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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 116 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 18
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यदया॑तं॒ दिवो॑दासाय व॒र्तिर्भ॒रद्वा॑जायाश्विना॒ हय॑न्ता। रे॒वदु॑वाह सच॒नो रथो॑ वां वृष॒भश्च॑ शिंशु॒मार॑श्च यु॒क्ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अया॑तम् । दिवः॑ऽदासाय । व॒र्तिः । भ॒रत्ऽवा॑जाय । अ॒श्वि॒ना॒ । हय॑न्ता । रे॒वत् । उ॒वा॒ह॒ । स॒च॒नः । रथः॑ । वा॒म् । वृ॒ष॒भः । च॒ । शिं॒शु॒मारः॑ । च॒ । यु॒क्ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदयातं दिवोदासाय वर्तिर्भरद्वाजायाश्विना हयन्ता। रेवदुवाह सचनो रथो वां वृषभश्च शिंशुमारश्च युक्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। अयातम्। दिवःऽदासाय। वर्तिः। भरत्ऽवाजाय। अश्विना। हयन्ता। रेवत्। उवाह। सचनः। रथः। वाम्। वृषभः। च। शिंशुमारः। च। युक्ता ॥ १.११६.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 18
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे हयन्ता युक्ताश्विना सभासेनाधीशौ युवां दिवोदासाय भरद्वाजाय यद्वर्त्तीरेवदयातं प्राप्नुतम्। यञ्च वां युवयोर्वृषभः शिंशमारः सचनो रथ उवाह तं तच्च सततं सरक्षतम् ॥ १८ ॥

    पदार्थः

    (यत्) (अयातम्) प्राप्नुतम् (दिवोदासाय) न्यायविद्याप्रकाशस्य दात्रे (वर्त्तिः) वर्त्तमानम् (भरद्वाजाय) भरन्तः पुष्यन्तः पुष्टिमन्तो वाजा वेगवन्तो योद्धारो यस्य तस्मै (अश्विना) शत्रुसेनाव्यापिनौ (हयन्ता) गच्छन्तौ (रेवत्) बहुधनयुक्तम् (उवाह) वहति (सचनः) सर्वैः सेनाङ्गैः स्वाङ्गैश्च समवेतः (रथः) रमणीयः (वाम्) युवयोः (वृषभः) विजयवर्षकः (च) दृढः (शिंशुमारः) शिंशून् धर्मोल्लङ्घिनः शत्रून् मारयति येन सः (च) तत्सहायकान् (युक्ता) कृतयोगाभ्यासौ ॥ १८ ॥

    भावार्थः

    राजादिभिः राजपुरुषैः सर्वा स्वसामग्री न्यायेन राज्यपालनायैव विधेया ॥ १८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (हयन्ता) चलने (युक्ता) योगाभ्यास करने और (अश्विना) शत्रुसेना में व्याप्त होनेवाले सभा सेना के पतियो ! तुम दोनों (दिवोदासाय) न्याय और विद्या प्रकाश के देनेवाले (भरद्वाजाय) जिसके कि पुष्ट होते हुए पुष्टिमान् वेगवाले योद्धा हैं उसके लिये (यत्) जिस (वर्त्तिः) वर्त्तमान (रेवत्) अत्यन्त धनयुक्त गृह आदि वस्तु को (अयाताम्) प्राप्त होओ (च) और जो (वाम्) तुम दोनों का (वृषभः) विजय की वर्षा करानेहारा (शिंशुमारः) जिससे धर्म को उल्लङ्घ के चलानेहारों का विनाश करता है जो कि (सचनः) समस्त अपने सेनाङ्गों से युक्त (रथः) मनोहर विमानादि रथ तुम लोगों को चाहे हुए स्थान में (उवाह) पहुँचाता है, उसकी (च) तथा उक्त गृह आदि की रक्षा करो ॥ १८ ॥

    भावार्थ

    राजा आदि राजपुरुषों को समस्त अपनी सामग्री न्याय से राज्य की पालना करने ही के लिये बनानी चाहिये ॥ १८ ॥

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    विषय

    दिवोदास भरद्वाज [शिंशुमार वृषभः]

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (हयन्ता) = [ह्य् to go] रेचक व पूरक के रूप में गति करते हुए आप (यत्) = जब (दिवोदासाय) = ज्ञान के भक्त के लिए तथा (भरद्वाजाय) = अपने में शक्ति भरनेवाले के लिए (वर्तिः) = उसके शरीर - गृह में (अयातम्) = प्राप्त होते हो , तब (वां सचनः) = आप दोनों का सेवन करनेवाला (रथः) = यह रथ (रेवत्) = धनयुक्त होकर (उवाह) = दिवोदास व भरद्वाज को लक्ष्यस्थान पर पहुंचाता है । जिस समय प्राणसाधना चलती है उस समय शरीर में शक्ति की ऊर्ध्वगति होकर यह व्यक्ति भरद्वाज तो बनता ही है , बुद्धि की सूक्ष्मता से ज्ञान का प्रकाश भी बढ़ता है और यह दिवोदास बनता है । इसे जहाँ इस संसार - यात्रा की पूर्ति के लिए धनार्जन की क्षमता प्राप्त होती है , वहाँ यह उस धन में न उलझा हुआ लक्ष्यस्थान पर भी अवश्य पहुँचता है । २. इस रथ में (वृषभः च) = वृषभ और (शिशुंमारः) = शिंशुमार (युक्ता) = जुते हुए है । सामान्य भाषा में वृषभ बैल है और शिंशमार मगरमच्छ है । इनके रथ में जुते हुए होने का भाव तो स्पष्ट उपहासास्पद है । वस्तुतः वृषभ शक्ति का संकेत करता है और शिशुमार [श्यति तनूकरोति धर्मम्] धर्मनाशक पापवृत्ति को मारनेवाला है । अश्विनीदेवों के रथ में वृषभ और शिंशुमार की नियुक्ति का भाव यही है कि प्राणसाधना होने पर शरीर शक्ति - सम्पन्न [भरद्वाज] बनता है और बुद्धि की सूक्ष्मता के कारण ज्ञान की वृद्धि होकर पापों का नाशक [दिवोदास] होता है । ज्ञान ही वस्तुतः शिंशुमार है , शक्ति ही वृषभ है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना हमारे जीवन को इस प्रकार उन्नत करती है कि हम ज्ञान के भक्त व शक्ति को अपने में भरनेवाले भरद्वाज एवं दिवोदास होते हैं ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) अश्व सेना के स्वामी दो मुख्य सेनापति और सैन्यवर्गो ! आप दोनों ( यद् ) जब ( दिवोदासाय ) युद्ध की कामना करने और शत्रु के नाश करने वाले के लिये और ( भरद्वाजाय ) पुष्ट और वेगवान् योद्धाओं के स्वामी के लिये ( हयन्ता ) वेग से जाते हुए ( रेवत् ) ऐश्वर्य से युक्त ( वर्त्तिः ) गृह या व्यवहार पद को प्राप्त होते हो तब ( वां ) तुम दोनों को ( सचनः ) परस्पर आश्रित ( रथः ) रथ ( वृषभ: ) मेघ के समान समस्त सुखों का वर्षण करने वाला और ( शिंशुमारः च ) दुःष्ट शत्रुओं का नाश करने वाला होकर ( युक्ता वां ) परस्पर संयुक्त हुए आप दोनों को ( उवाह ) धारण करता है । ( २ ) हे वर वधू गृहस्थ जनो ! तुम दोनों ( हयन्ता ) समान रूप से जाते हुए ज्ञान प्रकाश के देने वाले विद्वान् और अन्नादि से भरण पोषण करने वाले माता पिता के हित के लिये ( रेवत्-वर्त्तिः ) धन धान्य, सम्पन्न गृह को प्राप्त होते हो तब (सचनः) एक दूसरे के सब अंगों से पूर्ण, गृहस्थ रूप रमण का साधन, रथ ( युक्ता वां ) एक दूसरे से विवाह बंधन में बंधे हुए आप दोनों को ( उवाह ) धारण करे। वह गृहस्थ रूप रथ वृषभः सुखों का वर्षक और ( शिंशुमारः च ) दुखों का नाशक हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा इत्यादी राजपुरुषांनी आपल्या संपूर्ण साधनांनी न्यायपूर्वक राज्याचे पालन करावे. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, generous givers and protectors, ever on the move, when you come to the house of Divodasa, the giver of light and knowledge, and to Bharadvaja, bearer and giver of food, energy and the fighting force, let the chariot that transports you be delightful, laden with wealth, powerfully equipped, victorious and killer of the enemy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O active President of the Assembly and Commander of the Army who practice Yoga (concentration of mind and self-control) what wealth with house and other things you give to a man who is the giver of the light of justice and knowledge and whose soldiers are mighty and strong and your charming chariot that destroys the wicked going away from the path of Dharma (righteousness and duty) and which is endowed with all the parts of the Army and therefore showerer of victory protect them well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (दिवोदासाय) न्यायविद्याप्रकाशस्य दात्रे = For the giver of justice and knowledge. (भरद्वाजाय) भरन्त: पुष्यन्तः पुष्टिमन्तो वाजा: वेगवन्तो योद्धारो यस्य तस्मै = For the person whose soldiers are mighty, strong and quick moving. (वृषभ:) विजयवर्षक: = The showerer of victory.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the King and officers of the State to use all that they have, for the protection and preservation of their kingdom with justice.

    Translator's Notes

    The word दिवोदास is derived from two roots दिवु - क्रीडा विजिगीषा व्यवहार घृतिस्तुति मोदमदस्वप्नकान्ति गतिषु here the meaning of द्युति or light has been taken particularly the light of justice and knowledge दासृ-दाने | Therefore the meaning given above by Rishi Dayananda Sarasvati is on the basis of the roots from which the word is derived. It is certainly wrong on the part of Shri Sayanacharya, Prof. Wilson and others taking Devadas and Bharadwaja as the name of a particular historical person as it is opposed to the fundamental principle of the Vedic Terminology.

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