ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 15
च॒रित्रं॒ हि वेरि॒वाच्छे॑दि प॒र्णमा॒जा खे॒लस्य॒ परि॑तक्म्यायाम्। स॒द्यो जङ्घा॒माय॑सीं वि॒श्पला॑यै॒ धने॑ हि॒ते सर्त॑वे॒ प्रत्य॑धत्तम् ॥
स्वर सहित पद पाठच॒रित्र॑म् । हि । वेःऽइ॑व । अच्छे॑दि । प॒र्णम् । आ॒जा । खे॒लस्य॑ । परि॑ऽतक्म्यायाम् । स॒द्यः । जङ्घा॑म् । आय॑सीम् । वि॒श्पला॑यै । धने॑ । हि॒ते । सर्त॑वे । प्रति॑ । अ॒ध॒त्त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
चरित्रं हि वेरिवाच्छेदि पर्णमाजा खेलस्य परितक्म्यायाम्। सद्यो जङ्घामायसीं विश्पलायै धने हिते सर्तवे प्रत्यधत्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठचरित्रम्। हि। वेःऽइव। अच्छेदि। पर्णम्। आजा। खेलस्य। परिऽतक्म्यायाम्। सद्यः। जङ्घाम्। आयसीम्। विश्पलायै। धने। हिते। सर्तवे। प्रति। अधत्तम् ॥ १.११६.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 15
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अश्विनौ युवाभ्यामाजा परितक्म्यायां खेलस्य चरित्रं वेरिव पर्णं सद्योऽच्छेदि। हिते धने विश्पलायै आयसीं जङ्घां सर्तवे हि प्रत्यधत्तम् ॥ १५ ॥
पदार्थः
(चरित्रम्) शत्रुशीलम् (हि) प्रसिद्धौ (वेरिव) उड्डीयमानस्य पक्षिण इव (अच्छेदि) छिद्येत (पर्णम्) पक्षम् (आजा) संग्रामे (खेलस्य) खण्डस्य (परितक्म्यायाम्) रात्रौ। परितक्म्या रात्रिः परित एनां तक्म। तक्मेत्युष्णनाम तकत इति सतः। निरु० ११। २५। (सद्यः) शीघ्रम् (जङ्घाम्) हन्ति यया ताम् (आयसीम्) अयोविकाराम् (विश्पलायै) विशां प्रजानां पलायै सुखप्रापिकायै नीत्यै (धने) सुवर्णरत्नादौ (हिते) सुखवर्धके (सर्त्तवे) सर्त्तुं गन्तुम् (प्रति) प्रत्यक्षे (अधत्तम्) भरतम् ॥ १५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। भद्रैः प्रजापालनतत्परै राजादिजनैः पक्षिणः पक्षाविव दुष्टचरित्रं युद्धे छेत्तव्यम्। शस्त्रास्त्राणि धृत्वा प्रजाः पालनीयाः। कुतो यः प्रजायाः करो गृह्यते तस्य प्रत्युपकारो रक्षणमेव वेद्यम् ॥ १५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे सभा सेनाधिपति ! तुम दोनों से (आजा) संग्राम में (परितक्म्यायाम्) रात्रि में (खेलस्य) शत्रु के खण्ड का (चरित्रम्) स्वाभाविक चरित्र अर्थात् शत्रुजनों की अलग-अलग बनी हुई टोली-टोली की चालकियाँ (वेरिव) उड़ते हुए पक्षी का जैसे (पर्णम्) पंख काटा जाय वैसे (सद्यः) शीघ्र (अच्छेदि) छिन्न-भिन्न की जायं तथा तुम (हिते) सुख बढ़ानेवाले (धने) सुवर्ण आदि धन के निमित्त (विश्पलायै) प्रजाजनों को सुख पहुँचानेवाली नीति के लिये (आयसीम्) लोहे के विकार से बनी हुई (जङ्घाम्) जिससे कि मारते हैं उसकी खाल को (सर्त्तवे) शत्रुओं पर जाने अर्थात् चढ़ाई करने के लिये (हि) ही (प्रत्यधत्तम्) प्रत्यक्ष धारण करो ॥ १५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। प्रजाजनों की पालना करने में अत्यन्त चित्त दिये हुए भद्र राजा आदि जनों को चाहिये कि पखेरू के पंखों के समान दुष्टों के चरित्र को युद्ध में छिन्न-भिन्न करें। शस्त्र और अस्त्रों को धारण कर प्रजाजनों की पालना करें। क्योंकि जो प्रजाजनों से कर लिया जाता है, उसका बदला देना उन प्रजाजनों की रक्षा करना ही समझना चाहिये ॥ १५ ॥
विषय
आयसी जंघा का आधान
पदार्थ
१. जिस समय मनुष्य विवेकपूर्वक नहीं चलता उस समय संसार की मौज - मस्ती में फंस जाता है । ऐसा व्यक्ति ‘खेल’ है । यह खेल विषयासक्त हो चरित्रभ्रष्ट हो जाता है । (आजा) = इस संसार - संग्राम में (परितक्म्यायाम्) = अज्ञान - अन्धकारवाली रात्रि में (खेलस्य) = विषयों में खेलने , रमण करनेवाले पुरुष का (चरित्रम्) = चरित्र (हि) = निश्चय से (अच्छेदि) = इस प्रकार छिन्न हो जाता है (इव) = जैसे (वेः) = पक्षी का (पर्णम्) = पंख कट जाता है । पंख कट जाने से पक्षी का आकाश में उड़ना सम्भव नहीं रहता । इसी प्रकार चरित्रभ्रंश से व्यक्ति के उत्थान का प्रश्न ही नहीं उठता । अज्ञान , मनुष्य की रुचि को विषय - प्रवण कर देता है । इस व्यक्ति के कार्य अपने वैषयिक सुखों की वृद्धि के लिए होते हैं । २. प्राणसाधना से बुद्धि निर्मल बनती है , अतः विषयों के दोषों को देखकर यह व्यक्ति उधर से निवृत्त होता है । इसकी क्रियाएँ अब लोकहित के दृष्टिकोण से होती हैं । अब यह ‘खेल’ न रहकर ‘विश्पला’ - [पल-to move] लोकहित के लिए गतिवाला हो जाता है । इसका चरित्र बड़ा दृढ़ हो जाता है । इस प्रकार हे अश्विनीदेवो ! आप (विश्पलायै) = प्रजाहित के लिए गति करनेवाले इस व्यक्ति के लिए (सद्यः) = शीघ्र (आयसीं जङ्घाम्) = लोहे की टाँग को , अर्थात् दृढ़ चरित्र को (प्रत्यधत्तम्) = प्रतिदिन धारण कराते हो जिससे वह (हिते , धने) = हितकर धन के निमित्त (सर्तवे) = गति के लिए होता है । यह पुरुषार्थ से ही धन कमाता है और उस धन को लोकहित के दृष्टिकोण से विनियुक्त करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से ज्ञान बढ़ता है । यह ज्ञान हमें विषयों में रुचिवाले खेल से लोकहित के लिए गतिवाला ‘विश्पला’ बना देता है ।
विषय
विश्पला की लोहे की जांघ का रहस्य ।
भावार्थ
( परितक्म्यायाम् ) रात्रि में, या अन्धकारमयी अज्ञान दशा में, संकटावस्था में ( खेलस्य ) भोग विलास की क्रीड़ा करने वाले राजा का ( चरित्रम् ) शील और और चरित्र या आगे बढ़ने वाला कदम ( वेः इव पर्णम् ) पक्षी के पंख के समान ( अच्छेदि ) कट जाता है। उस समय हे विद्वान् पुरुषो ! आप दोनों ( विश्पलायै ) प्रजावर्ग की पालन करने वाली नीति की रक्षा के लिये, ( धने हिते ) ऐश्वर्य प्राप्ति और प्रजाहित के निमित्त और ( सर्त्तवे ) आगे बढ़ने के लिये ( सद्यः ) शीघ्र ही ( आयसी जंघाम् ) लोहे की बनी, शत्रु को मारने वाली सशस्त्र सेना को, गाड़ी में लगे लोहे के पहिये के समान ( प्रति अधत्तम् ) संयोजित करो । इति दशमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. प्रजेचे पालन मनापासून करणाऱ्या कल्याणकारी राजाने पक्ष्याच्या पंखांप्रमाणे दुष्टांना युद्धात छिन्नभिन्न करून टाकावे. शस्त्रास्त्रे धारण करून प्रजेचे पालन करावे. कारण प्रजेकडून जो कर घेतला जातो त्याचा मोबदला म्हणून प्रजेचे रक्षण करावे, असे समजले पाहिजे. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, when the battle is raging for the defence and sustenance of the people but the issue is wavering in the night of uncertainty, you instantly take to the armour of steel for advance, strike and break down the enemy’s force as you cut off the wing of a bird.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of Assembly and Commander of the Army, you immediately cut off the evil character or mischief of the army of the enemies in the battle at night like the wing of a bird. Then you give the strong army (made of iron-so to say) for the protection or preservation of the beneficial wealth and for carrying on the policy that protects the people.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(चरित्रम् ) शत्रुशीलम् = The evil character or mischief of the enemies. (परितम्यायाम्) रात्रौ परितक्याः रात्रिः परितः एनां तक्मे | तक्मेत्युष्णनाम तकत इति सतः (नि० ११.२५ ) = Army that kills the wicked. (जङ्घाम्) हन्ति यया ताम् = For the policy that protects the people. (खेलस्य) शत्रुखंडस्य = Of the unit of the army of the foes.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the noble king and the officers of the State who are engaged in bringing about the welfare of the subjects, to cut off in battle the evil character or mischief of the wicked, like the wing of a bird. The subjects should be protected well, for, protection is the recompense of the revenue received from the people.
Translator's Notes
While Sayanacharya, Prof. Wilson and others take in as a reference to the cutting off the foot of a queen named Vishpala the wife of Khela, and to the giving of an iron leg by Ashvins, Shri Kapali Shastri has tried to explain it spiritually in the words like अन्न पादच्छेदः दिव्याध्वनि गच्छन्त्या गतिमंगम् असुरकृत लक्ष्ययति । तथा रात्रिः अन्यैरलक्षित एव कृतः अश्विनोऽनुग्रहः इति द्योतययति आयसी जंघाम् । इति गमन बलवीर्य द्योतनाय विश्वला - विशां पालयित्रीति-स एव । This spiritual interpretation is certainly better than that of Sayanacharya and his followers.
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