ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 20
परि॑विष्टं जाहु॒षं वि॒श्वत॑: सीं सु॒गेभि॒र्नक्त॑मूहथू॒ रजो॑भिः। वि॒भि॒न्दुना॑ नासत्या॒ रथे॑न॒ वि पर्व॑ताँ अजर॒यू अ॑यातम् ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ऽविष्टम् । जा॒हु॒षम् । वि॒श्वतः॑ । सी॒म् । सु॒ऽगेभिः॑ । नक्त॑म् । ऊ॒ह॒थुः॒ । रजः॑ऽभिः । वि॒ऽभि॒न्दुना॑ । ना॒स॒त्या॒ । रथे॑न । वि । पर्व॑तान् । अ॒ज॒र॒यू इति॑ । अ॒या॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
परिविष्टं जाहुषं विश्वत: सीं सुगेभिर्नक्तमूहथू रजोभिः। विभिन्दुना नासत्या रथेन वि पर्वताँ अजरयू अयातम् ॥
स्वर रहित पद पाठपरिऽविष्टम्। जाहुषम्। विश्वतः। सीम्। सुऽगेभिः। नक्तम्। ऊहथुः। रजःऽभिः। विऽभिन्दुना। नासत्या। रथेन। वि। पर्वतान्। अजरयू इति। अयातम् ॥ १.११६.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 20
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे नासत्या युवां यथाऽजरयू सूर्याचन्द्रमसौ सुगेभी रजोभिर्लोकैः सह नक्तं पर्वतान् मेघान् वहतस्तथा विभिन्दुना रथेन सैन्यमूहथुः। विश्वतः सीं परिविष्टं जाहुषं राज्यं प्राप्य पर्वततुल्यान् शत्रून् व्ययातम् ॥ २० ॥
पदार्थः
(परिविष्टम्) सर्वतो व्याप्नुतम् (जाहुषम्) जहुषां गन्तव्यानामिदं गमनम्। अत्र ओहाङ्गतावित्यस्मादौणादिक उसिस्ततस्तस्येदमित्यण्। (विश्वतः) सर्वतः (सीम्) मर्य्यादाम् (सुगेभिः) सुखेन गमनाधिकरणैर्मार्गैः (नक्तम्) रात्रिम् (ऊहथुः) वहतम् (रजोभिः) लोकैः (विभिन्दुना) विविधभेदकेन (नासत्या) (रथेन) (वि) (पर्वतान्) मेघान् शैलान् वा (अजरयू) जरादिदोषरहितौ (अयातम्) प्राप्नुयातम् ॥ २० ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा राजसभासदो धर्म्यमार्गै राज्यं प्राप्य दुर्गस्थान् पर्वतादिस्थांश्चापि शत्रून् वशीकृत्य स्वप्रभावं प्रकाशयन्ति तथा सूर्याचन्द्रमसौ पृथिवीस्थान् पदार्थान् प्रकाशयतः। यथैतयोरसन्निहितेऽन्धकारो जायते तथैतेषामभावेऽन्यायतमः प्रवर्त्तते ॥ २० ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (नासत्या) सत्य धर्म के पालनेहारे सभासेनाधीशो ! तुम दोनों जैसे (अजरयू) जीर्णता आदि दोषों से रहित सूर्य और चन्द्रमा (सुगेभिः) जिनमें कि सुख से गमन हो उन मार्ग और (रजोभिः) लोकों के साथ (नक्तम्) रात्रि और (पर्वतान्) मेघ वा पहाड़ों को यथायोग्य व्यवहारों में लाते हैं, वैसे (विभिन्दुना) विविध प्रकार से छिन्न-भिन्न करनेवाले (रथेन) रथ से सेना को यथायोग्य कार्य में (ऊहथुः) पहुँचाओ, (विश्वतः) सब ओर से (सीम्) मर्यादा को (परिविष्टम्) व्याप्त होओ, (जाहुषम्) प्राप्त होने योग्य नगरादि के राज्य को पाकर पर्वत के तुल्य शत्रुओं को (वि, आयातम्) विभेद कर प्राप्त होओ ॥ २० ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे राजा के सभासद् जन धर्म के अनुकूल मार्गों से राज्य पाकर किला में वा पर्वत आदि स्थानों में ठहरे हुए शत्रुओं को वश में करके अपने प्रभाव को प्रकाशित करते हैं, वैसे सूर्य और चन्द्रमा पृथिवी के पदार्थों को प्रकाशित करते हैं। जैसे इन सूर्य्य और चन्द्रमा के निकट न होने से अन्धकार उत्पन्न होता है, वैसे राजपुरुषों के अभाव में अन्यायरूपी अन्धकार प्रवृत्त हो जाता है ॥ २० ॥
विषय
विभिन्दु
पदार्थ
१. हे (नासत्या) = असत्य को दूर करनेवाले प्राणापानो ! आप (विश्वतः) = चारों ओर से (परिविष्टम्) = शत्रुओं से घिरे हुए (जाहुषम्) = इस त्यागशील पुरुष को (नक्तम्) = इस अन्धकारमयी रात्रितुल्य जगती में (सुगेभिः) = सुगमता से जाने योग्य (रजोभिः) = ज्योतियों से [रजः ज्योतिः] (सीम्) = निश्चयपूर्वक (ऊहथुः) = लक्ष्यस्थान पर पहुँचाते हो । संसार प्रलोभनों से परिपूर्ण है । इसमें मनुष्य को मार्ग नहीं दिखता और वह भटक जाता है । चारों ओर अन्धकार - ही - अन्धकार दिखता है । रात्रि - ही - रात्रि लगती है । नियमपूर्वक प्राणसाधना होने पर हमें प्रकाश दिखता है । उस प्रकाश में हम मार्ग देखकर उसपर आगे बढ़ पाते हैं और क्रमशः लक्ष्यस्थान पर पहुँचनेवाले बनते हैं । २. हे (अजरयू) = जरा को हमारे साथ युक्त न होने देनेवाले प्राणापानो ! आप (विभिन्दुना) = सब विघ्नों का विदारण करनेवाले (रथेन) = इस शरीर - रथ से (पर्वतान्) = [पर्व पूरणे] अपना पूरण करनेवालों को , आत्मालोचन के द्वारा अपनी न्यूनताओं को देखकर उन्हें दूर करनेवालों को (वि अयातम्) = विशेषरूप से प्राप्त होते हो । प्राणसाधक जीर्ण न होकर वृद्ध होता है । यह इस प्राणसाधना के द्वारा अपनी शक्तियों का विस्तार करता है । प्राणसाधना से शरीर नीरोग व दृढ़ बनकर उन्नति - पथ पर निरन्तर आगे बढ़ता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से अन्धकार दूर होकर प्रकाश हो जाता है । जीर्णता दूर होकर वृद्धता प्राप्त होती है । शरीररूप रथ सब विघ्नों को दूर करता हुआ आगे बढ़ता है ।
विषय
missing
भावार्थ
हे नासत्या ( नासत्या ) दो प्रमुख नायको ! आप दोनों ( जाहुषं ) गन्तव्य, प्रयाण करने योग्य स्थान को ( विश्वतः सीम् ) सब ओरों से ( परि विष्टम् ) घेर लेओ और ( सुगेभिः ) सुख से गमन करने योग्य ( रजोभिः ) मार्गों से अपने सैन्य को ( नक्तम् ) रात रात में ( ऊहथुः ) लेजाओ । ( विभिन्दुना ) विविध प्रकार से ( पर्वतान् ) पर्वतों के समान अचल शत्रुओं को भी भेद डालने वाले ( रथेन ) रथ सैन्य से युक्त होकर ( अजरयू ) अपने जीवन और बल की हानि करते हुए ( अयातम् ) प्रमाण करो । ( २ ) हे स्त्री पुरुषो ! आप दोनों इस भोग्यसुख को प्राप्त होवो । सुखदायक ( रजोभिः ) राजस सुखों से रात्रि काल व्यतीत करो । पर्वतों के समान विशाल कष्टों के भी तोड़ने वाले ( रथेन ) बल, वीर्य या गृहस्थ के परस्पर रमण साधन उपायों से जरा रहित होकर संसार की यात्रा करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे राजाचे सभासद धर्मानुकूल मार्गाने राज्य प्राप्त करून किल्ल्यात किंवा पर्वत इत्यादी स्थानी राहणाऱ्या शत्रूंना वश करून आपला प्रभाव दर्शवितात तसे सूर्य व चंद्र पृथ्वीवरील पदार्थांना प्रकाशित करतात. जसे सूर्य व चंद्र जवळ नसल्यास अंधकार उत्पन्न होतो तसे राजपुरुषाच्या अभावाने अन्यायरूपी अंधकार उत्पन्न होतो. ॥ २० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, defenders and saviours of truth and right, young and unaging, when the commander or a section of the army or the ruler is besieged on all sides, launch, and attack by an invincible killer chariot, rescue the besieged force by easy but misty paths and take over the caverns and mountains by night.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O absolutely truthful President of the Assembly and Commander of the Army, as un-aging sun and moon with worlds and easy paths uphold mountains and clouds, so with the chariot that destroys enemies. you maintain the army. Having attained a desirable kingdom drive away enemies even if they are like mountains.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[जाहुषम्] जाहुषां गन्तव्यानामिदं गमनम् । अत्र औहाङ गतौ इत्यस्मात औणादिक उसि: ततः तत्तस्येदमित्यण् || = Attainment or desirable State. [ पर्वतान् ] मेघान् शैलान्वा = The clouds or the mountains. (पर्वत इति मेघनाम-निघ० १.१० ) [ विभिन्दुना ] विविधभेदकेन = Destroyer of enemies.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the members of the Council of Ministers having obtained kingdom with righteous means conquer even the enemies that are in forts or in mountains and thus show their great influence and splendor, in the same manner, the sun and the moon illuminate all objects of the world. As there is darkness in the absence of the sun and the moon, in the same manner, there is the darkness of injustice in their absence.
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