ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 11
तद्वां॑ नरा॒ शंस्यं॒ राध्यं॑ चाभिष्टि॒मन्ना॑सत्या॒ वरू॑थम्। यद्वि॒द्वांसा॑ नि॒धिमि॒वाप॑गूळ्ह॒मुद्द॑र्श॒तादू॒पथु॒र्वन्द॑नाय ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । वा॒म् । न॒रा॒ । शंस्य॑म् । राध्य॑म् । च॒ । अ॒भि॒ष्टि॒ऽमत् । ना॒स॒त्या॒ । वरू॑थम् । यत् । वि॒द्वांसा॑ । नि॒धिम्ऽइ॑व । अप॑ऽगूळ्हम् । उत् । द॒र्श॒तात् । ऊ॒पथुः॑ । वन्द॑नाय ॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्वां नरा शंस्यं राध्यं चाभिष्टिमन्नासत्या वरूथम्। यद्विद्वांसा निधिमिवापगूळ्हमुद्दर्शतादूपथुर्वन्दनाय ॥
स्वर रहित पद पाठतत्। वाम्। नरा। शंस्यम्। राध्यम्। च। अभिष्टिऽमत्। नासत्या। वरूथम्। यत्। विद्वांसा। निधिम्ऽइव। अपऽगूळ्हम्। उत्। दर्शतात्। ऊपथुः। वन्दनाय ॥ १.११६.११
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 11
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे नरा नासत्या विद्वांसा धर्मराजसभास्वामिनौ वां युवयोर्यच्छंस्यं राध्यं चाभिष्टिमद्वरूथमपगूढं पूर्वोक्तं गृहाश्रमसंबन्धि कर्मास्ति तन्निधिमिव दर्शताद्वन्दनायोदूपथुरूर्ध्वं सततं वपेथाम् ॥ ११ ॥
पदार्थः
(तत्) (वाम्) युवयोः (नरा) धर्मनेतारौ (शंस्यम्) स्तुत्यं संसिद्धिकरम् (राध्यम्) राद्धुं संसाद्धुं योग्यम् (च) धर्मादिफलम् (अभिष्टिमत्) अभीष्टानि प्रशस्तानि सुखानि विद्यन्ते यस्मिंस्तत् (नासत्या) सर्वदा सत्यपालकौ (वरूथम्) वरणीयमुत्तमम् (यत्) (विद्वांसा) सकलविद्यावेत्तारौ (निधिमिव) (अपगूढम्) अपगतं संवरणमाच्छादनं यस्मात्तत् (उत्) (दर्शतात्) सुन्दराद्रूपात् (ऊपथुः) वपेथाम् (वन्दनाय) अभितः सत्कारार्हायापत्याय प्रशंसायै च ॥ ११ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या विद्याकोशात्परं सुखप्रदं धनं किमपि यूयं मा जानीत न खल्वेतेन कर्मणा विनाऽभीष्टान्यपत्यानि सुखानि च प्राप्तुं शक्यानि नैव समीक्षया विना विद्या वृद्धिर्जायत इत्यवगच्छत ॥ ११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (नरा) धर्म की प्राप्ति (नासत्या) और सदा सत्य की पालना करने और (विद्वांसा) समस्त विद्या जाननेवाले धर्मराज, सभापति विद्वानो ! (वाम्) तुम दोनों का (यत्) जो (शंस्यम्) प्रशंसनीय (च) और (राध्यम्) सिद्ध करने योग्य (अभिष्टिमत्) जिसमें चाहे हुए प्रशंसित सुख हैं (वरूथम्) जो स्वीकार करने योग्य (अपगूढम्) जिसमें गुप्तपन अलग हो गया ऐसा जो प्रथम कहा हुआ गृहाश्रमसंबन्धि कर्म है, (तत्) उसको (निधिमिव) धन के कोष के समान (दर्शतात्) दिखनौट रूप से (वन्दनाय) सब ओर से सत्कार करने योग्य संतान और प्रशंसा के लिये (उत्, ऊपथुः) उच्च श्रेणी को पहुँचाओ अर्थात् उन्नति देओ ॥ ११ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! विद्यानिधि के परे सुख देनेवाला धन कोई भी तुम मत जानो। न इस कर्म के विना चाहे हुए संतान और सुख मिल सकते हैं और न सत्यासत्य के विचार से निर्णीत ज्ञान के विना विद्या की वृद्धि होती है, यह जानो ॥ ११ ॥
विषय
अपगूढ़ निधि का दर्शन
पदार्थ
१. हे (नराः) = उत्कर्ष व आरोग्य के मार्ग पर ले - चलनेवाले (नासत्या) = जिनसे असत्य का नाश हो जाता है वे प्राणापानो ! (वाम्) = आपका (तत्) = वह कार्य (शंस्यम्) = प्रशंसा के योग्य (राध्यम्) = आराधना के योग्य (च) = और (अभिष्टिमत्) = प्रार्थनावाला , (वरूथम्) = वरणीय - चाहने योग्य हुआ है (यत्) = कि (विद्वांसा) = ज्ञानयुक्त आपने (वन्दनाय) = स्तवन करनेवाले के लिए (दर्शतात्) = इस दर्शनीय शरीरकूप से (अपगूढं निधिम् इव) = छिपाकर रखे हुए एक कोश के समान उस आत्मा को (उदूपथुः) = [उदहार्ष्टम्] ऊपर प्रकट कर दिया । आत्मा का हृदय में निवास है । हृदयस्थित प्रभु कूप में छिपाकर रखे गये कोश के समान हैं । यहाँ शरीर ही कुँआ है । इसमें हृदयदेश में प्रभु गुप्तरूप से निवास कर रहे हैं । प्राणसाधना करनेवाला वन्दन तीव्र बुद्धि बनकर इस आत्मतत्त्व का दर्शन करता है । प्राणापान इस प्रभु को वन्दन के लिए प्रकट कर देते हैं । प्राणापान का यह कार्य सर्वमहत्त्वपूर्ण कार्य है । इससे अधिक प्रशंसनीय व वरणीय और कार्य हो ही क्या सकता है ? ३. यह शरीर - कूप ‘दर्शत’ है - देखने योग्य है । इसके अङ्ग - प्रत्यङ्ग की रचना अत्यन्त सुन्दर व रचयिता की महिमा को प्रकट करनेवाली है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से हमें यहीं इस दर्शनीय रचनावाले शरीर में प्रभु का दर्शन होता है । प्राणसाधना का सर्वमहान् लाभ यही है ।
विषय
missing
भावार्थ
हे ( नरा ) विद्वान् स्त्री पुरुषो ! गृहस्थ के नायक नायिकाओ ! तुम दोनों ( नासत्या ) परस्पर कभी असत्याचरण न करते हुए ( दर्शतात् ) दर्शनीय सुन्दर स्त्री रूप से ( वन्दनाय ) स्तुति योग्य पुत्र लाभ करने लिये ( यत् अपगूढम् निधिम् इव ) खूब गहरे छिपे जिस ख़ज़ाने को ( उत् ऊपथुः ) वपन कर प्राप्त करते हो ( तत् ) वह ( वां ) तुम दोनों का (शंस्यं) प्रशंसा करने योग्य, ( अभिष्टिमत् ) उत्तम एषणा से युक्त ( वरूथम् ) दुःखों से बचाने वाला और वरणीय, श्रेष्ठ, ( राध्यम् ) प्राप्त करने योग्य धन के समान हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! विद्याविधीपेक्षा सुख देणारे दुसरे कोणतेही धन नाही हे जाणा. या कर्माशिवाय इच्छित संतान व सुख मिळू शकत नाही व सत्यासत्य विचार निर्णित ज्ञानाशिवाय विद्येची वृद्धी होऊ शकत नाही हे जाणा. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, leading lights of humanity dedicated to truth and reality, the protective and promotive work you do is appreciable, adorable and blissfully desirable. Leaders of knowledge and secrets of nature, it is so far hidden from view like an underground treasure. Let it come forth so that all may see and admire and do you the honour you deserve.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O leaders of Dharma (righteousness) O absolutely truthful presidents of the Dharma Sabha (Religious Assembly) and Raja Sabha (Council of Ministers) glorious and admirable is your work which is the bringer of welfare and good happiness that you being highly learned, manifest or reveal in charming form like the treasure, knowledge pertaining to the obvious duties of household life etc. for your respectable progeny and for acquiring praise from all quarters.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वन्दनाय) अभितः सत्कारार्हयि अपत्याय प्रशंसायै च = For respectable progeny and praise from all sides. (राध्यम्) राध्दुं संसाध्दुं योग्यम् = Worthy to be accomplished. (अपगूळम्) अवगतं संवरणम् - आच्छादनं यस्मात् तत् = Without veil- clear, obvious or evident.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O man, you should not regard any treasure giver of greater happiness like the treasure of knowledge. Without this, it is not possible to get desirable progeny and happiness. You should also know that there is no development or advancement of knowledge without genuine or Bonafede criticism.
Translator's Notes
It is wrong on the part of Shri Sayanacharya, Prof. Wilson and others to take Vandana as the name of a particular Rishi while as it is derived from वदि-अभिवादनस्तुत्यो: and means-admirable and respectable.
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