ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 22
श॒रस्य॑ चिदार्च॒त्कस्या॑व॒तादा नी॒चादु॒च्चा च॑क्रथु॒: पात॑वे॒ वाः। श॒यवे॑ चिन्नासत्या॒ शची॑भि॒र्जसु॑रये स्त॒र्यं॑ पिप्यथु॒र्गाम् ॥
स्वर सहित पद पाठश॒रस्य॑ । चि॒त् । आ॒र्च॒त्ऽकस्य॑ । अ॒व॒तात् । आ । नी॒चात् । उ॒च्चा । च॒क्र॒थुः॒ । पात॑वे । वाः । श॒यवे॑ । चि॒त् । ना॒स॒त्या॒ । शची॑भिः । जसु॑रये । स्त॒र्य॑म् । पि॒प्य॒थुः॒ । गाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
शरस्य चिदार्चत्कस्यावतादा नीचादुच्चा चक्रथु: पातवे वाः। शयवे चिन्नासत्या शचीभिर्जसुरये स्तर्यं पिप्यथुर्गाम् ॥
स्वर रहित पद पाठशरस्य। चित्। आर्चत्ऽकस्य। अवतात्। आ। नीचात्। उच्चा। चक्रथुः। पातवे। वाः। शयवे। चित्। नासत्या। शचीभिः। जसुरये। स्तर्यम्। पिप्यथुः। गाम् ॥ १.११६.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 22
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे नासत्या युवां शचीभिः शरस्य सकाशादागतान्नीचादवताच्चिदप्यार्चत्कस्य सकाशादागतादुच्चावतात् प्रजाः पातवे बलमाचक्रथुः। चिदपि शयवे जसुरये स्तर्यं वार्गां च पिप्यथुः ॥ २२ ॥
पदार्थः
(शरस्य) हिंसकस्य सकाशात् (चित्) अपि (आर्चत्कस्य) अर्चतः सत्कुर्वतः शिष्टस्यानुकम्पकस्य। अत्रार्चधातोर्बाहुलकादौणादिकोऽतिः प्रत्ययस्ततोऽनुकम्पायां कः। (अवतात्) हिंसकाद्रक्षकाद्वा (आ) (नीचात्) निकृष्टानि कर्माणि सेवमानात् (उच्चा) उच्चादुत्कृष्टकर्मसेवमानात्। अत्र सुपां सुलुगिति पञ्चम्यैकवचनस्याकारादेशः। (चक्रथुः) कुर्य्याताम् (पातवे) पातुम् (वाः) वारि। वारित्युदकना०। निघं० १। १२। (शयवे) शयानाय (चित्) अपि (नासत्या) सत्यविज्ञानौ (शचीभिः) प्रज्ञाभिः (जसुरये) हिंसकाय (स्तर्यम्) स्तरीषु नौकादियानेषु साधुम् (पिप्यथुः) वर्द्धेथाम्। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (गाम्) पृथिवीम् ॥ २२ ॥
भावार्थः
हे मनुष्या यूयं शत्रुनाशकस्य मित्रपूजकस्य जनस्य सत्कारं कुरुत तस्मै पृथिवीं दद्यात च। यथा वायुसूर्यौ भूमिवृक्षेभ्यो जलमुत्कृष्य वर्षयित्वा सर्वं वर्धयतस्तथैवोत्कृष्टैः कर्मभिर्जगद्वर्धयत ॥ २२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (नासत्या) सत्यविज्ञानयुक्त सभासेनाधीशो ! तुम दोनों (शचीभिः) अपनी बुद्धियों से (शरस्य) मारनेवाले की ओर से आये (नीचात्) नीच कामों का सेवन करते हुए (अवतात्) हिंसा करनेवाले से (चित्) और (आर्चत्कस्य) दूसरों की प्रशंसा करने वा सत्कार करते हुए शिष्टजन की ओर से आये (उच्चा) उत्तम कर्म को सेवते हुए रक्षा करनेवाले से प्रजाजनों को (पातवे) पालने के लिये बल को (आ, चक्रथुः) अच्छे प्रकार करो (चित्) और (शयवे) सोते हुए और (जसुरये) हिंसक जनों के लिये (स्तर्य्यम्) जो नौका आदि यानों में अच्छा है, उस (वाः) जल और (गाम्) पृथिवी को (पिप्यथुः) बढ़ाओ ॥ २२ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! तुम शत्रुओं के नाशक और मित्रजनों की प्रशंसा करनेवाले जन का सत्कार करो और उसके लिये पृथिवी देओ, जैसे पवन और सूर्य भूमि और वृक्षों से जल को खैच और वर्षाकर सबको बढ़ाते हैं, वैसे ही उत्तम कामों से संसार को बढ़ाओ ॥ २२ ॥
विषय
जल की ऊर्ध्वगति व गौ का आप्यायन
पदार्थ
१. शरीर में मूलाधारचक्र के समीप ही वीर्यकोश है । यह शरीर में नीचे होनेवाला एक कुँआ ही है । प्राणायाम के द्वारा इस वीर्य की ऊर्ध्वगति होती है और इस वीर्य का शरीर में पान होता है । हे (नासत्या) = प्राणापानो ! आप (शरस्य) = [हिंसायाम्] काम - क्रोधादि शत्रुओं का संहार करनेवाले (आर्चत्कस्य) = प्रभु का अर्चन करनेवाले के (वाः) = वीर्यरूप जलों को (चित्) = निश्चय से (पातवे) = पीने के लिए , शरीर के अन्दर ही पान करने के लिए [Imbibe] (नीचात् अवतात्) = नीचे वर्तमान कूपतुल्य वीर्यकोश से (उच्चा आ चक्रथुः) = ऊपर की ओर करते हो । प्राणसाधना से वीर्य की ऊर्ध्वगति होती है । २. इस प्रकार वीर्य की ऊर्ध्वगति के द्वारा इस (शयवे) = हृदयदेश में ही निवास करनेवाले [शी - Tranquility] शान्त स्वभाववाले पुरुष के लिए (जसुरये) = वासनाओं को अपने से दूर फेंकनेवाले के लिए (शचीभिः) = प्रज्ञाओं के द्वारा (चित्) = निश्चय से (स्तर्यं गाम्) = निवृत्त - प्रसवा - वन्ध्या गौ को (पिप्यथुः) = फिर से आप्यायित कर देते हो । यह गौ फिर से दोग्ध्री बन जाती है । यहाँ गौ वेदवाणी है । बुद्धि की मन्दता के कारण हम इसके अर्थ को नहीं समझते और इस प्रकार यह वेद - वाणीरूप गौ हमारे लिए वन्ध्या बन जाती है । प्राणसाधना से बुद्धि की तीव्रता होकर हम इस वाणी को फिर से समझने लगते हैं और यह वेदरूपी गौ हमारे लिए ज्ञान - दुग्ध देने लगती है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणापान के द्वारा वीर्य की ऊर्ध्वगति होकर बुद्धि की तीव्रता होती है और इस प्रकार ज्ञान की वाणियाँ हमारे लिए सुबोध हो जाती हैं ।
विषय
missing
भावार्थ
(चित्) जिस प्रकार ( नीचात् ) नीचे, गहरे ( अवतात् ) कूप से भी ( पातवे ) पान करने के लिये ( वाः उच्चा ) जल ऊपर निकाल लिया है। उसी प्रकार ( शरस्य ) हिंसा के व्यसनी ( नीचात् ) निकृष्ट कोटि के पुरुष के ( अवतात् ) रक्षण सामर्थ्य से भी (पातवे) प्रजा पालन के लिये ( वाः ) शत्रुओं का वारण ( चक्रथुः ) करो । उसी प्रकार ( आर्चत्कस्य ) पूज्य, विद्वान् पुरुष के ( उच्चा ) उत्कृष्ट कोटि के ( अवतात् ) ज्ञान रक्षण सामर्थ्य रूप ( अवतात् ) मेघ से ( वाः चक्रथुः ) जल के समान शान्तिदायक, दुःखवारक ज्ञान प्राप्त करो । हे ( नासत्या ) प्रमुख नायको ! तुम दोनो ( चित् ) जिस प्रकार ( शयवे स्तर्यम् ) सोने वाले के लिये बिस्तर बिछाया जाता है उसी प्रकार ( जसुरये ) शत्रुओं के नाश करने वाले के लिये ( शचीभिः ) अपनी सेनाओं के बल पर ( स्तर्यम् ) विस्तृत ( गाम् ) भूमि को ( पिप्पथुः ) बढ़ाओ, प्रदान करो । ( २ ) इसी प्रकार स्त्री पुरुष कुए से जल के समान शत्रु हिंसक और विद्वान् के रक्षण तथा ज्ञान सामर्थ्य से वरणीय, दुःखवारक बल और ज्ञान प्राप्त करें । सोने वाले को बिस्तर और ( जसुरये ) अज्ञान नाशक विद्वान् को ( गाम् ) शुभ वाणी और उत्तम गौ प्रदान करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! शत्रूंचा नाश करणाऱ्या व मित्रांची प्रशंसा करणाऱ्यांचा सत्कार करा. त्यांना पृथ्वी (भूमी) द्या. जसे वायू व सूर्य, भूमी व वृक्षांपासून जल खेचून घेतात व पर्जन्याद्वारे सर्वांची वाढ करवितात तसेच उत्तम कार्यांनी संसार वाढवा. ॥ २२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, lovers and defenders of truth and the facts of life, with your noble actions of science and husbandry, you raise the water from the lowest level as that of a well or lake to the higher level for the drink of the violent as well as of the worshipper, and you develop the dry cow to fertility for the drooping, depressed and the exhausted humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men of true knowledge, with your wisdom, you use your power to protect the people from a wicked mean person engaged in doing ignoble deeds, coming from a man of violent nature and also through a good man coming from one who respects all righteous persons and who himself is engaged in doing noble deeds. For a person who sleeps well (as a result of proper exertion in day time) and for a destroyer of wicked persons, you multiply good water for the use of boats and land for distribution among the industrious needy men.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[शरस्य ] हिंसकस्य = of a man of violent nature. [जसुरये] हिंसकाय = Here for the destroyer of enemies.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, you should honor a man who is destroyer of his enemies and respecter of his friends and give him plots of land. As air and sun cause growth by drawing up water from the earth and trees and by raining it down, in the same manner, you should uplift the world by noble deeds.
Translator's Notes
शर is derived from शू-हिंसायाम् कया ० जसुरये is from जसु-हिंसायाम पुरा: अवतात् is from अव-रक्षणगति कान्ति प्रीतितृष्त्यवगम प्रवेश श्रवण स्वाम्यर्थ याचन क्रियेच्छा व्यवहार दीप्त्यालिंगन हिंसादानभागवृद्धिषु = Here two meanings of fear and have been taken in different contexts.
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