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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 116 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒ना॒र॒म्भ॒णे तद॑वीरयेथामनास्था॒ने अ॑ग्रभ॒णे स॑मु॒द्रे। यद॑श्विना ऊ॒हथु॑र्भु॒ज्युमस्तं॑ श॒तारि॑त्रां॒ नाव॑मातस्थि॒वांस॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ना॒र॒म्भ॒णे । तत् । अ॒वी॒र॒ये॒था॒म् । अ॒ना॒स्था॒ने । अ॒ग्र॒भ॒णे । स॒मु॒द्रे । यत् । अ॒श्वि॒ना॒ । ऊ॒हथुः॑ । भु॒ज्युम् । अस्त॑म् । श॒तऽअ॑रित्रान् । नाव॑म् । आ॒त॒स्थि॒वांस॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनारम्भणे तदवीरयेथामनास्थाने अग्रभणे समुद्रे। यदश्विना ऊहथुर्भुज्युमस्तं शतारित्रां नावमातस्थिवांसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनारम्भणे। तत्। अवीरयेथाम्। अनास्थाने। अग्रभणे। समुद्रे। यत्। अश्विना। ऊहथुः। भुज्युम्। अस्तम्। शतऽअरित्रान्। नावम्। आतस्थिवांसम् ॥ १.११६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अश्विनौ यद्यौ युवामनारम्भणेऽनास्थानेऽग्रभणे समुद्रे शतारित्रां नावमूहथुरस्तमातस्थिवांसं भुज्युमवीरयेथां विक्रमेथां तत् वयं सदा सत्कुर्याम ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (अनारम्भणे) अविद्यमानमारम्भणं यस्मिँस्तस्मिन् (तत्) तौ (अवीरयेथाम्) विक्रमेथाम् (अनास्थाने) अविद्यमानं स्थित्यधिकरणं यस्मिन् (अग्रभणे) न विद्यते ग्रहणं यस्मिन्। अत्र हस्यः भः। (समुद्रे) अन्तरिक्षे सागरे वा (यत्) यौ (अश्विनौ) विद्याप्राप्तिशीलौ (ऊहथुः) विद्युद्वायू इव सद्यो गमयेतम् (भुज्युम्) भोगसमूहम् (अस्तम्) अस्यन्ति दूरीकुर्वन्ति दुःखानि यस्मिँस्तद्गृहम्। अस्तमिति गृहना०। निघं० ३। ४। (शतारित्राम्) शतसंख्याकान्यरित्राणि जलपरिमाणग्रहणार्थानि स्तम्भनानि वा यस्याम् (नावम्) नुदन्ति चालयन्ति प्रेरते वा यां ताम्। ग्लानुदिभ्यां डौः। उ० २। ६४। अनेनायं सिद्धः। (आतस्थिवांसम्) आस्थितम् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    राजपुरुषैरालम्बविरहे मार्गे विमानादिभिरेव गन्तव्यं यावद् योद्धारो यथावन्न रक्ष्यन्ते तावच्छत्रवो जेतुं न शक्यन्ते। यत्र शतमरित्राणि विद्यन्ते सा महाविस्तीर्णा नौर्विधातुं शक्यते। अत्र शतशब्दोऽसंख्यातवाच्यपि ग्रहीतुं शक्यते। अतोऽतिदीर्घाया नौकाया विधानमत्र गम्यते। मनुष्यैर्यावती नौर्विधातुं शक्यते तावतीं निर्मातव्यैवं सद्योगामी जनो भूम्यन्तरिक्षगमनागमनार्थान्यपि यानानि विदध्यात् ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विनौ) विद्या में व्याप्त होनेवाले सभा सेनापति ! (यत्) तुम दोनों (अनारम्भणे) जिसमें आने-जाने का आरम्भ (अनास्थाने) ठहरने की जगह और (अग्रभणे) पकड़ नहीं है उस (समुद्रे) अन्तरिक्ष वा सागर में (शतारित्राम्) जिसमें जल की थाह लेने को सौ वल्ली वा सौ खम्भे लगे रहते और (नावम्) जिसको चलाते वा पठाते उस नाव को बिजुली और पवन के वेग के समान (ऊहथुः) बहाओ और (अस्तम्) जिसमें दुःखों को दूर करें उस घर में (आतस्थिवांसम्) धरे हुए (भुज्यम्) खाने-पीने के पदार्थ समूह को (अवीरयेथाम्) एक देश से दूसरे देश को ले जाओ, (तत्) उन तुम लोगों का हम सदा सत्कार करें ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    राजपुरुषों को चाहिये कि निरालम्ब मार्ग में अर्थात् जिसमें कुछ ठहरने का स्थान नहीं है वहां विमान आदि यानों से ही जावें। जबतक युद्ध में लड़नेवाले वीरों की जैसी चाहिये वैसी रक्षा न की जाय तबतक शत्रु जीते नहीं जा सकते, जिसमें सौ वल्ली विद्यमान हैं वह बड़े फैलाव की नाव बनाई जा सकती है। इस मन्त्र में शत शब्द असंख्यातयाची भी लिया जा सकता है, इससे अतिदीर्घ नौका का बनाना इस मन्त्र में जाना जाता है। मनुष्य जितनी बड़ी नौका बना सकते हैं, उतनी बड़ी बनानी चाहिये। इस प्रकार शीघ्र जानेवाला पुरुष भूमि और अन्तरिक्ष में जाने-आने के लिये यानों को बनावे ॥ ५ ॥

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    विषय

    समुद्र के पार - ‘घर में’

    पदार्थ

    १. यह शरीर इस संसार - समुद्र को तैरने के लिए एक नाव के समान है । यह सौ वर्ष तक चलनेवाला होने के कारण यहाँ ‘शतारित्रा नाव’ के रूप में कहा गया है । इसपर आरूढ़ ‘भुज्यु’ भोगप्रवण मनुष्य इस संसार - समुद्र में बहता जाता है । प्राणापान [साधना ही] इसे इस समुद्र में डूबने से बचाते हैं और उसे फिर अपने घर ब्रह्मलोक में पहुँचाते हैं । इस संसार में प्राणापान ही हमारा आश्रय होते हैं । २. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (तत्) = वह (अवीरयेथाम्) = बड़ा वीरतापूर्ण कर्म करते हो (यत्) = कि इस (अनारम्भणे) = आरम्भण से रहित [A handle , आरम्भण जिससे पकड़ा जाए] , (अनास्थाने) = स्थिति - स्थान से रहित , (अग्रभणे) = ग्रहण करने योग्य बाहु से रहित (समुद्रे) = संसार - समुद्र में डूबने से बचाकर (भुज्युम्) = इन भोगों से युक्त मनुष्य को (अस्तम्) = अपने ब्रह्मलोकरूप घर में (ऊहथुः) = प्राप्त कराते हो । उस भुज्यु को जो (शतारित्राम्) = सौ चप्पुओंवाली (नावम्) = इस शरीररूप नाव पर (आतस्थिवांसम्) = बैठा है । ३. इस संसार में धन व परिवार आदि कोई भी वस्तु अवलम्बन नहीं है , प्रभु ही वास्तविक सहारा है । प्रभु की ओर झुकाव प्राणापान की साधना से होता है , अतः प्राणापान ही आरम्भण हो जाते हैं । यह संसार अनस्थान है - यहाँ कहीं भी स्थिति नहीं हो पाती , मनुष्य की तृप्ति नहीं होती । वह सदा अतृप्त सा रहता है । प्रभु ही आधार हैं । प्रभु की प्राप्ति में ही आप्तकामतः है । कामों की प्राप्ति में तो सीमा आती ही नहीं । प्रभु की प्राप्ति में प्राणापान ही साधन बनते हैं । संसार की कोई भी वस्तु ‘ग्रभण’ ग्रहण करने योग्य नहीं है । प्रभु ही ग्राह्य हैं । उनकी प्राप्ति इन प्राणापानों की साधना से होती है । यह प्राणापान का ही महत्त्व है कि वे हमें प्रभु के समीप ले - चलते हैं और हम इस संसार - समुद्र में डूबने से बच जाते हैं । हम भुज्यु ही भुज्यु न रहकर उस प्रभु से योगवाले ‘युज्यु’ बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - यह संसार एक ‘अनारम्भण , अनास्थान , अग्रभण’ समुद्र है । इसे पार करने के लिए प्रभु ने हमें यह शरीररूप शतारित्रा नाव दी है । प्राणापान इस नाव के केवट बनते हैं और यह नाव हमें पार पहुँचानेवाली होती है ।

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    विषय

    शतारित्रा नौ

    भावार्थ

    ( यत् ) जो ( अश्विनौ ) विद्यावान् शिल्पवान् पुरुष ( शता रित्राम् ) सैकड़ों चक्षुओं वाली ( नावम् आतस्थिवांसम् ) नाव पर बैठे हुए ( भुज्युम् ) ऐश्वर्य के भोक्ता स्वामी तथा भोग्य ऐश्वर्य को ( अस्तं ऊहथुः ) घर लाते हैं (तत्) वे वस्तुतः (अनारम्भणे) अवलम्बन रहित (अनास्थाने) आश्रय के स्थल से रहित और(अग्रमणे) सहायता के लिये भी जहां कुछ पकड़ा न जा सके ऐसे (समुद्र) समुद्र में ( अवीरयेथाम् ) पराक्रम करते हैं । (२) अध्यात्म में—‘शतारित्रा’ नाव शत-वर्ष जीवी देह है । उस पर बैठे हुए आत्मा कर्म फल भोक्ता को प्राण और अपान या गुरु और परमेश्वर ‘अस्त’ अर्थात् परम शरण मोक्ष तक पहुंचाते हैं तो वे दोनों उस आत्मा को ऐसी दशा में पहुंचाते हैं जहां प्रथम आरम्भ अर्थात् कर्म का उदय न हो, द्वितीय अनास्थान अर्थात् देह में स्थिति न हो, तृतीय अग्रभण अर्थात् कर्म का बन्धन न हो ऐसे समुद्र अर्थात् रस-सागर आनन्द-मय समुद्र में वे उस आत्मा को प्रेरित करते हैं । अथवा यह जगत् कामनामय समुद्र है, जो ‘अनारम्भण’ है अर्थात् इसमें कुछ करते नहीं बनता, अनास्थान अर्थात् कोई आश्रय या शरण नहीं, ‘अग्रभण’ अर्थात् शाखावलम्ब या हस्तावलम्ब नहीं हैं । इत्यष्टमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुषांनी निरालम्ब मार्गात अर्थात जेथे उतरण्याची जागा नाही तेथे विमान इत्यादी यानांनी जावे. जोपर्यंत युद्धात लढणाऱ्या वीरांचे योग्य रक्षण होत नसेल तोपर्यंत शत्रूंना जिंकता येत नाही. ज्यात शंभर वल्हे असतात अशी मोठी नौका तयार करता येऊ शकते. या मंत्रात शत शब्द असंख्यात या अर्थानेही घेता येऊ शकतो. अति दीर्घ नौका तयार करणे हे या मंत्रावरून जाणता येते. माणसांना जेवढी मोठी नौका बनविता येईल तेवढी बनवावी. याप्रमाणे शीघ्र प्रवास करणाऱ्या पुरुषाने भूमी व अंतरिक्षात गमनागमनासाठी याने बनवावीत. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, scholars dedicated to truth and humanity, in the ocean of space where there is no beginning and no end, where there is no foothold and nothing to hold with hand, you carry the man of earthly enjoyment riding the carrier-boat worked with a hundred propellers to his haven of rest where there is no want, no pain, nothing beyond desire. That is great, heroic!

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Ye men in the ocean full of water and in the upper region where there is no means of support for hand, where none can stand, you should travel for success in your undertaking, by building ships and aerial cars in the way described above. Such cars when moved by the properly yoked Ashvins (fire and water or electricity and wind) bring success to the undertakings. There should be a hundred iron bars (i. e. apparatus) for supporting the cars on land, or water and in the air and keeping them steady and for taking the bearings. These apparatus should be fixed to the land conveyances, ships and aerial cars. These three kinds of cars should be constructed for making them steady. Such cars secure permanent and abiding enjoyments.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (समुद्रे) अन्तरिक्षे सागरे वा = In the firmament or the Ocean. (अश्विनौ) विद्याप्राप्तिशीलौ = Learned men and women. (भुज्युम्) भोगसमूहम् = Enjoyment

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The officers of the State should travel in a supportless path (firmament or sky ) by aircrafts. Unless the soldiers are protected well, it is not possible to get victory. Such a great ship should be built where there are a hundred or more oars. Men should build the largest possible ships or steamers. In the same manner, a man desirous of speedy transport, should build vehicles which may go to the earth as well as to the firmament or middle regions.

    Translator's Notes

    अश्विनाविति पदनाम (निघ० ५.६ ) पद-गतौ गतेस्त्रयोऽर्थाः-ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च अत्र प्राप्त्यर्थ ग्रहणं कृत्वा विद्याप्राप्तिशीलौ इति महर्षि दयानन्द व्याख्या | भुज-पालनाभ्यवहारयोः

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