Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 116 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 17
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    आ वां॒ रथं॑ दुहि॒ता सूर्य॑स्य॒ कार्ष्मे॑वातिष्ठ॒दर्व॑ता॒ जय॑न्ती। विश्वे॑ दे॒वा अन्व॑मन्यन्त हृ॒द्भिः समु॑ श्रि॒या ना॑सत्या सचेथे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒म् । रथ॑म् । दु॒हि॒ता । सूर्य॑स्य । कार्ष्म॑ऽइव । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । अर्व॑ता । जय॑न्ती । विश्वे॑ । दे॒वाः । अनु॑ । अ॒म॒न्य॒न्त॒ । हृ॒त्ऽभिः । सम् । ऊँ॒ इति॑ । श्रि॒या । ना॒स॒त्या॒ । स॒चे॒थे॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वां रथं दुहिता सूर्यस्य कार्ष्मेवातिष्ठदर्वता जयन्ती। विश्वे देवा अन्वमन्यन्त हृद्भिः समु श्रिया नासत्या सचेथे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वाम्। रथम्। दुहिता। सूर्यस्य। कार्ष्मऽइव। अतिष्ठत्। अर्वता। जयन्ती। विश्वे। देवाः। अनु। अमन्यन्त। हृत्ऽभिः। सम्। ऊँ इति। श्रिया। नासत्या। सचेथे इति ॥ १.११६.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 17
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे नासत्या सभासेनेशौ सूर्य्यस्य दुहितेव कार्ष्मेव वां युवयोर्जयन्ती सेनार्वता युक्तं रथमातिष्ठत् समन्तात्तिष्ठतु। यं विश्वे देवा हृद्भिरन्वमन्यन्त तामु श्रिया युक्तां सेनां युवां सं सचेथे ॥ १७ ॥

    पदार्थः

    (आ) (वाम्) युवयोः सभासेनेशयोः (रथम्) विमानादियानम् (दुहिता) दूरे हिता कन्येव कान्तिरुषाः (सूर्य्यस्य) (कार्ष्मेव) यथा काष्ठादिकं द्रव्यम् (अतिष्ठत्) तिष्ठतु (अर्वता) अश्वेन युक्तम् (जयन्ती) उत्कर्षतां प्राप्नुवती सेना (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (अनु) पश्चात् (अमन्यन्त) मन्यन्ताम् (हृद्भिः) चित्तैः (सम्) (उ) (श्रिया) शुभलक्षणया लक्ष्म्या (नासत्या) सद्विज्ञानप्रकाशकौ (सचेथे) सङ्गच्छेथाम् ॥ १७ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या अखिलविद्वत्प्रशंसितां शस्त्रास्त्रवाहनसंभारादिसहितां श्रीमतीं सेनां संसाध्य सूर्य्य इव धर्मन्यायं यूयं प्रकाशयत ॥ १७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (नासत्या) अच्छे विज्ञान का प्रकाश करनेवाले सभा सेनापति जनो ! (सूर्य्यस्य) सूर्य्य की (दुहिता) जो दूरदेश में हित करनेवाली कन्या जैसी कान्ति प्रातःसमय की वेला और (कार्ष्मेव) काठ आदि पदार्थों के समान (वाम्) तुम लोगों की (जयन्ती) शत्रुओं को जीतनेवाली सेना (अर्वता) घोड़े से जुड़े हुए (रथम्) रथ को (आ, अतिष्ठत्) स्थित हो अर्थात् रथ पर स्थित होवे वा जिसको (विश्वे) समस्त (देवाः) विद्वान् जन (हृद्भिः) अपने चित्तों से (अनु, अमन्यन्त) अनुमान करें उसको (उ) तौ (श्रिया) शुभ लक्षणोंवाली लक्ष्मी अर्थात् अच्छे धन से युक्त सेना को तुम लोग (सं, सचेथे) अच्छे प्रकार इकट्ठा करो ॥ १७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! समस्त विद्वानों ने प्रशंसा की हुई शस्त्र, अस्त्र, वाहन तथा और सामग्री आदि सहित धनवती सेना को सिद्ध कर जैसे सूर्य्य अपना प्रकाश करे, वैसे तुम लोग धर्म और न्याय का प्रकाश कराओ ॥ १७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सूर्य - दुहिता का रथारोहण

    पदार्थ

    १. हे अश्विनीदेवो ! (वाम्) = आप दोनों के (रथम्) = रथ पर (सूर्यस्य दुहिता) = सूर्य की दुहिता ‘उषा’ (आ अतिष्ठत्) = आरूढ़ होती है । वह सूर्य की दुहिता जो (अर्वता) = शत्रुओं के हिंसन के द्वारा (जयन्ती) = विजय को प्राप्त करती हुई है । उषा प्रातः काल के उस प्रकाश का प्रतीक है जिसमें किसी प्रकार का सन्ताप नहीं है । जिस समय हम प्राणसाधना में चलते हैं , उस समय हमारा यह शरीर - रथ अश्विनीदेवों का रथ कहलाता है - प्राणापान का तो वस्तुतः यह रथ है ही । प्राणसाधना से बुद्धि की निर्मलता के कारण यहाँ ज्ञान की उषा का प्रादुर्भाव होता है । इस उषा का प्रादुर्भाव होने पर वासनारूप अन्धकार का विलय हो जाता है । २. यह उषा रथ पर इस प्रकार आरूढ़ होती है (इव) = जैसे कि कोई भी योद्धा (कार्ष्म) = लक्ष्यस्थान पर पहुँचता है । इस ज्ञान की उषा के शरीर - रथ पर आरूढ़ होने पर हम लक्ष्यस्थान पर क्यों न पहुँचेंगे ? इसीलिए (विश्वेदेवाः) = सब देव ‘उषा के शरीर - रथ पर आरोहण’ का (हृद्भिः) = हृदय से (अन्वमन्यन्त) = [अनुमन् - to honour] आदर करते हैं । उनकी यह प्रबल कामना होती है कि हमारे जीवन में इस उषा का अवश्य उदय हो । इस प्रकार हे (नासत्या) = प्राणापानो ! आप (उ) = निश्चय से (श्रिया) = श्री से (संसचेथे) = सम्यक् मेलवाले होते हो , ज्ञान की शोभावाले होते हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से ज्ञान की उषा का प्रादुर्भाव होता है । इससे यह सारा शरीर श्री सम्पन्न हो जाता है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    missing

    भावार्थ

    ( दुहिता अर्वता कार्ष्म इव ) कन्या जिस प्रकार विवाह काल में विद्वान् पुरुष के साथ काठ के पीढ़े या रथ पर बैठती है ठीक उसी प्रकार (सूर्यस्य दुहिता) सूर्य की पुत्री के समान उषा (अर्वता) गतिशील सूर्य के प्रकाश के साथ (जयन्ती) अन्धकार पर विजय पाती हुई (वां रथं अतिष्ठत्) हे दिन रात्रि ! तुम्हारे उत्तम रमणीय रूप पर विराजती है। इसी प्रकार, हे ( नासत्या ) मुख्य स्थान पर विराजने वाले दो प्रमुख पुरुषो ! सर्वाज्ञापक राजा के समस्त मनोरथों और बल को पूर्ण करने वाली ( जयन्ती ) विजयशील सेना (अर्वता ) अश्व के सैन्य से युक्त होकर भी ( वां ) तुम दोनों के ( रथं ) रथ नामक सैन्य पर ( अतिष्ठत् ) आश्रित रहती है । ( विश्वे देवाः ) सभी विद्वान् और विजयेच्छु योद्धा जन (हृद्भिः) हृदयों से ( अनु अमन्यन्त ) आप दोनों को अनुमति दें। आप दोनों ( श्रिया ) शोभा या लक्ष्मी से ( सचेथे ) युक्त होकर रहो । (२) गृहस्थ पक्ष में—( सूर्यस्य दुहिता उषा इव दुहिता जयन्ती कार्ष्म इव अर्वता रथम् अतिष्ठत् ) सूर्य की उषा के समान उत्तम तेजस्विनी बाप की बेटी, काठ के पीढ़े के समान उच्च घोड़े से जुते रथ पर विराजे । अथवा (अर्वता) विद्वान् पुरुष से युक्त गृहस्थ रूप रथ पर विराजे, हे (नासत्या) परस्पर असत्य आचरण न करने वाले वर वधू ! ( वां विश्वे देवा अनुमन्यन्त ) तुम दोनों को समस्त पुरुष अनुमति दें । तुम दोनों ( श्रिया संसचेथे ) लक्ष्मी विद्वान् शोभा से युक्त होकर रहो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! संपूर्ण विद्वानांनी प्रशंसा केलेली शस्त्र, अस्त्र, वाहन व इतर साधने इत्यादींनी समृद्ध सेना तयार करून सूर्य जसा आपला प्रकाश करतो तसे तुम्ही धर्म व न्यायाचा प्रकाश करा. ॥ १७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, lovers and defenders of truth in the battle of life and health of the world, let the dawn, daughter of the sun, arise and ride your chariot drawn by horses of light and win the battle. Let all the divinities of the world heartily applaud the beauty and power, and may you shine with the beauty and glory of the rise and may you win the victory.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the assembly and commander of the Army who are illuminators of true knowledge, May your conquering army which is like the daughter of the Sun i. e. Dawn and useful like wooden articles, ascend your cars which are followed by horsemen. When you are associated with this glorious army, all enlightened persons heartily applaud and support you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सूर्यस्य दुहिता) सूर्यस्य दूरेहिता कन्या इव कान्तिः उषा: = The Dawn who is like the Daughter of the Sun. (कार्ष्मेव) यथा काष्ठादिकं द्रव्यम् = Like the wooden articles.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O Officers of the State, you should manifest the justice of Dharma (righteousness) like the sun by organizing an army which is praised by all learned persons and which is equipped with all powerful arms and requisite materials.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top