अनुष्टुप्। ३७ एकावसाना आसुरी गायत्री। ३९ परात्रिष्टुप् पंक्तिः। ५० प्रस्तारपंक्तिः। ५४ पुरोऽनुष्टुप्। ५८ विराट्। ६० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ६४ भुरिक् पथ्याः पंक्त्यार्षी। ६७ पथ्या बृहती। ६९,७१ उपरिष्टाद् बृहती, शेषास्त्रिष्टुमः। त्रिसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Those who are our parents’ parents and grand parents, who have gone forward and entered into the wide space, for those forefathers of ours, the self- refulgent ordainer of the cycle of life and pranic energy creates new bodies always according to their inner desires recorded in the mind.
Translation
They that are our father’s fathers, that are (his) grandfathers, that entered the wide atmosphere - for them may the autocratic second-life today shape our bodies as he will.
Translation
For those elders who are our fathers-father, who are our grandfathers' father who (after death) enter into vast space, self-refulgent God who is the ordainor of living world forms, at moment the bodies according to his power and their previous deeds.
Translation
Our father’s fathers and their sires, they who have entered into air’s wide region in aeroplanes, to carry out their ideals shall the Self-Resplendent God, the Giver of vital breaths, strengthen our bodies according to our desire.
Footnote
See Rig, 10-15-14, Yajur, 19-60.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५९−पूर्वार्द्धो व्याख्यातः-अ०१८।२।४९। (तेभ्यः) पितृभ्यः (स्वराट्) स्वयमेव राजा शासकः (असुनीतिः) असूनांप्राणानां नेता प्रापकः परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (अद्य) इदानीम् (यथावशम्)यथाकामम् (तन्वः) शरीराणि (कल्पयाति) कल्पयेत्। समर्थयेत् ॥
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