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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 21
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    51

    अधा॒ यथा॑ नःपि॒तरः॒ परा॑सः प्र॒त्नासो॑ अग्न ऋ॒तमा॑शशा॒नाः। शुचीद॑य॒न्दीध्य॑त उक्थ॒शासः॒क्षामा॑ भि॒न्दन्तो॑ अरु॒णीरप॑ व्रन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । यथा॑ । न॒: । पि॒तर॑: । परा॑स: । प्र॒त्नास॑: । अ॒ग्ने॒ । ऋ॒तम् । आ॒ऽश॒शा॒ना: । शुचि॑ । इत् । अ॒य॒न् । दीध्य॑त: । उ॒क्थ॒ऽशस॑: । क्षाम॑ । भि॒न्दन्त॑: । अ॒रु॒णी: । अप॑ । व्र॒न् ॥३.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधा यथा नःपितरः परासः प्रत्नासो अग्न ऋतमाशशानाः। शुचीदयन्दीध्यत उक्थशासःक्षामा भिन्दन्तो अरुणीरप व्रन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध । यथा । न: । पितर: । परास: । प्रत्नास: । अग्ने । ऋतम् । आऽशशाना: । शुचि । इत् । अयन् । दीध्यत: । उक्थऽशस: । क्षाम । भिन्दन्त: । अरुणी: । अप । व्रन् ॥३.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 21
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पितरों के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे विद्वान् ! (अध) फिर (यथा) जैसे (नः) हमारे (परासः) उत्तम (प्रत्नासः) प्राचीन (पितरः) पितर [रक्षक महात्मा] (ऋतम्) सत्य धर्म को (आशशानाः) अच्छे प्रकार सूक्ष्म करनेवाले [हुए हैं] [वैसे ही] (दीध्यतः) प्रकाशमान, (उक्थशासः) प्रशंसनीय कर्मों कीस्तुति करनेवालों ने (शुचि) पवित्र कर्म को (इत्) ही (अयन्) प्राप्त किया है, और (क्षाम) हानि को (भिन्दन्तः) तोड़ते हुए उन्होंने (अरुणीः) प्राप्तियोग्यक्रियाओं को वैसे ही (अपव्रन्) खोला है ॥२१॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार पहिलेविद्वान् लोग पिता आदि महात्माओं का अनुकरण करके विघ्नों को हटा कर उपकारी कामोंका प्रचार करते आये हैं, वैसे ही सब विद्वानों को करना चाहिये ॥२१॥मन्त्र २१-२३कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−४।२।१६-१८ और यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में भीहै−१९।६९ ॥

    टिप्पणी

    २१−(अध) अथ। अनन्तरम् (यथा) येन प्रकारेण (नः) अस्माकम् (पितरः) (परासः) पराः। उत्कृष्टाः (प्रत्नासः) प्रत्नाः। प्राचीनाः (अग्ने) हे विद्वन् (ऋतम्) सत्यधर्मम् (आशशानाः) आङ्+शो तनूकरणे यद्वा शश प्लुतगतौ-कानच्।सूक्ष्मीकुर्वाणाः (शुचि) पवित्रं कर्म (इत्) एव (अयन्) इण् गतौ-लङ्।प्राप्तवन्तः (उक्थशासः) मन्त्रे श्वेतवहोक्थशस्पुरोडाशो ण्विन्। पा० ३।२।७१।उक्थ+शंसु स्तुतौ−ण्विन्, नकारलोपः, पदकाले ह्रस्वश्छान्दसः। उक्थ्यानांप्रशंसनीयकर्मणां शंसितारः स्तोतारः (क्षाम) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। क्षैक्षये-मनिन्। क्षयम्। हानिम् (भिन्दन्तः) छिन्दन्तः। विदारयन्तः (अरुणीः)अर्तेश्च। उ० ३।६०। ऋ गतौ-उनन् चित्, ङीप्। प्राप्तव्याः क्रियाः (अप व्रन्)वृणोतेर्लुङ्। मन्त्रे घसह्वरणशवृ०। मा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। अपावृण्वन्।प्रकाशितवन्तः ॥

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    विषय

    यज्ञों द्वारा 'पवित्र व दीप्त लोक' की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन्! (अधा) = अब यथा-जैसे न: हमारे परासः उत्कृष्ट जीवनवाले प्रत्नासः-पुराणे पितर:-पितर ऋतम् (आशशाना:) = यज्ञ व सत्य को प्रास करते हुए (इत) = निश्चय से (शचि अयन) = दीप्तलोक को प्राप्त करनेवाले हुए, उसीप्रकार अब भी हमारे (दीध्यतः) = ज्ञान की दीप्तिवाले, (उक्थशास:) = प्रभु के स्तोत्रों का शंसन करनेवाले पितर (क्षाम भिन्दन्तः) = [क्षमा रात्रि: तत्सम्बन्धि तमः पापम्] अविद्यान्धकारवाली रात्रि के सम्बन्धी अज्ञानान्धकार को विदीर्ण करते हुए (अरुणी:) = ज्ञान की तेजस्वी किरणों को (अपनन्) = विवृत करनेवाले होते हैं। ये हमारे लिए अन्धकार को दूर करके प्रकाश को प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    पितर यज्ञों को करते हुए पवित्र, दीप्तलोक को प्रात करते हैं। वे ज्ञानी व प्रभु के स्तोता पितर हमारे लिए अज्ञानान्धकार को दूर करके ज्ञान का प्रकाश प्रास कराएँ।

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    भाषार्थ

    (अध) तथा (अग्ने) हे ज्ञानाग्निसम्पन्न विद्वन्! (परासः) श्रेष्ठ, (ऋतम्) सत्यमार्ग का (आशशानाः) अवलम्बन करने वाले, (उक्थशासः) वैदिक सूक्तों का उपदेश देने वाले (नः) हमारे (प्रत्नासः) पुरातन पितर अर्थात् माता-पिता आदि ने (यथा) जैसे (दीध्यतः) ध्यानयोग में देदीप्यमान होकर (क्षामा भिन्दन्तः) पार्थिव शरीर-पुरियों का भेदन कर, (अरुणीः) आध्यात्मिक ज्ञान ज्योतियों पर पड़े (अप व्रन्) आवरणों को अपाकृत किया अर्थात् हटाया, और (शुचि) पवित्र परमेश्वरीय ज्योति को (इत्) निश्चय से (अयन्) प्राप्त किया, [वैसे आप भी करो]।

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    विषय

    स्त्री-पुरुषों के धर्म।

    भावार्थ

    (अघ) और (यथा) जिस प्रकार (नः) हमारे (परासः) अतिश्रेष्ठ (प्रत्नासः) पुरातन (पितरः) गुरुजन (ऋतम्) सत्य ज्ञान को (आ शशानाः) प्राप्त करते हुए (शुचि इत्) शुद्ध प्रकाश को (अयन्) प्राप्त होते हैं और (दीध्यतः) स्वयं प्रकाशमान होकर (उक्थशासः) उक्थ=ब्रह्म या वेद मन्त्रों का अनुशासन करते हुए (क्षाम) अन्धकार को (भिन्दन्तः) नाश करते हुए (अरुणीः) अक्ष्ण, तेजमय कान्तिमय, ज्ञानधाराओं को या वेदवाणियों को भी (अपव्रन्) प्रकट या प्रकाशित करते रहे हैं उसी प्रकार हम भी किया करें।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘आशुषाणाः’ (तृ०) ‘दीधितम्’ इति क्वचित्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमः मन्त्रोक्ताश्च बहवो देवताः। ५,६ आग्नेयौ। ५० भूमिः। ५४ इन्दुः । ५६ आपः। ४, ८, ११, २३ सतः पंक्तयः। ५ त्रिपदा निचृद गायत्री। ६,५६,६८,७०,७२ अनुष्टुभः। १८, २५, २९, ४४, ४६ जगत्यः। (१८ भुरिक्, २९ विराड्)। ३० पञ्चपदा अतिजगती। ३१ विराट् शक्वरी। ३२–३५, ४७, ४९, ५२ भुरिजः। ३६ एकावसाना आसुरी अनुष्टुप्। ३७ एकावसाना आसुरी गायत्री। ३९ परात्रिष्टुप् पंक्तिः। ५० प्रस्तारपंक्तिः। ५४ पुरोऽनुष्टुप्। ५८ विराट्। ६० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ६४ भुरिक् पथ्याः पंक्त्यार्षी। ६७ पथ्या बृहती। ६९,७१ उपरिष्टाद् बृहती, शेषास्त्रिष्टुमः। त्रिसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O Agni, harbinger of light and leader of humanity, as our forefathers, ancients and later, and our parental seniors, pure and sanctified, dedicated to truth and rectitude, refining, intensifying and expanding yajna, rising and shining, singing songs of divine praise, broke new grounds on the earth and discovered new lights of existence, so should we rise, march forward and shine.

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    Translation

    So then as our distant Fathers, the ancient ones, O Agni, sharpening the rite: they went to the bright, they shone, praising with song; splitting the ground, they uncovered the ruddy ones.

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    Translation

    O preceptor, you please make the student shining with splendour of knowledge as our great ancient fore-fathers resorting to truth and Yajna, have achieved pure vision and they becoming enlightened with splendor, doing prayers with the vedic verses and piercing through darkness have dawned the red dawns of knowledge.

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    Translation

    O learned person, just as our noble ancient elders, were the expounders of truth, pure in character, self-refulgent, preachers of truths, dispelling ignorance and darkness, spread Vedic teachings, so should we.

    Footnote

    See Rig, 4-2-16, Yajur, 19-69.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २१−(अध) अथ। अनन्तरम् (यथा) येन प्रकारेण (नः) अस्माकम् (पितरः) (परासः) पराः। उत्कृष्टाः (प्रत्नासः) प्रत्नाः। प्राचीनाः (अग्ने) हे विद्वन् (ऋतम्) सत्यधर्मम् (आशशानाः) आङ्+शो तनूकरणे यद्वा शश प्लुतगतौ-कानच्।सूक्ष्मीकुर्वाणाः (शुचि) पवित्रं कर्म (इत्) एव (अयन्) इण् गतौ-लङ्।प्राप्तवन्तः (उक्थशासः) मन्त्रे श्वेतवहोक्थशस्पुरोडाशो ण्विन्। पा० ३।२।७१।उक्थ+शंसु स्तुतौ−ण्विन्, नकारलोपः, पदकाले ह्रस्वश्छान्दसः। उक्थ्यानांप्रशंसनीयकर्मणां शंसितारः स्तोतारः (क्षाम) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। क्षैक्षये-मनिन्। क्षयम्। हानिम् (भिन्दन्तः) छिन्दन्तः। विदारयन्तः (अरुणीः)अर्तेश्च। उ० ३।६०। ऋ गतौ-उनन् चित्, ङीप्। प्राप्तव्याः क्रियाः (अप व्रन्)वृणोतेर्लुङ्। मन्त्रे घसह्वरणशवृ०। मा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। अपावृण्वन्।प्रकाशितवन्तः ॥

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