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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 116 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 21
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    एक॑स्या॒ वस्तो॑रावतं॒ रणा॑य॒ वश॑मश्विना स॒नये॑ स॒हस्रा॑। निर॑हतं दु॒च्छुना॒ इन्द्र॑वन्ता पृथु॒श्रव॑सो वृषणा॒वरा॑तीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑स्याः । वस्तोः॑ । आ॒व॒त॒म् । रणा॑य । वश॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । स॒नये॑ । स॒हस्रा॑ । निः । अ॒ह॒त॒म् । दु॒च्छुनाः॑ । इन्द्र॑ऽवन्ता । पृ॒थु॒ऽश्रव॑सः । वृ॒ष॒णौ॒ । अरा॑तीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकस्या वस्तोरावतं रणाय वशमश्विना सनये सहस्रा। निरहतं दुच्छुना इन्द्रवन्ता पृथुश्रवसो वृषणावरातीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकस्याः। वस्तोः। आवतम्। रणाय। वशम्। अश्विना। सनये। सहस्रा। निः। अहतम्। दुच्छुनाः। इन्द्रऽवन्ता। पृथुऽश्रवसः। वृषणौ। अरातीः ॥ १.११६.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 21
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे वृषणाविन्द्रवन्ताश्विना सभासेनेशौ दुच्छुना यथा तमो मेघांश्च सूर्य्यो जयति तथैकस्याः सेनाया रणाय प्रेषणेन वस्तोर्दिनस्य मध्ये स्वसेनामावतं वशं सहस्रा सनये पृथुश्रवसोऽरातीः शत्रुसेना निरहतम् ॥ २१ ॥

    पदार्थः

    (एकस्याः) सेनायाः (वस्तोः) दिनस्य मध्ये (आवतम्) विजयं कामयतम् (रणाय) संग्रामाय (वशम्) स्वाधीनताम् (अश्विना) सूर्य्याचन्द्रमसाविव सभासेनेशौ (सनये) राज्यसेवनाय (सहस्रा) असंख्यातानि धनादिवस्तूनि (निः) नितराम् (अहतम्) हन्यातम् (दुच्छुनाः) दुर्गतं शुनं सुखं याभ्यस्ताः। अत्र वर्णव्यत्ययेन सस्य तः। शुनमिति सुखना०। निघं० ३। ६। (इन्द्रवन्ता) बह्वैश्वर्ययुक्तौ (पृथश्रवसः) पृथूनि विस्तृतानि श्रवांस्यन्नानि यासां ताः (वृषणौ) शस्त्रास्त्रवर्षयितारौ बलवन्तौ (अरातीः) सुखदानरहिताः शत्रुसेनाः ॥ २१ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्याचन्द्रमसोरुदयेन तमो निवृत्य सर्वे प्राणिन आनन्दन्ति तथा धर्मव्यवहारेण शत्रूणामधर्मस्य च निवृत्त्या धार्मिकाः सुराज्ये सुखयन्ति ॥ २१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वृषणौ) शस्त्र-अस्त्र की वर्षा करनेवाले (इन्द्रवन्ता) बहुत ऐश्वर्ययुक्त (अश्विना) सूर्य्य और चन्द्रमा के तुल्य सभा और सेना के अधीशो ! (दुच्छुनाः) जिससे सुख निकल गया उन शत्रु सेनाओं को जैसे अन्धकार और मेघों को सूर्य्य जीतता है, वैसे (एकस्याः) एक सेना के (रणाय) संग्राम के लिये जो पठाना है, उससे (वस्तोः) एक दिन के बीच (आवतम्) अपनी सेना के विजय को चाहो और उन सेनाओं को अपने (वशम्) वश में लाकर (सहस्रा) (सनये) हजारों धनादि पदार्थों को भोगने के लिये (पृथुश्रवसः) जिनके बहुत अन्न आदि पदार्थ हैं और (अरातीः) जो किसी को सुख नहीं देतीं, उन शत्रुसेनाओं को (निरहतम्) निरन्तर मारो ॥ २१ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य और चन्द्रमा के उदय से अन्धकार की निवृत्ति होकर सब प्राणी सुखी होते हैं, वैसे धर्मरूपी व्यवहार से शत्रुओं और अधर्म की निवृत्ति होने से धर्मात्मा जन अच्छे राज्य में सुखी होते हैं ॥ २१ ॥

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    विषय

    प्रभुस्मरणयुक्त प्राणायाम

    पदार्थ

    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (वशम्) = आपकी साधना के द्वारा इन्द्रियों को वश में करनेवाले को (एकस्याः वस्तोः) = एक - एक दिन (रणाय) = काम - क्रोधादि शत्रुओं से संग्राम के लिए (आवतम्) = रक्षित करते हो । काम - क्रोधादि के साथ चलनेवाले युद्ध में इस वश के ये प्राणापान ही मुख्य अस्त्र बनते हैं । इनके द्वारा ही यह इन्हें पराजित कर पाता है । २. हे प्राणापानो ! आप ही इस वश के (सहस्रा सनये) = सहस्त्र संख्याक धनों की प्राप्ति के लिए होते हो । काम क्रोधादि का विजय करके यह उत्कृष्ट धनों का विजेता बनता है । ३. हे (वृषणौ) = धनों व सुखों की वर्षा करनेवाले प्राणापानो ! आप (इन्द्रवन्ता) = प्रभुवाले होकर , अर्थात् आपकी साधना के साथ प्रभुस्मरण के चलने पर (पृथुश्रवसः) = विस्तृत ज्ञानवाले इस पुरुष के (दुच्छुना) = [दुः खकर्तन सा०] दुःख के कारणभूत (अरातीः) = शत्रुओं को [काम , क्रोध , लोभ , मोह व मत्सररूप शत्रुओं को] (निरहतम्) = निश्चय से नष्ट करते हो । जब प्राणायाम के साथ प्रभुनाम का जप चलता है तब कामादि सब शत्रुओं का नाश हो जाता है । इन शत्रुओं के नाश से हमारा ज्ञान विस्तृत होता है , हम ‘पृथु श्रवस’ बनते हैं । कामादि शत्रु ही हमारे सब दुःखों का कारण थे । इनके नष्ट होने पर दुःखों का भी अन्त हो जाता है । हम शतशः ऐश्वर्यों को प्राप्त करनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुस्मरण से युक्त प्राणायाम हमें विजयी बनाता है , ऐश्वर्य का लाभ कराता है और दुःख के कारणभूत शत्रुओं का नाश करता है ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    ( अश्विना ) हे शीघ्र तर जानेवाले सैन्य के प्रमुख नायको ! दोनों तुम ( सहस्रा सनये ) हज़ारों सुखों के देने वाले ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये ( एकस्याः वस्तोः ) एक एक दिन के (रणाय) युद्ध के लिये ( वशम् आ अवतम् ) वशकारी, सर्व नियामक और जितेन्द्रिय पुरुष को सुरक्षित रक्खो । ( इन्द्रवन्तौ ) ऐश्वर्यवान् राजा के बल से बढ़ कर ( वृषणा ) अस्त्रों की शत्रुओं पर वर्षा करते हुए ( दुच्छुनाः ) दुःखदायी, सुख के नाशक, ( पृथुश्रवसः ) विशाल ऐश्वर्यवाली ( अरातीः ) अदानशील शत्रु सेनाओं को ( निर् अहतम् ) अच्छी प्रकार नाश करो । ( २ ) स्त्री पुरुष सहस्रों सुखों के भोगने और एक दिन के भी ( रणाय ) रमण करने के लिये ( वशम् आवतम् ) वश अर्थात् इन्द्रिय संयम का पालन करें । बलवान् होकर ( पृथुश्रवसः ) अति ज्ञान धन वाले ( दुच्छुना: ) दुष्ट सुखों के नाशक ( अरातीः ) सुख न देने वाली दुश्चेष्टाओं को परे मार भगावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्य व चंद्राच्या उदयाने अंधार नष्ट होतो व सर्व प्राणी सुखी होतात तसे धर्मरूपी व्यवहाराने शत्रू व अधर्माची निवृत्ती होऊन धर्मात्मा लोक चांगल्या राज्यात सुखी होतात. ॥ २१ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, brilliant as sun and moon, forceful as lightning and thunder, generous as showers of rain, leaders of the land and commanders of the army, protect and promote the freedom of the land for a hundred gifts and acquisitions of peace and happiness. Protect and develop the army for battle for the sake of freedom and advancement. And in a single day rout the destructive force of the frustrative enemy even if it be of commanding fame in the world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wealthy President of the Assembly and Commander of the Army, who are benevolent like the sun and the moon, who are mighty showers of powerful arms, as the sun conquers darkness and clouds, in the same manner, protect your army by sending it in day time to fight your adversaries and desire that it should conquer them. For the enjoyment of Kingdom, overcome and bring under your control the army of the wicked foes, who cause you suffering and not happiness and possess much grain.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [अश्विना] सूर्याचन्द्रमसाविव सभासेनेशौ = The President of the Assembly and commander of Army who are benevolent like the sun and the moon. [दुच्छुना:] दुर्गतं शुनं सुखं याभ्यस्ताः । अत्र वर्णव्यत्ययेन सस्य तः । शुनमिति सुखनाम [निघo ३. ६ ] = Causing misery, devoid of happiness.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As by the rise of the sun and the moon, all living beings get delighted, in the same manner, all righteous persons enjoy happiness in good State, by righteous dealing and by the removal of the enemies and unrighteousness.

    Translator's Notes

    About Ashvinau it is stated in the Nirukta Chapter VI. तत् काविश्वनौ ? द्यावापृथिव्यावित्येके । अहोरात्रावित्येके सूर्याचन्द्रमसावित्येके | [ निरुक्ते ६. १ ] । So by the analogy of the Sun and Moon, the meaning of the President of the Assembly and Commander of the Army has been taken.

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