अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 73
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
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ए॒तदा रो॑ह॒ वय॑उन्मृजा॒नः स्वा इ॒ह बृ॒हदु॑ दीदयन्ते। अ॒भि प्रेहि॑ मध्य॒तो माप॑ हास्थाःपितॄ॒णां लो॒कं प्र॑थ॒मो यो अत्र॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तत् । आ । रो॒ह॒ । वय॑: । उ॒त्ऽमृ॒जा॒न: । स्वा: । इ॒ह । बृ॒हत् । ऊं॒ इति॑ । दी॒द॒य॒न्ते॒ । अ॒भि । प्र । इ॒हि॒ । म॒ध्य॒त: । मा ।अप॑ । हा॒स्था॒: । पि॒तॄणाम् । लो॒कम् । प्र॒थ॒म:। य: । अत्र॑ ॥३.७३॥
स्वर रहित मन्त्र
एतदा रोह वयउन्मृजानः स्वा इह बृहदु दीदयन्ते। अभि प्रेहि मध्यतो माप हास्थाःपितॄणां लोकं प्रथमो यो अत्र ॥
स्वर रहित पद पाठएतत् । आ । रोह । वय: । उत्ऽमृजान: । स्वा: । इह । बृहत् । ऊं इति । दीदयन्ते । अभि । प्र । इहि । मध्यत: । मा ।अप । हास्था: । पितॄणाम् । लोकम् । प्रथम:। य: । अत्र ॥३.७३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहाश्रम में मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (एतत्)इस (वयः) जीवन को (उन्मृजानः) शुद्ध करता हुआ तू (आ रोह) ऊँचा चढ़, (ते) तेरे (स्वाः) बान्धव लोग (इह) यहाँ पर (बृहत्) बहुत (हि) ही (दीदयन्ते) प्रकाशमानहैं। तू (अभि) सब ओर (प्र) आगे को (इहि) चल, (मध्यतः) बीच से (पितॄणाम्) पितरोंके (लोकम्) उस समाज को (अप) बिलगा कर (मा हास्थाः) मत जा, (यः) जो [समाज] (अत्र)यहाँ पर (प्रथमः) मुख्य है ॥७३॥
भावार्थ
मनुष्य अपने यशस्वीबान्धवों के समान अपना जीवन उत्तम बनावें, और सब श्रेष्ठ कामों को दृढ़ता सेआरम्भ कर के सर्वथा समाप्त कर महापुरुषार्थियों में स्थान पावें ॥७३॥ इतितृतीयोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
७३−(एतत्) दृश्यमानम् (आ रोह) आरुह्य प्राप्नुहि (वयः) जीवनम् (उन्मृजानः) परिशोधयन् (स्वाः) ज्ञातयः (इह) अस्मिंल्लोके (बृहत्) यथा भवति तथा।अधिकम् (दीदयन्ते) दीदयतिर्ज्वलतिकर्मा निघ० १।१६। दीदयतिर्नैरुक्तो धातुः-पश्यतनिरु० १०।१९। दीप्यन्ते (अभि) सर्वतः (प्र) प्रकर्षेण अग्रे (इहि) गच्छ (मध्यतः)मध्यभागात् (अप) अपेत्य वियुज्य (मा हास्थाः) ओहाङ् गतौ-लुङ्। मा गच्छ (पितॄणाम्) पालकानाम्। (लोकम्) समाजम् (प्रथमः) मुख्यः (यः) लोकः (अत्र) अस्मिन्संसारे ॥
विषय
ज्ञाननदी में जीवन का शोधन व उत्थान
पदार्थ
१.हे जीव । गतमन्त्र के अनुसार पितरों से प्रवाहित होनेवाली ज्ञाननदी [सरस्वती] में (एतत् वयः) = अपने इस जीवन को (उन्मृजान:) = शुद्ध करता हुआ आरोह-उन्नति की दिशा में आरोहण कर-ऊपर उठ। तेरे (स्वा:) = अपने पितर [बन्धु-बान्धव] (इह) = यहाँ (उ) = निश्चय से (बृहदु) = खूब ही (दीदयन्ते) = ज्ञान से दीत हो रहे हैं। २. तू भी समय आने पर मध्यत: इस गृहस्थ जीवन के मध्य से (अभिप्रेहि) = वानप्रस्थ की ओर चल। (पितृणां लोकं मा अपहास्था:) = पितरों के लोक को दूर से मत छोड़। तू भी पितरों के लोक में आनेवाला बन। (य:) = जो पितृलोक (अत्र) = यहाँ जीवन में (प्रथमः) = सर्वप्रथम लोक है-मुख्य है, अथवा विस्तारवाला है [प्रथ विस्तारे]। इसमें गृहस्थ के संकुचित क्षेत्र से ऊपर उठकर एक व्यक्ति विशाल अन्तरिक्ष में प्रवेश करता है।
भावार्थ
पितरों से प्रवाहित होनेवाले ज्ञाननदी में अपने जीवन को शुद्ध करते हुए हम भी ऊपर उठें। वह भी समय आये जब हम भी गृहस्थ से ऊपर उठकर वनस्थ हों। इस पितृलोक को हम उपेक्षित न करें। यह लोक हमें विशाल अन्तरिक्ष में ले-जाता है।
भाषार्थ
(एतद) इस गृह पर (आरोह) तू आरोहण कर, (वयः) अपनी वायु को (उत् मृजानः) उन्नत और शुद्ध-पवित्र कर, (स्वाः) तेरे अपने सम्बन्धी (इह) इस गृहस्थाश्रम में (बृहत् उ) निश्चय से अपने सद्गुणों के कारण बहुत (दीदयन्ते) चमकते रहे हैं। (अभि प्रेहि) हे ब्रह्मचारी ! तू गृहस्थाश्रम की ओर आ, (मध्यतः) गृहस्थाश्रम को बीच में ही (मा अप हास्थाः) मत छोड़ जाना। गृहस्थाश्रम (पितृणां लोकम्) माता-पिता बनने का स्थान है। (यः) जो गृहस्थाश्रम कि (अत्र) इस जीवन काल में (प्रथमः) सर्वश्रेष्ठ आश्रम है।
टिप्पणी
["अत्र" का अर्थ ह्विटनी ने किया है "There; " करना चाहिये- "Here.” “There" अर्थ इस लिये किया हैं कि मन्त्र परलोक-वर्णन सम्बन्धी हो सके। आरोह = वैदिकशाला का निर्माण ऊंचे स्तम्भों पर करने का विधान है। इसीलिये वैदिकशाला को "हस्तिनीव पद्वती" द्वारा उपमित किया है (अथर्व० ९।३।१७)। वयः = सायण ने इस पद का अर्थ "अन्तरिक्ष" किया है, जो कि वैदिक प्रथा के विरुद्ध है। प्रथमः = यस्मात् त्रयोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम्। गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज् ज्येष्ठाश्रमो गृही॥ (मनु० ३।७८)।]
विषय
स्त्री-पुरुषों के धर्म।
भावार्थ
हे पुरुष ! (उन्मृजानः) तू ऊर्ध्व गति करता हुआ, (एतत् वयः) इस आयु का (आ रोह) प्राप्त कर। (इह) इस लोक में (स्वाः) तेरे अपने बन्धुजन (बृहत्) बहुत अच्छी प्रकार (दीदयन्ते) प्रकाशित हो रहे हैं । तू उनके (मध्यतः) बीच में से (अभि प्रेहि) उनके सामने ही प्रयाण कर। (पितॄणां लोकं) पालक पिता पितामह आदि के उस लोकको (मा अप हास्थाः) परित्याग मत कर (यः) जो (अत्र) इस लोक में (प्रथमः) सबसे प्रथम, सर्व श्रेष्ठ है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमः मन्त्रोक्ताश्च बहवो देवताः। ५,६ आग्नेयौ। ५० भूमिः। ५४ इन्दुः । ५६ आपः। ४, ८, ११, २३ सतः पंक्तयः। ५ त्रिपदा निचृद गायत्री। ६,५६,६८,७०,७२ अनुष्टुभः। १८, २५, २९, ४४, ४६ जगत्यः। (१८ भुरिक्, २९ विराड्)। ३० पञ्चपदा अतिजगती। ३१ विराट् शक्वरी। ३२–३५, ४७, ४९, ५२ भुरिजः। ३६ एकावसाना आसुरी अनुष्टुप्। ३७ एकावसाना आसुरी गायत्री। ३९ परात्रिष्टुप् पंक्तिः। ५० प्रस्तारपंक्तिः। ५४ पुरोऽनुष्टुप्। ५८ विराट्। ६० त्र्यवसाना षट्पदा जगती। ६४ भुरिक् पथ्याः पंक्त्यार्षी। ६७ पथ्या बृहती। ६९,७१ उपरिष्टाद् बृहती, शेषास्त्रिष्टुमः। त्रिसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
O man, mount and rise high on this life’s ladder, cleansing and raising yourself in knowledge, morals and yajnic action. Your own qualities of character and your own people here highly shine. Go forward and rise in their midst. Do not forsake the world of your parents and seniors which is of the first importance and value to you here.
Translation
Ascend thou this, gaining vigor; thine own (People) shine here greatly; go forth, unto (them) - be not left behind midway - unto the world of the Fathers that is first there.
Translation
O man, you purifying your life ascend to glory, your kindered men are here shining well (in prosperity etc.) You proceed on-word (on the path of progress from their mid). You do not leave the company of experienced elders. This is the first and main institution in this world.
Translation
O man, go forward, purifying thy life, here thy kindred shine with lofty splendor. Live in their midst. Forsake not this world of thy fathers, which is highly excellent.
Footnote
Forsake not: Don't die early. Enjoy a long life.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७३−(एतत्) दृश्यमानम् (आ रोह) आरुह्य प्राप्नुहि (वयः) जीवनम् (उन्मृजानः) परिशोधयन् (स्वाः) ज्ञातयः (इह) अस्मिंल्लोके (बृहत्) यथा भवति तथा।अधिकम् (दीदयन्ते) दीदयतिर्ज्वलतिकर्मा निघ० १।१६। दीदयतिर्नैरुक्तो धातुः-पश्यतनिरु० १०।१९। दीप्यन्ते (अभि) सर्वतः (प्र) प्रकर्षेण अग्रे (इहि) गच्छ (मध्यतः)मध्यभागात् (अप) अपेत्य वियुज्य (मा हास्थाः) ओहाङ् गतौ-लुङ्। मा गच्छ (पितॄणाम्) पालकानाम्। (लोकम्) समाजम् (प्रथमः) मुख्यः (यः) लोकः (अत्र) अस्मिन्संसारे ॥
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