ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 23
अ॒व॒स्य॒ते स्तु॑व॒ते कृ॑ष्णि॒याय॑ ऋजूय॒ते ना॑सत्या॒ शची॑भिः। प॒शुं न न॒ष्टमि॑व॒ दर्श॑नाय विष्णा॒प्वं॑ ददथु॒र्विश्व॑काय ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒व॒स्य॒ते । स्तु॒व॒ते । कृ॒ष्णि॒याय॑ । ऋ॒जु॒ऽय॒ते । ना॒स॒त्या॒ । शची॑भिः । प॒शुम् । न । न॒ष्टम्ऽइ॑व । दर्श॑नाय । वि॒ष्णा॒प्व॑म् । द॒द॒थुः॒ । विश्व॑काय ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवस्यते स्तुवते कृष्णियाय ऋजूयते नासत्या शचीभिः। पशुं न नष्टमिव दर्शनाय विष्णाप्वं ददथुर्विश्वकाय ॥
स्वर रहित पद पाठअवस्यते। स्तुवते। कृष्णियाय। ऋजुऽयते। नासत्या। शचीभिः। पशुम्। न। नष्टम्ऽइव। दर्शनाय। विष्णाप्वम्। ददथुः। विश्वकाय ॥ १.११६.२३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 23
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाध्यापकोपदेशकौ किं कुर्यातामित्याह ।
अन्वयः
हे नासत्योपदेशकाध्यापकौ युवां शचीभिरवस्यते स्तुवत ऋजूयते कृष्णियाय विश्वकाय दर्शनाय पशुं न नष्टमिव विष्णाप्वं ददथुः ॥ २३ ॥
पदार्थः
(अवस्यते) आत्मनोऽवो रक्षणादिकमिच्छते (स्तुवते) धर्मं श्लाघमानाय (कृष्णियाय) कृष्णमाकर्षणमर्हाय। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति घः। (ऋजूयते) ऋजुरिवाचरति तस्मै (नासत्या) असत्यत्यागेन सत्यग्राहिणौ (शचीभिः) सुशिक्षिकाभिर्वाग्भिः (पशुम्) (न) इव (नष्टमिव) यथाऽदर्शनं प्राप्तं वस्तु (दर्शनाय) प्रेक्षमाणाय (विष्णाप्वम्) विष्णान् विद्याव्यापिनो विदुष आप्नोति बोधस्तम्। अत्र विष्लृधातोर्नक् तत अप्लृधातो रू। वा छन्दसीति पूर्वसवर्णप्रतिषेधाद्यण्। (ददथुः) दद्यातम् (विश्वकाय) विश्वस्याऽनुकम्पकाय ॥ २३ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारौ। आप्ता उपदेशकाध्यापका जना यथा प्रत्यक्षं गवादिकमदृष्टं वस्तु वा दर्शयित्वा साक्षात्कारयन्ति तथा शमादिगुणान्वितेभ्यो धीमद्भ्यः श्रोतृभ्योऽध्येतृभ्यश्च पृथिवीमारभ्येश्वरपर्यन्तानां पदार्थानां साङ्गोपाङ्गा विद्याः साक्षात्कारयन्तु नात्र कपटालस्यादिकुत्सितं कर्म कदाचित्कुर्य्युः ॥ २३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पढ़ाने और उपदेश करनेवाले क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (नासत्या) असत्य के छोड़ने से सत्य के ग्रहण करने, पढ़ाने और उपदेश करनेवालो ! तुम दोनों (शचीभिः) अच्छी शिक्षा देनेवाली वाणियों से (अवस्यते) अपनी रक्षा और (स्तुवते) धर्म को चाहते हुए (ऋजूयते) सीधे स्वभाववाले के समान वर्त्तनेवाले (कृष्णियाय) आकर्षण के योग्य अर्थात् बुद्धि जिसको चाहती उस (विश्वकाय) संसार पर दया करनेवाले (दर्शनाय) धर्म-अधर्म को देखते हुए मनुष्य के लिये (पशुम्, न) जैसे पशु को प्रत्यक्ष दिखावे वैसे और जैसे (नष्टमिव) खुए हुए वस्तु को ढूँढ के बतावें, वैसे (विष्णाप्वम्) विद्या में रमे हुए विद्वानों को जो बोध प्राप्त होता है। उसको (ददथुः) देओ ॥ २३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। शास्त्र के वक्ता, उपदेश करने और विद्या पढ़ानेवाले विद्वान् जन जैसे प्रत्यक्ष गौ आदि पशु को वा छिपे हुए वस्तु को दिखाकर प्रत्यक्ष कराते हैं, वैसे शम, दम आदि गुणों से युक्त बुद्धिमान् श्रोता वा अध्येताओं को पृथिवी से लेके ईश्वरपर्य्यन्त पदार्थों का विज्ञान देनेवाली साङ्गोपाङ्ग विद्याओं को प्रत्यक्ष करावें और इस विषय में कपट और आलस्य आदि निन्दित कर्म कभी न करें ॥ २३ ॥
विषय
विश्व को विष्णाप्व की प्राप्ति
पदार्थ
१. (अवस्यते) = शरीर को रोगों से रक्षित करने की कामनावाले के लिए , (स्तुवते) = हृदय में प्रभु के नाम - स्मरण द्वारा प्रभुस्तवन करनेवाले के लिए (कृष्णियाय) = सब ओर से ज्ञान को अपनी ओर आकृष्ट करनेवाले के लिए और (ऋजूयते) = ऋजु - मार्ग से - सरल - मार्ग से गति करनेवाले के लिए , हे (नासत्या) = प्राणापानो ! आप (शचीभिः) = प्रज्ञाओं के द्वारा (नष्टमिव पशुं न) = अदृष्ट हुए हुए पशु की भाँति उस प्रभु को (दर्शनाय) = पुनः दर्शन के लिए करते हो , अर्थात् जैसे पशु का स्वामी नष्ट हुए - हुए पशु को प्राप्त करके आनन्दित हो उठता है , इसी प्रकार यह प्राणसाधक भी हृदयस्थ होते हुए भी अदृष्ट प्रभु को बुद्धि की तीव्रता द्वारा फिर से देखनेवाला बनता है । २. यह प्रभु का द्रष्टा व्यापक मनोवृत्तिवाला बनता है - ‘विश्वक’ होता है - यह सम्पूर्ण विश्व के हित की ही बात सोचता है । हे (नासत्या) = प्राणापानो ! आप इस (विश्वकाय) = वसुधा को कुटुम्ब समझनेवाले पुरुष के लिए (विष्णाप्वं ददथुः) = [विष्णानाप्नोति , विष् व्याप्ती] व्यापक मनोवृत्तियों को या व्यापक कर्मों को देते हो । इसके कर्म व्यापकता को लिये हुए होते हैं । यह केवल अपने हित को ही देखता हुआ कर्मों को नहीं करता । विश्वहित के लिए कर्म करता हुआ यह सचमुच विश्वक बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम शरीर को नीरोग बनाएँ , मन को स्तुति की भावना से भरें , मस्तिष्क में ज्ञान को आकृष्ट करें । ऋजु - मार्ग से सब कार्य करें । ऐसा होने पर हम तीव्रबुद्धि होकर प्रभु का दर्शन करेंगे और व्यापक मनोवृत्तिवाले होकर विश्वक बनेंगे ।
विषय
missing
भावार्थ
हे ( नासत्या ) सत्य ज्ञान और व्यवहार वाले विद्वान् प्रमुख पुरुषो ! आप दोनों ( अवस्यते ) अपने रक्षण और ज्ञान चाहने वाले, ( स्तुवते ) स्तुतिशील, विद्वान्, ( कृष्णियाय ) सबके चित्तों के आकर्षक, या दुःखों के विनाश करने में समर्थ, ( ऋजूयते ) धर्म मार्ग पर चलने हारे, सरल, ( विश्वकाय ) सर्व हितकारी पुरुष को ( दर्शनाय ) व्यवहारों को यथार्थ रूप से देखने के लिये ( शचीभिः ) अपनी शक्तियों और ज्ञान वाणियों द्वारा (विष्णाप्वम्) व्यापक, ज्ञानशील विद्वानों से प्राप्त होने वाला ज्ञान ( नष्टं पशुं न ) खोये हुए पशु के समान ( ददथुः ) प्रदान करो । इसी प्रकार माता पिता दोनों भी अपनी रक्षा चाहने वाले, स्तुतिशील मनोहर, धर्मात्मा, सर्वहितकारी पुत्र या शिष्य को प्रभु के दर्शन के लिये खोये पशु के समान ( विष्णापवं पशुं ) व्यापक परमेश्वर तक पहुंचाने वाले सर्व दर्शक ज्ञान प्राप्त करावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. शास्त्राचे वक्ते व उपदेश करणारे व विद्या शिकविणारे विद्वान लोक जसे प्रत्यक्ष गाय इत्यादी पशूला किंवा हरवलेल्या वस्तूंना शोधून प्रत्यक्ष दर्शवितात तसे शम, दम इत्यादी गुणांनी युक्त बुद्धिमान श्रोता व अध्येता यांना पृथ्वीपासून ईश्वरापर्यंत पदार्थांचे विज्ञान देणाऱ्या सांगोपांग विद्यांना प्रत्यक्ष करवावे. या विषयात कपट, आळस इत्यादी निंदित कर्म करू नये. ॥ २३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, lovers of truth and humanity, with your noble words and acts of wisdom give that sagely vision and knowledge to the protective, worshipful, attractive, simple and sympathetic visionary with which the sages are blest in a state of samadhi communion with the divine. Give it like a lovely pet or a valuable treasure lost but then found and then restored to the master.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should teachers and preachers do is taught in the 23rd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O absolutely truthful preachers and teachers, from your refined words imparting good teachings, you give to a man who desires his protection, is admirer of Dharma (righteousness and duty). is a man of upright nature, is of attractive nature and kind to all beings, true knowledge to be attained by learned persons, so that he may see well the path of Dharma, as a lost animal is restored to its master.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(कृष्णियाय) कृष्णम् आकर्षणम् अर्हाय = For a man of attractive nature on account of his extra-ordinary virtues. (विष्णाप्वम् ) विष्णान् विद्याव्यापिनो विदुषः आप्नोति बोधस्तम् । = Knowledge to be attained by learned persons. (विश्वकाय) विश्वस्य अनुकम्पकाय = For a person kind to all.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of absolutely truthful preachers and teachers to impart true knowledge of all sciences to the hearers and students endowed with peacefulness and other virtues and intelligent. They should give them the knowledge of all objects from earth to God as cows and other animals are shown. Here no kind of laziness and deception should be resorted to as they are abominable.
Translator's Notes
It is very wrong on the part of Shri Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take Krishna, and Vi hvaka as the proper nouns denoting some particular persons, instead of taking them, as denoting certain attributes as clearly explained by Rishi Dayananda Sarasvati.
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