ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 3
तुग्रो॑ ह भु॒ज्युम॑श्विनोदमे॒घे र॒यिं न कश्चि॑न्ममृ॒वाँ अवा॑हाः। तमू॑हथुर्नौ॒भिरा॑त्म॒न्वती॑भिरन्तरिक्ष॒प्रुद्भि॒रपो॑दकाभिः ॥
स्वर सहित पद पाठतुग्रः॑ । ह॒ । भु॒ज्युम् । अ॒श्वि॒ना॒ । उ॒द॒ऽमे॒घे । र॒यिम् । न । कः । चि॒त् । म॒मृ॒ऽवाम् । अव॑ । अ॒हाः॒ । तम् । ऊ॒ह॒थुः॒ । नौ॒भिः । आ॒त्म॒न्ऽवती॑भिः । अ॒न्त॒रि॒क्ष॒प्रुत्ऽभिः॑ । अप॑ऽउदकाभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तुग्रो ह भुज्युमश्विनोदमेघे रयिं न कश्चिन्ममृवाँ अवाहाः। तमूहथुर्नौभिरात्मन्वतीभिरन्तरिक्षप्रुद्भिरपोदकाभिः ॥
स्वर रहित पद पाठतुग्रः। ह। भुज्युम्। अश्विना। उदऽमेघे। रयिम्। न। कः। चित्। ममृऽवाम्। अव। अहाः। तम्। ऊहथुः। नौभिः। आत्मन्ऽवतीभिः। अन्तरिक्षप्रुत्ऽभिः। अपऽउदकाभिः ॥ १.११६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ नौकादिनिर्माणविद्योपदिश्यते ।
अन्वयः
हे अश्विना सेनापती युवां तुग्रः शत्रुहिंसनाय यं भुज्युमुदमेघे कश्चिन्ममृवान् रयिं नेवावाहास्तं हापोदकाभिरन्तरिक्षप्रुद्भिरात्मन्वतीभिर्नौभिरूहथुर्वहेतम् ॥ ३ ॥
पदार्थः
(तुग्रः) शत्रुहिंसकः सेनापतिः (ह) किल (भुज्युम्) राज्यपालकं सुखभोक्तारं वा (अश्विना) वायुविद्युताविव बलिष्ठौ (उदमेघे) यस्योदकैर्मिह्यते सिच्यते जगत् तस्मिन्समुद्रे (रयिम्) धनम् (न) इव (कः) (चित्) (ममृवान्) मृतः सन् (अव) (अहाः) त्यजति। अत्र ओहाक्त्याग इत्यस्माल्लुङि प्रथमैकवचने आगमानुशासनस्यानित्यत्वात्सगिटौ न भवतः। (तम्) (ऊहथुः) वहेतम् (नौभिः) नौकाभिः (आत्मन्वतीभिः) प्रशस्ता आत्मन्वन्तो विचारवन्तः क्रियाकुशलाः पुरुषा विद्यन्ते यासु ताभिः (अन्तरिक्षप्रुद्भिः) अवकाशे गच्छन्तीभिः (अपोदकाभिः) अपगत उदकप्रवेशो यासु ताभिः ॥ ३ ॥
भावार्थः
यथा कश्चिन्मुमूर्षुर्जनो धनपुत्रादीनां मोहाद्विरज्य शरीरान्निर्गच्छति तथा युयुत्सुभिः शूरैरनुभावनीयम्। यदा मनुष्यो द्वीपान्तरे समुद्रं तीर्त्वा शत्रुविजयाय गन्तुमिच्छेत्तदा दृढाभिर्बृहतीभिरन्तरप्प्रवेशादिदोषरहिताभिः परिवृतात्मीयजनाभिः शस्त्रास्त्रादिसम्भारालंकृताभिर्नौकाभिः सहैव यायात् ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब नाव आदि के बनाने की विद्या का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) पवन और बिजुली के समान बलवान् सेनाधीशो ! तुम (तुग्रः) शत्रुओं के मारनेवाला सेनापति शत्रुजन के मारने के लिये जिस (भुज्युम्) राज्य की पालना करने वा सुख भोगनेहारे पुरुष को (उदमेघे) जिसके जलों से संसार सींचा जाता है, उस समुद्र में जैसे (कश्चित्) कोई (ममृवान्) मरता हुआ (रयिम्) धन को छोड़े (न) वैसे (अवाहाः) छोड़ता है (तं, ह) उसी को (अपोदकाभिः) जल जिनमें आते-जाते (अन्तरिक्षप्रुद्भिः) अवकाश में चलती हुई (आत्मन्वतीभिः) और प्रशंसायुक्त विचारवाले क्रिया करने में चतुर पुरुष जिनमें विद्यमान उन (नौभिः) नावों से (ऊहथुः) एक स्थान से दूसरे स्थान को पहुँचाओ ॥ ३ ॥
भावार्थ
जैसे कोई मरण चाहता हुआ मनुष्य धन, पुत्र आदि के मोह से छूट के शरीर से निकल जाता है, वैसे युद्ध चाहते हुए शूरों को अनुभव करना चाहिए। जब मनुष्य पृथिवी के किसी भाग से किसी भाग को समुद्र से उतरकर शत्रुओं के जीतने को जाया चाहें तब पुष्ट बड़ी-बड़ी कि जिनमें भीतर जल न जाता हो और जिनमें आत्मज्ञानी विचारवाले पुरुष बैठे हों और जो शस्त्र-अस्त्र आदि युद्ध की सामग्री से शोभित हों, उन नावों के साथ जावें ॥ ३ ॥
विषय
तुग्र द्वारा भुज्यु का त्याग
पदार्थ
१. (न) = जैसे (कश्चित्) = कोई (ममृवान्) = मरण - संकट में पड़ा हुआ मनुष्य (रयिम्) = धन को (अव अहाः) = सुदूर त्याग देता है , उसी प्रकार (ह) = निश्चय से हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (तुग्रः) = वासनाओं से अपने को हिंसित होता हुआ देखनेवाला पुरुष (उदमेघे) = इस विषय - जल के वर्षणवाले संसार समुद्र में (भुज्युम्) = भोगवृत्ति को अब (अहाः) = परित्यक्त कर देता है । धन प्रिय होता है , परन्तु मृत्यु सामने होने पर उसे छोड़ा ही जाता है । इसी प्रकार संसार के भोग बड़े प्रिय हैं , परन्तु इनसे होनेवाले नाश के दिखने पर इन्हें छोड़ना ही होता है , अन्यथा ये भोग इस संसार - समुद्र में हमें डुबा ही देते हैं । २. (तम्) = उस भुज्यु को - भोग को प्राणापान (नौभिः) = शरीररूपी नाव से (ऊहथुः) = सुरक्षितरूप में धारण करते हैं । कैसी शरीररूप नाव से ? [क] (आत्मन्वतीभिः) = प्रशस्त मनवाली । इन्द्रियों को मन के द्वारा वश में करके भोगों का ग्रहण होने पर वह संसार - समुद्र में डुबोनेवाला नहीं रहता , [ख] (अन्तरिक्षप्रुद्भिः) = अन्तरिक्ष [मध्यमार्ग , अन्तरा क्षि] में चलनेवाली नावों से । अति को छोड़कर मध्यमार्ग में चलने के द्वारा मनुष्य इन भोगों का शिकार होने से बच जाता है , [ग] (अपोदकाभिः) = जिनमें पानी प्रविष्ट नहीं हो सकता - ऐसी नौका से । जैसे वाटर - टाइट [water - tight] नाव में नदी का जल प्रविष्ट नहीं हो सकता , उसी प्रकार उस नाव में से नाव का जल टपक भी नहीं सकता । इसी प्रकार इस शरीररूपी नाव में रेतः कणरूपी जल सुरक्षित रहता है , वह इससे निकलता नहीं । एवं , प्राणापान शरीररूप नाव को प्रशस्त मनवाला , मध्यमार्ग में चलनेवाला तथा सुरक्षित वीर्य - जलवाला बनाते हैं । ऐसी नाव से वे उचित भोगों को धारण करते हुए हमें हिंसित नहीं होने देते ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से भोगवृत्ति हमारा नाश करनेवाली नहीं होती ।
विषय
तुम्र और सुज्यु की समुद्र यात्रा का रहस्य ।
भावार्थ
( कश्चित् ममृवान् ) जैसे कोई मरता हुआ पुरुष अपने जीवन रक्षा के लिये ( रयिम् अव अहाः ) धन का त्याग कर दे, उस समय जिस प्रकार दो नाविक (अन्तरिक्षप्रुदभिः) जलों पर चलने वाली और (अपोदकाभिः) पानी को भीतर न जाने देने वाली, सुदृढ़ नावों से पार उतार देते हैं । इसी प्रकार ( तुग्रः ) शत्रु हिंसक और प्रजापालक पुरुष भी रण में (ममृवान्) मरने पर उतारू होकर ( भुज्युम् ) अपने भोक्ता या पालक ( रयिम् ) राष्ट्र रूप ऐश्वर्य को ( उद-मेधे ) समुद्र के समान संकट दशा में त्याग देता है । ऐसी दशा में ( अश्विना ) शीघ्रगामी अश्वों और रथों के स्वामी अध्यक्ष जन ( तम् ) उसको ( आत्मन्व्रतीभिः ) अपने आत्मिक बल और विचार और मन्त्रणा युक्त ( नौभिः ) वाणियों रूप नावों से ( ऊहथुः ) उठा लें, उसे संकट से पार करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसा मृत्यू इच्छिणारा माणूस धन, पुत्र इत्यादी मोहापासून सुटून शरीर सोडून जातो तसे युद्ध इच्छिणाऱ्या शूरांनी वागले पाहिजे. जेव्हा माणसाला पृथ्वीच्या एखाद्या भागातून समुद्र पार करीत शत्रूंना जिंकण्यासाठी जावयाचे असेल तेव्हा मजबूत व ज्यात जल प्रवेश करू शकत नाही, ज्यात चतुर विचारवंत पुरुष बसलेले आहेत व शस्त्रास्त्रांनी युद्धाच्या सामग्रीने सज्ज असेल अशा नौकांद्वारे प्रवास करावा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, commanders forceful as wind and lightning, if a great ruler and governor launches a fighter and pioneer beneficiary of the nation on the bottomless sea but then abandons hope like a dying man giving up his wealth of a life-time, you rescue him by self-driven, waterproof, flying boats.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now the science of building boats and ships is taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A man desirous of possessing and enjoying wealth, riches, necessaries of life, comforts and victory should fulfil his desires with the help of physical sciences. By constructing ships of wood, iron etc. and by using fire and water (for generating steam for propulsion) he may make voyages on the seas backwards and forwards and in this way he may amass wealth. Such a man never dies in want and without assets, for he has labored as a man. Men should, therefore, spend all their efforts in building ships and boats for going and coming from one country to another by water. The ships are to be constructed with metals such as iron, copper, silver or with wood etc. and by the use of heat and light-producing fire. These substances when properly used enable men to go from one country to another with ease and comfort. The ships which carry men on their forward and return Voyages on the sea should be strong and able to stand (on the waters). The officers of the State and the merchants should make voyage by means of ships whenever the exigencies of business might require it. (Pt. Ghasi Ram Ji's translation in Introduction to the Vedic Commentary).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(तुग्र:) शत्रुहिंसक: सेनापतिः = A commander of the Army who destroys his enemies. (अश्विना) वायु विद्युताविव बलिष्ठौ = mighty like the wind and lightning. (आत्मन्वतीभिः) प्रशस्ताः आत्मन्वन्तः विचारवन्तः क्रियाकुशलाः पुरुषा विद्यन्ते यास ताभिः = Having men who are thoughtful and experts.
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