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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 116 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यु॒वं न॑रा स्तुव॒ते प॑ज्रि॒याय॑ क॒क्षीव॑ते अरदतं॒ पुर॑न्धिम्। का॒रो॒त॒राच्छ॒फादश्व॑स्य॒ वृष्ण॑: श॒तं कु॒म्भाँ अ॑सिञ्चतं॒ सुरा॑याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । न॒रा॒ । स्तु॒व॒ते । प॒ज्रि॒याय॑ । क॒क्षीव॑ते । अ॒र॒द॒त॒म् । पुर॑म्ऽधिम् । का॒रो॒त॒रात् । श॒फात् । अश्व॑स्य । वृष्णः॑ । श॒तम् । कु॒म्भान् । अ॒सि॒ञ्च॒त॒म् । सुरा॑याः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं नरा स्तुवते पज्रियाय कक्षीवते अरदतं पुरन्धिम्। कारोतराच्छफादश्वस्य वृष्ण: शतं कुम्भाँ असिञ्चतं सुरायाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम्। नरा। स्तुवते। पज्रियाय। कक्षीवते। अरदतम्। पुरम्ऽधिम्। कारोतरात्। शफात्। अश्वस्य। वृष्णः। शतम्। कुम्भान्। असिञ्चतम्। सुरायाः ॥ १.११६.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे नरा युवं युवां पज्रियाय कक्षीवते स्तुवते विद्यार्थिने पुरन्धिमरदतम्। वृष्णोऽश्वस्य कारोतराच्छफात्सुरायाः पूर्णान् शतं कुम्भानसिञ्चतम् ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (युवम्) युवाम् (नरा) नेतारौ विनयं प्राप्तौ (स्तुवते) स्तुतिं कुर्वते (पज्रियाय) पज्रेषु पद्रेषु पदेषु भवाय। अत्र पदधातोरौणादिको रक् वर्णव्यत्ययेन दस्य जः। ततो भवार्थे घः। (कक्षीवते) प्रशस्तशासनयुक्ताय (अरदतम्) सन् मार्गादिकं विज्ञापयताम् (पुरन्धिम्) पुरुं बहुविधां धियम्। पृषोदरादित्वादिष्टसिद्धिः। (कारोतरात्) कारान् व्यवहारान् कुर्वतः। शिल्पिन उ इति वितर्के तरति येन (शफात्) खुरादिव जलसेकस्थानात् (अश्वस्य) तुरङ्गस्येवाग्निगृहस्य (वृष्णः) बलवतः (शतम्) शतसंख्याकान् (कुम्भान्) (असिञ्चतम्) सिञ्चतम् (सुरायाः) अभिषुतस्य रसस्य ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    आप्तावध्यापकौ पुरुषौ यस्मै शमादियुक्ताय सज्जनाय विद्यार्थिने शिल्पकार्याय हस्तक्रियायुक्तां बुद्धिं जनयतः स प्रशस्तः शिल्पी भूत्वा यानानि रचयितुं शक्नोति। शिल्पिनो यस्मिन् याने जलं संसिच्याधोऽग्निं प्रज्वाल्य वाष्पैर्यानानि चालयन्ति तेन तेऽश्वैरिव विद्युदादिभिः पदार्थैः सद्यो देशान्तरं गन्तुं शक्नुयुः ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (नरा) विनय को पाये हुए सभा सेनापति ! (युवम्) तुम दोनों (पज्रियाय) पदों में प्रसिद्ध होनेवाले (कक्षीवते) अच्छी सिखावट को सीखे और (स्तुवते) स्तुति करते हुए विद्यार्थी के लिये (पुरन्धिम्) बहुत प्रकार की बुद्धि और अच्छे मार्ग को (अरदतम्) चिन्ताओं तथा (वृष्णः) बलवान् (अश्वस्य) घोड़े के समान अग्नि संबन्धी कलाघर के (कारोतरात्) जिससे व्यवहारों को करते हुए शिल्पी लोग तर्क के साथ पार होते हैं उस (शफात्) खुर के समान जल सींचने के स्थान से (सुरायाः) सींचे हुए रस से भरे (शतम्) सौ (कुम्भान्) घड़ों को ले (असिञ्चतम्) सींचा करो ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    जो शास्त्रवेत्ता अध्यापक विद्वान् जिस शान्तिपूर्वक इन्द्रियों को विषयों से रोकने आदि गुणों से युक्त सज्जन विद्यार्थी के लिये शिल्पकार्य्य अर्थात् कारीगरी सिखाने को हाथ की चतुराईयुक्त बुद्धि उत्पन्न कराते अर्थात् सिखाते हैं वह प्रशंसायुक्त शिल्पी अर्थात् कारीगर होकर रथ आदि को बना सकता है। शिल्पीजन जिस यान अर्थात् उत्तम विमान आदि रथ में जलघर से जल सींच और नीचे आग जलाकर भाफों से उसे चलाते हैं, उससे वे घोड़े से जैसे वैसे बिजुली आदि पदार्थों से शीघ्र एक देश से दूसरे देश को जा सकते हैं ॥ ७ ॥

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    विषय

    सुरा = ऐश्वर्य सेचन

    पदार्थ

    १. हे नरा - [नॄ नये] उन्नति - पथ पर ले - चलनेवाले प्राणापानो ! (युवम्) = आप (स्तुवते) स्तवन करनेवाले के लिए (पज्रियाय) = [पद् - पज् , द को ज - दया०] गतिशील पुरुष के लिए [पज्रियाः - अङ्गिरसः - अगि गतौ - सा०] (कक्षीवते) = [प्रशस्तशासनयुक्ताय - द० कश - गति शासनयोः] अपनी इन्द्रियों पर उत्तम शासन करनेवाले पुरुष के लिए (पुरन्धिम्) = पालक बुद्धि को (अरदतम्) = उत्तम मार्ग का प्रतिपादन करनेवाली बनाते हो [सन्मार्गादिकं विज्ञापयताम् - द०] । प्राणसाधना से वह शुद्ध बुद्धि प्राप्त होती है जो जीवन में सन्मार्ग का प्रदर्शन करनेवाली होती है । २. हे प्राणापानो ! आप (वृष्णः) = शक्तिशाली (अश्वस्य) = कर्मों में व्याप्त रहनेवाले पुरुष के (कारोतरात्) = [कारान् उत्तरति येन - द०] सब व्यवहारों को निश्चय से पूर्ण करने के साधनभूत (शफात्) = [शफ - root of a tree] शरीर - वृक्ष के मूलभूत - वीर्य से (शतम्) = सौ वर्ष तक (कुम्भान्) = इन शरीरपटों को (सुरायाः) = [सुर ऐश्वर्य] ऐश्वर्य से (असिञ्चतम्) = सिक्त करते हो । हमारा यह शरीर जिन पञ्चकोशों से बना है , वे ही यहाँ कुम्भ हैं । उन पञ्चकोशों को ये प्राणापान ऐश्वर्य से परिपूर्ण करते हैं । इन सब ऐश्वर्यों का बीज वीर्य है । इस वीर्य को ही यहाँ शरीर वृक्ष का मूल होने से शफ शब्द से कहा गया है । इस वीर्य के सुरक्षित होने पर हमारे सब व्यवहार सुचारुरूपेण सम्पन्न होते हैं , अतः यह कारोतर है । इसकी सुरक्षा से हमारे शरीर के सब कोश अपने - अपने ऐश्वर्य से परिपूर्ण बने रहते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान उस मनुष्य को उत्तम बुद्धि प्राप्त कराते हैं जो स्तुतिशील , गतिमय तथा जितेन्द्रिय होता है । प्राणापान वीर्यरक्षा के द्वारा शरीर के सब कोशों को ऐश्वर्य से परिपूर्ण रखते हैं ।

    विशेष / सूचना

    सूचना - यहाँ सुरा का भाव शराब नहीं है ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे (नरा) सन्मार्ग पर ले जाने वाले शिक्षक विद्वान् पुरुषो ! ( युवं ) आप दोनों ( स्तुवते ) यथार्थ विद्याभ्यास करनेवाले, (पज्रियाय) ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग में विद्यमान, (कक्षीवते) अश्व के समान कसे कसाये, सदा कटिबद्ध, या कक्ष में यज्ञोपवीत धारण करने वाले शिष्य जन को ( पुरन्धिम् ) बहुत अधिक ज्ञान धारण करने में समर्थ बुद्धि का ( अरदतम् ) प्रदान करते हो । हे दोनों नायक पुरुषो ! ( अश्वस्य शफात् इव ) घोड़े के खुर के आकार के बने ( वृष्णः ) मेघ के समान जल नीचे बरसाने वाले ( कारोतरात् ) कारोतर अर्थात् छनने से ( सुरायाः ) जल के समान सुख शान्ति और आनन्द देनेवाली विद्या रूप रस के ( शतं कुम्भान् ) सैकड़ों कलसे ( असिञ्चतम् ) सेचन करो, अर्थात् उसे विद्यास्नातक और व्रतस्नातक करो । ब्रह्मचर्यपूर्वक नियम से शिक्षा प्राप्त करने वाले गुरुजन बहुत ज्ञान दें और बाद में सहस्र-धारा-स्नान के लिये अश्व के खुराकार छनने से जल के शतघटों से राज्याभिषेक के समान अभिषेक कराकर विद्यास्नातक और व्रतस्नातक बनावें । (२) यद्वा—( वृष्णः अश्वस्य शफात् ) वर्षणशील, व्यापनशील मेघ के समान ज्ञान का वर्षण करनेवाले, विद्या में पारंगत आचार्य का उपदेश रूप ( कारोतरात् ) बड़े भारी शुद्ध ज्ञान और आचार शिक्षा को छान पवित्र कर देने वाला छनना है, उससे ( सुरायाः ) सुख और आनन्द के देनेवाली शिक्षा के मानो सैकड़ों कुम्भों से उसका स्नान करावें । राजा के पक्ष में—(मरा) दो वीर सेना और सभा के नायक (पज्रिया) वेग से शत्रु पर आक्रमण करने वाले अथवा (पज्रिया) उच्च पद प्राप्त होने योग्य अधिकार के योग्य (कक्षीवते) बगल में पेटी आदि वस्त्र धारण करने वाले, राज्यरक्षा के लिये सन्नद्ध पुरुष को ( पुरन्धिम् अरदतम् ) नगर को धारण करने, उस पर शासन करने का सामर्थ्य और अधिकार प्रदान करें। और उस पर ( वृष्णः अश्वस्य शफात् कारोतरात् ) बलवान् अश्व के खुर के आकार वाले छानने से ( सुरायाः शतं कुम्भान् ) जल के सैकड़ों कलसों से ( असिञ्चतम् ) राज्य-अभिषेक करें । अश्व के खुर के आकार का छनना बनाने का अभिप्राय केवल बलवान् अश्वारोही सेना के बल पर राज्यलक्ष्मी प्राप्त कराना है । ‘सुरा’ अर्थात् जलधारा सुख से रमण करने योग्य राज्यलक्ष्मी का प्रतिनिधि है । ( ३ ) अध्यात्म में—प्राण और अपान दोनों कक्षीवान् नामक मुख्य प्राण को देह रूप पुर के धारण पोषण का बल प्रदान करते हैं। वह सदा गतिशील होने से ‘पज्रिय’ है। देह में हृदय और फुफ्फुसों का जोड़ा अश्वके खुरों के आकार का होने से वही रक्त शोधक छनना है उससे सुरा उत्तम जीवन प्रद रस-धारा रक्त के सहस्रों, कुम्भ अर्थात् कोष्ठ या सैलौं से सेचित किये जाते हैं। अधिदैवत पक्ष में—(४) आकाश पृथिवी दोनों अश्वी हैं। वे दोनों ( पज्रियाय ) प्रकाशमय किरणों से युक्त आकाश में गति करनेवाले सूर्य को ब्रह्माण्ड पालन का सामर्थ्य देते हैं। (वृष्णः अश्वस्य) वर्षणशील मेघ के ( शफात् ) संघ से जल के सैकड़ों घड़े मानो छलनी से सहस्त्र धारा के रूप में बरसाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे शास्त्रवेत्ते, अध्यापक, विद्वान ज्या शांतीने इंद्रियांना विषयापासून रोखणाऱ्या गुणांनी युक्त सज्जन विद्यार्थ्यांसाठी शिल्पकार्य अर्थात कारागिरी शिकवीत हस्तक्रियाकौशल्याची बुद्धी उत्पन्न करवितात अर्थात शिकवितात ते प्रशंसायुक्त शिल्पी अर्थात कारागीर रथ इत्यादी बनवू शकतात. शिल्पी (कारागीर) ज्या यान अर्थात उत्तम विमान इत्यादी रथात जलघरातून जल सिंचन करून खाली अग्नी पेटवून वाफेवर चालवितात त्याद्वारे ते घोड्याप्रमाणे विद्युत इत्यादी पदार्थांद्वारे तात्काळ एका देशातून दुसऱ्या देशात जाऊ शकतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, leading teacher and scholar of herbal science, you reward the faithful disciple of pious discipline ever ready in harness with exceptional knowledge and insight into the science and technology of restorative nectar by which you can fill a hundred jars of drink from one horse-hoof measure of virile essence distilled through the filter.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned leaders, President of the Assembly and commanders of the army, you give to a student who is an enquirer after truth a devotee of God and obedient and disciplined much and various knowledge and power of action. You give him good guidance of the path of wisdom. From the mighty room of fire which is like a horse, you fill hundreds of jars of the distilled juice from the place of the sprinkling of water, which is like the hoof of the horse and which pleases active artisans.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (कक्षीवते) प्रशस्तशासनयुक्ताय = Obedient who gets and obeys good orders. (कारोतरात्) कारान व्यवहारान् कुर्वतः शिल्पिन: उवितर्के तरति येन = From which a man pleases active or industrious artisans. (शफात्) खुरात् इव जलसेकस्थानात् = From the place of sprinkling which is like a hoof. (अश्वस्य ) तुरंगस्येव अग्निगृहस्य = Of the room of fire which is like a horse. (सुराया:) अभिषुतस्य रसस्य = Of the distilled juice.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A student who is endowed with peaceful disposition, humility, self-control and other virtues is able to manufacture various conveyances, having become a great artisan or expert in various arts and industries, who is trained by absolutely truthful instructors as for both in the theory and and practice of arts. When artisans manufacture vehicles, sprinkle water, kindle the fire below and move the cars with steam etc., they are able to travel to distant lands by the use of electricity etc. which are like horses.

    Translator's Notes

    सुरा इत्युदकनाम (नि०१.१२) = Water or juice.

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