अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 30
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - पञ्चपदा जगती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
43
प्राच्यां॑ त्वादि॒शि पु॒रा सं॒वृतः॑ स्व॒धाया॒मा द॑धामि बाहु॒च्युता॑ पृथि॒वी द्यामि॑वो॒परि॑। लो॑क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑ यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ ॥
स्वर सहित पद पाठप्राच्या॑म् । त्वा॒ । दि॒शि॒ । पु॒रा । स॒म्ऽवृत॑: । स्व॒धाया॑म् । आ । द॒धा॒मि॒ । बा॒हु॒ऽच्युता॑ । पृ॒थि॒वी । द्याम्ऽइ॑व । उ॒परि॑ । लो॒क॒ऽकृत॑: । प॒थि॒ऽकृत॑: । य॒जा॒म॒हे॒ । ये । दे॒वाना॑म् । हु॒तऽभा॑गा: । इ॒ह । स्थ ॥३.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
प्राच्यां त्वादिशि पुरा संवृतः स्वधायामा दधामि बाहुच्युता पृथिवी द्यामिवोपरि। लोककृतः पथिकृतो यजामहे ये देवानां हुतभागा इह स्थ ॥
स्वर रहित पद पाठप्राच्याम् । त्वा । दिशि । पुरा । सम्ऽवृत: । स्वधायाम् । आ । दधामि । बाहुऽच्युता । पृथिवी । द्याम्ऽइव । उपरि । लोकऽकृत: । पथिऽकृत: । यजामहे । ये । देवानाम् । हुतऽभागा: । इह । स्थ ॥३.३०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सर्वत्र परमेश्वर के धारण का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमेश्वर !] (प्राच्याम्) पूर्व वा सामनेवाली (दिशि) दिशा में (त्वा) तुझे (स्वधायाम्)आत्मधारण शक्ति के बीच (पुरा) पूर्ति के साथ (संवृतः) घिरा हुआ मैं (आ) सब ओर से (दधामि) मैं [मनुष्य अपने में] धारण करता हूँ, (बाहुच्युता) भुजाओं से उत्साह दीगयी (पृथिवी) पृथिवी (इव) जैसे (द्याम् उपरि) सूर्य पर [सूर्य के आकर्षण, प्रकाशआदि के सहारे पर], [अपने में तुझे धारण करती है]। (लोककृतः) समाजों के करनेवाले, (पथिकृतः) मार्गों के बनानेवाले, [तुम लोगों] को (यजामहे) हम पूजते हैं, (ये) जोतुम (देवानाम्) विद्वानों के बीच (हुतभागाः) भाग लेनेवाले (इह) यहाँ पर (स्थ) हो॥३०॥
भावार्थ
सर्वथा परिपूर्णपरमेश्वर से पूर्व आदि और सामनेवाली आदि दिशाओं में मनुष्य अपने में आत्मशक्तिपाकर पुरुषार्थ करता है, जैसे पृथिवी सूर्य के आकर्षण आदि में रह कर परमेश्वर कीदी हुई आत्मशक्ति से उपकार करती है। सब मनुष्य हितैषी विद्वानों का आश्रय लेकरउस जगदीश्वर की भक्ति करें ॥३०॥
टिप्पणी
३०−(प्राच्याम्) पूर्वस्याम्। अभिमुखीभूतायाम् (दिशि) (पुरा) पॄ पालनपूरणयोः-क्विप्। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा० ७।१।१०२।इत्युत्वम्। पूर्त्या (संवृतः) सम्यग् वेष्टितः (स्वधायाम्) आत्मधारणशक्तौ (आ)समन्तात् (दधामि) धारयामि। अन्यत् पूर्ववत्-म० २५ ॥
विषय
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व
पदार्थ
१. हे प्रभो! (पुरा संवृतः) = इस शरीर से आच्छादित हुआ-हुआ मैं (त्वा) = आपको (प्राच्यां दिशि) = आगे बढ़ने की दिशा के निमित्त तथा (स्वधायाम्) = आत्मतत्त्व के धारण के निमित्त (आदधामि) = इसप्रकार धारण करता हूँ, (इव) = जैसे (बाहुच्युता) = बाहु से दी गई (पृथिवी) = भूमि उपरि ऊपर (द्याम्) = स्वर्ग को [आकाश को] धारण करती है। प्रभु का धारण हमें अग्नगति में स्थापित करता है और आत्मशक्ति को धारण कराता है। इसी उद्देश्य से हम (लोककृतः) = प्रकाश करनेवाले, (पथिकृतः) = हमारे लिए मागों को बनानेवाले उन पितरों का (यजामहे) = आदर व संग करते हैं, (ये) = जो पितर (इह) = यहाँ (देवानां हुतभागा: स्थ) = देवों के हुत का सेवन करनेवाले हैं, अर्थात् यज्ञशील हैं। इन पितरों का सम्पर्क हमें भी उन जैसा बनाएगा। २. इसीप्रकार (दक्षिणायां दिशि) = दक्षिण दिशा के निमित्त हम प्रभु को धारण करते हैं। धारण किये गये प्रभु हमें दाक्षिण्य प्राप्त कराते हैं-कर्मों में कुशलता प्राप्त कराते हैं। यह कर्मकुशलता ऐश्वर्यवृद्धि का कारण बनती है। यह ऐश्वर्य हमें विलास में न ले-जाए, अत: (प्रतीच्यां दिशि) = [प्रति अञ्च] इस पश्चिम व प्रत्याहार की दिशा के निमित्त प्रभु को हदयों में स्थापित करते हैं। हृदयों में प्रभुस्मरण हमें वासनाओं का शिकार न होने देगा। इसप्रकार (उदीच्यां दिशि) = उदीची दिशा के निमित्त मैं प्रभ को धारण करता हूँ। प्रभुस्मरण से मैं ऊपर और ऊपर उठता चलूँगा। यह उत्कर्ष होता ही चले, अत: (ध्रुवायां दिशि) = ध्रुवता की दिशा के निमित्त प्रभु को धारण करूँ और इस ध्रुवता के द्वारा (ऊर्ध्वायां दिशि) = ऊर्ध्व दिशा के निमित्त प्रभु को धारण करता हूँ। हृदयस्थ प्रभु मुझे सर्वोच्च स्थिति में प्राप्त कराएंगे। ३.अथवा इन सब दिशाओं में प्रभु की महिमा व सत्ता का अनुभव करते हुए उपासक कह उठता है-आगे-पीछे सब ओर से मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप अनन्तवीर्य व अमित विक्रम हैं। सबमें समाये हुए है-आप सर्व है। वस्तुत: ऐसा अनुभव करनेवाला व्यक्ति ही प्राणतत्व का धारण करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- इस शरीर को प्रात करके इसे स्वस्थ रखते हुए हम 'अग्रगति, दाक्षिण्य, विषयव्यावृत्ति, उन्नति, स्थिरता व चरमोत्कर्ष' को प्रास करते हुए आत्मतत्त्व के धारण के निमित्त प्रभु का स्मरण करें। सब दिशाओं में प्रभु की महिमा को देखते हुए ही हम 'स्व-धा' में स्थापित होंगे। इसी उद्देश्य से उत्तम पितरों के सम्पर्क में विनीतता से ज्ञान को बढ़ाने के लिए यत्नशील हों।
भाषार्थ
(प्राच्यां दिशि) हे पूर्वदिशा में रहने वाले ! (पुरा संवृतः) तेरी जीवनलीला के संवरण होने से पूर्व, मैं (त्वा) तुझे (स्वधायाम्) आत्मधारण योग्य अन्न में (आ दधामि) पूर्णतया स्थापित करता हूं। (इव) जैसे (उपरि) ऊपर के (द्याम्) द्युतिमान् सूर्य की ओर प्रयाण करती हुई पृथिवी आत्मधारण करती है। 'लोककृतः' –आदि पूर्ववत् (२५)।
टिप्पणी
[संवृतः = संवरण का अभिप्राय है—जीवन की समाप्ति। जीवन की समाप्ति से पूर्व ही व्यक्ति को भोगमय जीवन छोड़ कर त्यागमय जीवन व्यतीत करना चाहिये। त्यागमय जीवन के लिये सदा स्वधान्न का सेवन करना चाहिये। स्वधान्न सात्त्विक होता है। यह स्वधान्न "स्व" अर्थात् आपने आप को "धा" धारण मात्र के लिये होना चाहिये, भोग भोगने के लिये नहीं। स्वधा=अन्ननाम (निघं० २।७)। "स्वधा" को पितृ-अन्न कहा है, जो कि पितरों अर्थात् वृद्धों के लिये उपयुक्त होता है। गृहस्थी भोगयोग्य अन्न सेवन करे। परन्तु अध्यात्मोन्नति चाहने वाला स्वधान्न सेवन करे। स्वधान्न सात्विक अन्न है। सात्विक अन्न के सेवन से शरीर मन और बुद्धि सात्विक बन जाते हैं।]
विषय
स्त्री-पुरुषों के धर्म।
भावार्थ
हे पुरुषो ! (प्राच्यां दिशि) प्राची दिशा में (पुरा) पालना करने वाली पुरी या नगरी के चारों ओर लगी परिखा द्वारा (संवृतः) भली प्रकार आवृत, सुरक्षित होकर मैं राजा (त्वा) तुझ को (स्वधायाम्) स्वयं धारण करने योग्य, अन्न आदि के वेतन या पृथिवी आदि पुरस्कार पर (आदधामि) स्थापित करता हूँ। (बाहुच्युता इत्यादि) पूर्ववत्। अथवा मैं राजा (त्वा पुरा संवृतः*) तुझ को ‘पुर्’ नागरी से संवरण या गुप्त करके (स्वधायाम् आ दधामि) तुझे तेरे पद पर स्थापित करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः मन्त्रोक्ताश्च बहवो देवताः। ५,६ आग्नेयौ। ५० भूमिः। ५४ इन्दुः । ५६ आपः। ४, ८, ११, २३ सतः पंक्तयः। ५ त्रिपदा निचृद गायत्री। ६,५६,६८,७०,७२ अनुष्टुभः। १८, २५, २९, ४४, ४६ जगत्यः। (१८ भुरिक्, २९ विराड्)। ३० पञ्चपदा अतिजगती। ३१ विराट् शक्वरी। ३२–३५, ४७, ४९, ५२ भुरिजः। ३६ एकावसाना आसुरी अनुष्टुप्। ३७ एकावसाना आसुरी गायत्री। ३९ परात्रिष्टुप् पंक्तिः। ५० प्रस्तारपंक्तिः। ५४ पुरोऽनुष्टुप्। ५८ विराट्। ६० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ६४ भुरिक् पथ्याः पंक्त्यार्षी। ६७ पथ्या बृहती। ६९,७१ उपरिष्टाद् बृहती, शेषास्त्रिष्टुमः। त्रिसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
In the eastern direction, in cosmic stability, I hold you, as ever before held in protected existence in your own identity in constant motion like the earth and heaven above ever moved in harmony by complementary natural forces of the cosmic cycle. O divine performers of yajna for the divinities, benefactors, of the world and path makers of humanity, we invoke and adore you who stay with us here and partake of our holy offerings.
Translation
In the eastern quarter, away from approach, do I set thee in Svadha; arm-moved etc. etc
Translation
I, covered with body or given accommodation by a city. establish you O man! in plenty of grain etc. in eastern region………Devas.
Translation
O God, I, full of resources, establish Thee in my soul-force in the eastern region, just as the Earth, controlled by the force of arms, establishes the king who rules over it! We worship those who are the benefactors of the world, show us the path of rectitude, and who amongst the learned share the gifts we offer.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३०−(प्राच्याम्) पूर्वस्याम्। अभिमुखीभूतायाम् (दिशि) (पुरा) पॄ पालनपूरणयोः-क्विप्। उदोष्ठ्यपूर्वस्य। पा० ७।१।१०२।इत्युत्वम्। पूर्त्या (संवृतः) सम्यग् वेष्टितः (स्वधायाम्) आत्मधारणशक्तौ (आ)समन्तात् (दधामि) धारयामि। अन्यत् पूर्ववत्-म० २५ ॥
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