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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 116 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    हि॒मेना॒ग्निं घ्रं॒सम॑वारयेथां पितु॒मती॒मूर्ज॑मस्मा अधत्तम्। ऋ॒बीसे॒ अत्रि॑मश्वि॒नाव॑नीत॒मुन्नि॑न्यथु॒: सर्व॑गणं स्व॒स्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒मेन॑ । अ॒ग्निम् । घ्रं॒सम् । अ॒वा॒र॒ये॒था॒म् । पि॒तु॒ऽमती॒म् । ऊर्ज॑म् । अ॒स्मै॒ । अ॒ध॒त्त॒म् । ऋ॒बीसे॑ । अत्रि॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । अव॑ऽनीतम् । उत् । नि॒न्य॒थुः॒ । सर्व॑ऽगणम् । स्व॒स्ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिमेनाग्निं घ्रंसमवारयेथां पितुमतीमूर्जमस्मा अधत्तम्। ऋबीसे अत्रिमश्विनावनीतमुन्निन्यथु: सर्वगणं स्वस्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिमेन। अग्निम्। घ्रंसम्। अवारयेथाम्। पितुऽमतीम्। ऊर्जम्। अस्मै। अधत्तम्। ऋबीसे। अत्रिम्। अश्विना। अवऽनीतम्। उत्। निन्यथुः। सर्वऽगणम्। स्वस्ति ॥ १.११६.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अश्विना युवां हिमेनोदकेनाग्निं घ्रंसं चावारयेथामस्मै पितुमतीमूर्जमधत्तमृबीसेऽत्रिमवनीतं सर्वगणं स्वस्ति चोन्निन्यथुरूर्धं नयतम् ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (हिमेन) शीतेनाग्निम् (घ्रंसम्) रात्र्या दिनम्। घ्रंस इत्यहर्ना०। निघं० १। ९। (अवारयेथाम्) निवारयेतम् (पितुमतीम्) प्रशस्तान्नयुक्ताम् (ऊर्जम्) पराक्रमाख्यां नीतिम् (अस्मै) (अधत्तम्) पोषयतम् (ऋबीसे) दुर्गतभासे व्यवहारे (अत्रिम्) अत्तारम्। अदेस्त्रिनिश्च। उ० ४। ६९। अत्र चकारात् त्रिवनुवर्त्तते। तेनादधातोस्त्रिप्। (अश्विना) यज्ञानुष्ठानशीलौ (अवनीतम्) अर्वाक् प्रापितम् (उत्) (निन्यथुः) नयतम् (सर्वगणम्) सर्वे गणा यस्मिंस्तत् (स्वस्ति) सुखम् ॥ ८ ॥यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याचष्टे−ऋबीसमपगतभासमपहृतभासमन्तर्हितभासं गतभासं वा। हिमेनोदकेन ग्रीष्मान्तेऽग्निं घ्रंसमहरवारयेथामन्नवतीं चास्मा ऊर्जमधत्तमग्नये योऽयमृद्बीसे पृथिव्यामग्निरन्तरौषधिवनस्पतिष्वप्सु तमुन्निन्यथुः सर्वगणं सर्वनामानम्। गणो गणनाद् गुणश्च यद्वृष्ट ओषधय उद्यन्ति प्राणिनश्च पृथिव्यां तदश्विनो रूपं तेनैनौ स्तौति । निरु० ६। ३५। ३६।

    भावार्थः

    विद्वद्भिरेतत्संसारसुखाय यज्ञेन शोधितेन जलेन वनरक्षणेन च परितापो निवारणीयः, संस्कृतेनान्नेन बलं प्रजननीयम्। यज्ञानुष्ठानेन त्रिविधदुःखं निवार्य सुखमुन्नेयम् ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) यज्ञानुष्ठान करनेवाले पुरुषो ! तुम दोनों (हिमेन) शीतल जल से (अग्निम्) आग और (घ्रंसम्) रात्रि के साथ दिन को (अवारयेथाम्) निर्वारो अर्थात् बिताओ। (अस्मै) इसके लिये (पितुमतीम्) प्रशंसित अन्नयुक्त (ऊर्जम्) बलरूपी नीति को (अधत्तम्) पुष्ट करो और (ऋबीसे) दुःख से जिसकी आभा जाती रही उस व्यवहार में (अत्रिम्) भोगनेहारे (अवनीतम्) पीछे प्राप्त कराये हुए (सर्वगणम्) जिसमें समस्त उत्तम पदार्थों का समूह है, उस (स्वस्ति) सुख को (उन्निन्यथुः) उन्नति देओ ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    विद्वानों को चाहिये कि इस संसार के सुख के लिये यज्ञ से शोधे हुए जल से और वनों के रखने से अति उष्णता (खुश्की) दूर करें। अच्छे बनाए हुए अन्न से बल उत्पन्न करें और यज्ञ के आचरण से तीन प्रकार के दुःख को निवार के सुख को उन्नति देवें ॥ ८ ॥

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    विषय

    अन्नयुक्त रस की उत्पत्ति

    पदार्थ

    १. शरीर में जो कार्य प्राण करता है वही कार्य बाह्य जगत् में वायु के द्वारा होता है । वायु ही प्राण का रूप धारण करके शरीर में निवास करता है । यह वायु न चले तो ग्रीष्म में दिन की गर्मी सब ओषधि व वनस्पतियों को भून ही डाले , अतः कहते हैं कि हे (अश्विना) = वायुदेव ! तुम (हिमेन) = हिम के द्वारा , शीतलता के द्वारा (घ्रंसम् अग्निम्) = दिन के सन्ताप को (अवारयेथाम्) = दूर करते हो और (अस्मै) = हमारे लिए (पितुमतीम्) = अन्नवाले (ऊर्जम्) = रस को (अधत्तम्) = धारण करते हो । उस भून डालनेवाली सन्तापक अग्नि के न होने पर अन्न ठीक उत्पन्न होते हैं और पशुओं में दूध के रूप में रहनेवाले रस की कमी नहीं होती । अत्यधिक सन्तापक अग्नि के होने पर ओषधियाँ भी भुन जाती , पशु भी दूध से सूख जाते । २. (ऋबीसे) = [अपगततेजस्के] अपगत तेजवाली इस पृथिवी में (अवनीतम्) = ओषधि - वनस्पति आदि के परिपाक के लिए अन्दर ले जाई गई (अत्रिम्) = ओषधि - वनस्पति आदि के भक्षण करनेवाले अग्नि को (सर्वगणम्) = व्रीहि आदि ओषधिगण को (उत् निन्यथुः) = ओषधियों के रूप से ऊपर लाते हो ताकि (स्वस्ति) = सब प्राणियों का कल्याण हो । यदि पृथिवी में उचित सन्ताप न हो तो बीज अंकुरित ही न हो । पार्थिवाग्नि से परिपक्व व उदक से क्लिन्न [गीली] होकर ही ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - वायु सन्तापक अग्नि का निवारण करता है और भूमि में वर्तमान अग्नि को ओषधि - वनस्पति आदि रूप में ऊपर लाता है ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) आकाश और पृथिवी या दिन रात्रि तुम दोनों मिलकर (हिमेन) शीतल जल से ( अग्निम् ) अग्नि को और ( हिमेन घ्रंसम् ) शीतल जल से ही दिन के परिताप को वृष्टि द्वारा ( अवारयेथाम् ) निवारण करते हो। तुम दोनों ही कारण क्रम से ( अस्मै ) इस प्राणि-वर्ग को ( पितुमतीम् ) अन्न से युक्त ( ऊर्जम् ) बल, पराक्रम और सम्पत्ति ( अधत्तम् ) प्रदान करते हो । ( ऋबीसे ) पृथ्वी पर ( अवनीतम् ) नीचे गिरे हुए ( सर्वगणम् ) सब प्रकार के भूख से पीड़ित (अत्रिम्) भोक्ता जीवगण को और भोगने योग्य अन्नादि औषधि गण को ( उत् निन्यथुः ) ऊपर से उठाते हो, जीवन प्रदान करते और जल द्वारा सेचित कर हरा भरा करते हो । (२) नायकों के पक्ष में—हे वीरनायको ! तुम दोनों ( हिमेन अग्निम् ) हिम से अग्नि के निवारण करने के समान (हिमेन) शत्रुहनन करने के साधन सेनाबल से ( ध्रंसम् ) संतापकारी शत्रु को वारण करो । (अस्मै) इस प्रजाजन को ( पितुमतीम् ऊर्जम् ) पालक बल से युक्त पराक्रम प्रदान करो । (ऋबीसे ) तेज के नष्ट हो जाने पर भी ( अवनीतम् अत्रिम् ) उत्साह, धन और प्रज्ञा तीनों बल से रहित राजा को भी (सर्वगणं) समस्त अनुयायी गणों सहित ( स्वस्ति उत् निन्यथुः ) कुशल से उन्नत पद पर पहुंचा दो । (३) प्राण और अपान दोनों आहित अग्नि के समान देह के संताप को कम करते, अन्न रस वाली पुष्टि देते, (ऋबीसे) उदर में स्थित अन्न को सब प्राणों सहित शरीर के कल्याण के लिये ऊपर उठाते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांनी संसारातील सुखासाठी व वनाचे रक्षण करण्यासाठी यज्ञाने संस्कारित केलेल्या जलाने अति उष्णता (रुक्षता) दूर करावी. चांगल्या प्रकारे तयार केलेल्या अन्नाने बल उत्पन्न करावे व यज्ञाच्या अनुष्ठानाने तीन प्रकारचे दुःख निवारण करून सुख वाढवावे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, scholars of heat and energy, fight out fire and heat with ice and cool, and bear edible energy concentrate for us. Pull out the man fallen into the earth’s womb of fire and despondency and free him and his community from physical, mental and spiritual suffering for their common good.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men and women who are performers of the Yajnas, quench with cold water the blazing fire and remove the darkness of night with the day's light. Give to men strength by feeding them on nourishing food. You extricate a man fallen below in the dark of ignorance and worldly passions and restore him to every kind of welfare.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (घ्रंसम्) दिनम् घ्रंस इत्यहर्नाम (निघ० १.९) = Day. (ऋबीसे) दुर्गतभासे व्यवहारे = In a bad dealing or State. (अत्रिम् ) अतारम् | अदेस्त्रिनिश्च । उणा० ६.६९ अत्र चकारात् त्रिबनुवर्तते । तेन अद् धातोस्त्रिप् । = Eater of fruits or enjoyer of worldly pleasures. (अश्विना) यज्ञानुष्ठानशीलौ = Performers of Yajnas.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of great scholars to remove the heat by the water purified by Yajna and by the preservation of the forests. They should make men strong by supplying them invigorating and purified food. They should make all men enjoy happiness and remove three-fold misery by the performance of the Yajnas.

    Translator's Notes

    By three fold or three kinds of miseries are meant आध्यात्मिक Spiritual, internal or individual misery caused by illness or ignorance etc. आधि भौतिक दुःख Social misery caused by the absence of love and sympathy आधि दैविक दुःख = Cosmic misery caused by storm, over rain. absence of rain, fire, floods etc.

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