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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 116 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 13
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अजो॑हवीन्नासत्या क॒रा वां॑ म॒हे याम॑न्पुरुभुजा॒ पुर॑न्धिः। श्रु॒तं तच्छासु॑रिव वध्रिम॒त्या हिर॑ण्यहस्तमश्विनावदत्तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अजो॑हवीत् । ना॒स॒त्या॒ । क॒रा । वा॒म् । म॒हे । याम॑न् । पु॒रु॒ऽभु॒जा॒ । पुर॑म्ऽधिः । श्रु॒तम् । तत् । शासुः॑ऽइव । व॒ध्र॒िऽम॒त्याः । हिर॑ण्यऽहस्तम् । अ॒श्वि॒नौ॒ । अ॒द॒त्त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजोहवीन्नासत्या करा वां महे यामन्पुरुभुजा पुरन्धिः। श्रुतं तच्छासुरिव वध्रिमत्या हिरण्यहस्तमश्विनावदत्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अजोहवीत्। नासत्या। करा। वाम्। महे। यामन्। पुरुऽभुजा। पुरम्ऽधिः। श्रुतम्। तत्। शासुःऽइव। वध्रिऽमत्या। हिरण्यऽहस्तम्। अश्विनौ। अदत्तम् ॥ १.११६.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 13
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे नासत्या पुरुऽभुजाऽश्विनावध्यापकौ यः पुरन्धिर्विद्वान् वध्रिमत्याः करा महे यामन्नजोहवीद्वां युवयोर्यच्छ्रुतं तच्छासुरिवाजोहवीत् तौ युवां सर्वेभ्यो विद्यां जिज्ञासुभ्यो यद्धिरण्यहस्तं श्रुतं तददत्तं सततं दद्यातम् ॥ १३ ॥

    पदार्थः

    (अजोहवीत्) भृशं गृह्णीयात् (नासत्या) असत्याज्ञानविनाशनेन सत्यप्रकाशिनौ (वरा) कुर्वाणौ (वाम्) युवयोः (महे) महते (यामन्) याम्ने सुखप्राप्तये। अत्र या धातोरौणादिको मनिन्। (पुरुभुजा) पुरून् बहूनानन्दान् भुङ्क्तस्तौ (पुरन्धिः) बहुविद्यायुक्तः (श्रुतम्) पठितम् (तत्) (शासुरिव) यथा पूर्णविद्यस्याध्यापकस्य सकाशाच्छिष्याः (वध्रिमत्याः) वध्रयः प्रशस्ता वृद्धयो विद्यन्ते यस्यास्तस्याः सत्स्त्रियः। अत्र वृधु धातोरौणादिको रिक् प्रत्ययो बाहुलकात् रेफलोपः। (हिरण्यहस्तम्) हिरण्यं हस्ते यस्मात् तम् (अश्विनौ) शुभगुणविद्याव्यापिनौ (अदत्तम्) दद्यातम् ॥ १३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो यथा विद्वान् विदुष्याः पाणिं गृहीत्वा गृहाश्रमव्यवहारं साधयति तथा बुद्धिमतो विद्यार्थिनः संगृह्य पूर्णं विद्याप्रचारं कुरुत यथा चाध्यापकादध्येतारो विद्याः संगृह्यानन्दिता भवन्ति तथा विद्वांसौ स्त्रीपुरुषौ स्वकीयपरकीयापत्येभ्यः सुशिक्षया विद्यां दत्वा सदा प्रमोदेताम् ॥ १३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (नासत्या) असत्य अज्ञान के विनाश से सत्य का प्रकाश करने (पुरुभुजा) बहुत आनन्दों के भोगने तथा (अश्विनौ) शुभ गुण और विद्या में व्याप्त होनेवाले अध्यापको ! जो (पुरन्धिः) बहुत विद्यायुक्त विद्वान् (वध्रिमत्याः) प्रशंसित जिसकी वृद्धि है, उस उत्तम स्त्री के (करा) कर्म करते हुए दो पुत्रों का (महे) अत्यन्त (यामन्) सुख भोगने के लिये (अजोहवीत्) निरन्तर ग्रहण करे और (वाम्) तुम दोनों का जो (श्रुतम्) सुना-पढ़ा है (तत्) उसको (शासुरिव) जैसे पूर्ण विद्यायुक्त पढ़ानेवाले से शिष्य ग्रहण करे वैसे निरन्तर ग्रहण करे। वे तुम दोनों विद्या चाहनेवाले सब जनों के लिये जो ऐसा है कि (हिरण्यहस्तम्) जिससे हाथ में सुवर्ण आता है, उस पढ़े सीखे बोध को (अदत्तम्) निरन्तर देवो ॥ १३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वानो जैसे विद्वान् जन विदुषी स्त्री का पाणिग्रहण कर गृहाश्रम के व्यवहार को सिद्ध करे, वैसे बुद्धिमान् विद्यार्थियों का संग्रह कर पूर्ण विद्याप्रचार को करो और जैसे पढ़ानेवाले से पढ़नेवाले विद्या का संग्रह कर आनन्दित होते हैं, वैसे विद्वान् स्त्री-पुरुष अपने तथा औरों के सन्तानों को उत्तम शिक्षा से विद्या देकर सदा प्रमुदित होवें ॥ १३ ॥

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    विषय

    वध्रिमती को हिरण्यहस्त की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. हे (करा) = आरोग्य देनेवाले (पुरुभुजा) = खूब ही पालन करनेवाले (नासत्या) = जिनके कारण असत्य नहीं रहता , ऐसे अश्विनीदेवो ! (पुरन्धिः) = पालक बुद्धिवाली यह (वध्रिमती) = इन्द्रियाश्वों को बाँधने के लिए उत्तम रज्जुवाली , अर्थात् इन्द्रियों को वशीभूत करनेवाली वध्रिमती (वाम्) = आप दोनों को (महे यामन्) = इस महत्त्वपूर्ण जीवन - यात्रा में (अजोहवीत्) = पुकारती है । आपको ही तो उसके जीवन को सुन्दर बनाना है और आपकी कृपा से ही यह महत्त्वपूर्ण जीवन - यात्रा सफल होनी है । आप ही उसे नीरोग रखोगे , उसका पालन करोगे और उसके जीवन से असत्य को दूर करोगे । २. (वध्रिमत्याः) = वधिमती की (तत्) = उस पुकार को आप ऐसे (श्रुतम्) = सुनते हो (इव) = जैसे (शासुः) = आचार्य की पुकार को विद्यार्थी सुनता है । आचार्य से दिये जानेवाले ज्ञान को सच्छिष्य जिस प्रकार ध्यान से सुनता है , उसी प्रकार वध्रिमती की पुकार को अश्विनीदेव सुनते हैं । (अश्विनौ) = हे प्राणापानो ! आप उस वध्रिमती के लिए (हिरण्यहस्तम्) = हितरमणीय हाथ को (अदत्तम्) = देते हो , प्राप्त कराते हो । इसके हाथ से सदा हितकर व रमणीय कार्य होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से हम जितेन्द्रिय बनते हैं और हमारे हाथों से हितकर व रमणीय कार्य ही होते हैं ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे ( नासत्या ) कभी असत्य आचरण न करने वालो ! और हे मुख पर नासिका के समान यशस्वी, मुख्य पद पर विराजमान ! ( वां ) आप दोनों को ( करा ) कार्यकुशल और (पुरुभुजा) बहुत सी प्रजाओं और राष्ट्रों के पालने और बहुत सी भुजाओं अर्थात् योद्धा वीर जनों सहित बलवान् जानकर ( पुरन्धिः ) पुर की रक्षा करने वाली संस्था (महे यामन्) बड़े भारी युद्ध यात्रा के काल में ( अजोहवीत् ) बुलाती और ( करः ) मुख्य कार्यकर्त्ता रूप में स्वीकार करती है । आप दोनों ( शासुः इव ) गुरु के उपदेश के समान अथवा शासक राजा के समान ही (वध्रिमत्याः) बढ़ी हुई शक्ति से सम्पन्न उस राजसभा के ( तत् ) उस शासन को ( श्रुतं ) श्रवण करो । हे (अश्विनौ) अश्व बल के स्वामी, आप दोनों उसको ( हिरण्यहस्तम् ) हित और रमणीय हाथ अर्थात् अवलम्ब अथवा ( हिरण्यहस्तम् ) सुवर्णादि धन को हाथ में रखने वाले वैश्य वर्ग को अथवा सुवर्ण के समान कान्तिमान् हनन साधन से, या बल के स्वामी तेजस्वी पुरुष को आश्रय रूप से ( अदत्तम् ) प्रदान करो । राजसभा की शक्ति बहुत बढ़ जाने पर उसके सभापति या राजा का बल कम होता है। इसलिये वह ‘वध्रिमती’ है। क्योंकि उसका पति नपुंसक के समान उदासीन और बलहीन है । ऐसी दशा में दो प्रमुख अधिकारी सभा के कार्यों को वैश्य वर्ग के धन के बल पर चलावें । उस राजसभा में धनाढ्यों का ही बल रहता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो! जसे विद्वान लोक विदुषी स्त्रीचे पाणिग्रहण करून गृहस्थाश्रमाचे व्यवहार सिद्ध करतात तसे बुद्धिमान विद्यार्थ्यांचा संग्रह करून पूर्ण विद्या प्रचार करा व जसे अध्यापकाकडून विद्यार्थी विद्येचा संग्रह करून आनंदित होतात तसे विद्वान स्त्री-पुरुषांनी आपल्या व इतरांच्या संतानांना उत्तम शिक्षण देऊन व विद्या देऊन प्रमुदित व्हावे. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, lovers of truth and reality, munificent powers of action and knowledge, liberal givers of joy and prosperity for all, let the woman of noble intelligence invite you for the sake of abundant peace and prosperity, listen to her invocation as a commandment of the world Ruler, and give the fortunate woman that superior knowledge which showers the joys of life with golden hands of generosity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O absolutely truthful and revealers of truth by dispelling the darkness of ignorance, enjoying much bliss, a highly learned person for the achievement of happiness takes in marriage the hand of a virtuous virgin from whom he gets development of various faculties and he acquires much knowledge from you as from a noble teacher. Please impart that (technical and other) knowledge which enables a man to earn much gold and other kinds of wealth with one's hand to all the seekers of knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (यामन्) याम्ने-सुखप्राप्तये । अत्र या धातोरौणादिको मनिन् = For the achievement of happiness. (पुरन्धि:) बहुविधायुक्त: = Endowed with much knowledge. (वधिमत्याः) वधूय: प्रशस्ता वृद्धयो विद्यन्ते यस्यास्तस्याः सत्स्त्रियः = Of a good woman who causes development of various faculties. (हिरण्यहस्तम्) हिरण्यं हस्ते यस्मात् तं बोधम् = The knowledge that enables a man to acquire much gold or other kinds of wealth.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O Scholar! as a learned man accomplishes all household duties having taken the hand of a learned lady, in the same manner, you should propagate or diffuse knowledge having gathered around you intelligent students. As students get delight and bliss by acquiring knowledge from a good teacher, in the same way, learned husbands and wives should always enjoy happiness, by imparting good education to others' and their own children.

    Translator's Notes

    There is not a single word in the text to show that Vadhriwati was the wife of an impotent husband and that Ashvins gave her a son named Hiranya hasta and yet Sayanacharya prefaces his commentary with these words- वधूमतीनाम कस्य चिद्राजर्षेः पुत्री नपुंसकभर्तृका । सा पुत्रलाभार्थम् अश्विनावीजुहाव।।

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