ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 6
यम॑श्विना द॒दथु॑: श्वे॒तमश्व॑म॒घाश्वा॑य॒ शश्व॒दित्स्व॒स्ति। तद्वां॑ दा॒त्रं महि॑ की॒र्तेन्यं॑ भूत्पै॒द्वो वा॒जी सद॒मिद्धव्यो॑ अ॒र्यः ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । अ॒श्वि॒ना॒ । द॒दथुः॑ । श्वे॒तम् । अश्व॑म् । अ॒घऽअ॑श्वाय । शश्व॑त् । इत् । स्व॒स्ति । तत् । वा॒म् । दा॒त्रम् । महि॑ । की॒र्तेन्य॑म् । भू॒त् । पै॒द्वः । वा॒जी । सद॑म् । इत् । हव्यः॑ । अ॒र्यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यमश्विना ददथु: श्वेतमश्वमघाश्वाय शश्वदित्स्वस्ति। तद्वां दात्रं महि कीर्तेन्यं भूत्पैद्वो वाजी सदमिद्धव्यो अर्यः ॥
स्वर रहित पद पाठयम्। अश्विना। ददथुः। श्वेतम्। अश्वम्। अघऽअश्वाय। शश्वत्। इत्। स्वस्ति। तत्। वाम्। दात्रम्। महि। कीर्तेन्यम्। भूत्। पैद्वः। वाजी। सदम्। इत्। हव्यः। अर्यः ॥ १.११६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अश्विना युवामघाश्वाय वैश्याय यं श्वेतमश्वं भास्वरं विद्युदाख्यं ददथुर्दत्तः। येन शश्वत् स्वस्ति प्राप्य वा कीर्त्तेन्यं महि दात्रमिदेव गृहीत्वा पैद्वो वाजी तत् सदं रचयित्वाऽर्यश्च हव्यो भूद् भवति तदिदेवं विधत्ताम् ॥ ६ ॥
पदार्थः
(यम्) (अश्विना) जलपृथिव्याविवाशुसुखदातारौ (ददथुः) (श्वेतम्) प्रवृद्धम् (अश्वम्) अध्वव्यापिनमग्निम् (अघाश्वाय) हन्तुमयोग्याय शीघ्रं गमयित्रे (शश्वत्) निरन्तरम् (इत्) एव (स्वस्ति) सुखम् (तत्) कर्म (वाम्) युवयोः (दात्रम्) दातुं योग्यम् (महि) महद्राज्यम् (कीर्त्तेन्यम्) कीर्त्तितुम् (भूत्) भवति (पैद्वः) सुखेन प्रापकः (वाजी) ज्ञानवान् (सदम्) सीदन्ति यस्मिन् याने तत् (इत्) एव (हव्यः) आदातुमर्हः (अर्यः) वणिग्जनः ॥ ६ ॥
भावार्थः
यौ सभासेनाध्यक्षौ वणिजः संरक्ष्य यानेषु स्थापयित्वा द्वीपद्वीपान्तरे प्रेषयेतां तौ श्रिया युक्तौ भूत्वा सततं सुखिनौ जायेते ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अश्विना) जल और पृथिवी के समान शीघ्र सुख के देनेहारो सभासेनापति ! तुम दोनों (अघाश्वाय) जो मारने के न योग्य और शीघ्र पहुँचानेवाला है उस वैश्य के लिये (यम्) जिस (श्वेतम्) अच्छे बढ़े हुए (अश्वम्) मार्ग में व्याप्त प्रकाशमान बिजुलीरूप अग्नि को (ददथुः) देते हो तथा जिससे (शश्वत्) निरन्तर (स्वस्ति) सुख को पाकर (वाम्) तुम दोनों की (कीर्त्तेन्यम्) कीर्त्ति होने के लिये (महि) बड़े राज्यपद (दात्रम्) और देने योग्य (इत्) ही पदार्थ को ग्रहण कर (पैद्वः) सुख से ले जानेहारा (वाजी) अच्छा ज्ञानवान् पुरुष उस (सदम्) रथ को कि जिसमें बैठते हैं रच के (अर्यः) वणियाँ (हव्यः) पदार्थों के लेने योग्य (भूत्) होता है (तत्, इत्) उसी पूर्वोक्त विमानादि को बनाओ ॥ ६ ॥
भावार्थ
जो सभा और सेना के अधिपति वणियों (=वणिकों) की भली-भाँति रक्षा कर रथ आदि यानों में बैठाकर द्वीप-द्वीपान्तर में पहुँचावें, वे बहुत धनयुक्त होकर निरन्तर सुखी होते हैं ॥ ६ ॥
विषय
अघाश्व से श्वेताश्व की प्राप्ति
पदार्थ
१. गतमन्त्र में ‘भुज्यु’ का वर्णन था , जो संसार के भोगों को भोगने में लगा था , अतः ‘अघाश्व’ पापमय इन्द्रियोंवाला हो गया था । “इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम्” इन्द्रियों के विषयों में सङ्ग से दोष प्राप्त होता ही है । प्राणापान की साधना से ये इन्द्रियदोष दूर होते हैं - “तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्” - प्राणनिग्रह से इन्द्रियदोष नष्ट होकर इन्द्रियाँ शुद्ध व श्वेत हो जाती हैं , मानो प्राणायाम हमें ‘श्वेत अश्व’ देनेवाले बनते हैं । २. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (यम्) = जिस (अघाश्वाय) = अघाश्व के लिए (श्वेतम् अश्वम्) = श्वेत अश्व को (ददथुः) = देते हो , यह बात (इत्) = निश्चय से (शश्वत्) = सदा स्वस्ति - कल्याण के लिए होती है । प्राणसाधना से इन्द्रियों शुद्ध होती हैं और इन्द्रियों की शुद्धि से कल्याण होता ही है । ३. हे प्राणापानो ! (वाम्) = आपका (तत् दात्रम्) = वह दान (महि कीर्तेन्यम्) = अत्यन्त कीर्तनीय (भूत्) = होता है । प्राणापान इन्द्रियों की शुद्धि के द्वारा ही शरीर को स्वस्थ बनाते हैं और इस शुद्धि से ही बुद्धि भी अत्यन्त तीव्र बनती है । एवं , सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि इन्द्रियाँ शुद्ध होती हैं । ४. यह शुद्धेन्द्रियरूप अश्व (पैद्वः) = पेदु [गति] सम्बन्धी होता है , अर्थात् सतत गमनशील [पद गतौ] होता है , (वाजी) = बलवान होता है । गमनशील है , इसीलिए बलवान् है । क्रिया में ही शक्ति है । यह अश्व (सदमित्) = सदा ही (हव्यः) = प्रार्थनीय है , पुकारे जाने योग्य है और (अर्यः) = शत्रुओं को दूर प्रेरित करनेवाला है , अर्थात् अपने पर होनेवाले वासनाओं के आक्रमण से यह अपने को सुरक्षित रखता है - वासनारूप शत्रुओं को दूर भगाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से इन्द्रियाँ शुद्ध होंगी । अघाश्व से हम श्वेताश्व बन जाएंगे । ये इन्द्रियाँ गतिशील , शक्तिशाली व वासनाओं को सुदूर प्रेरित करनेवाली होंगी ।
विषय
अघावश्वको श्वेत अश्व के खुरसे सुरा के सैकड़ों कुम्भ आदि कल्पनाओं का रहस्य ।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) शीघ्रगामि रथों के सञ्चालन करने में कुशल शिल्पियो ! तुम दोनों ( अघाश्चाय ) कभी न मरने वाले अश्व के स्वामी, राजा को ( यम् श्वेतं अश्वम् ) जो श्वेत, चमकता हुआ, या अति बलशाली मार्गगामी साधन ( ददथुः ) देते हो ( तत् शश्वत् इत् ) वह सदा अनादि सिद्ध, सदाकाल के लिये ( स्वस्ति ) कल्याणदायक हो, वह ( वां ) तुम दोनों का ( महि ) बहुत पढ़ा ( कीर्त्तेन्यम् ) कीर्त्तिजनक ( दात्रं भूत् ) दान है । उसीसे ( वाजी ) वेग से जाने वाला साधन ( पैद्वः ) सुख से स्थानान्तर पहुंचने में समर्थ होता है और ( सदम् इत् ) सदा ही ( अर्यः हव्यः ) वणिग् जन या स्वामी ग्राह्य पदार्थों को लेने में समर्थ होता है । अथवा ( वाजी सद्मित् पैदः हव्यः अर्यः भूत् ) वेगवान् होकर शीघ्र ही अपने गृह पहुंच कर स्वामी स्तुति योग्य होता है । (२) अध्यात्म में—‘अघाश्व’ अमृत चेतन जीव है। प्राणापान का अभ्यास उसको ‘श्वेत अश्व’ अर्थात् शुक्र, व्यापक, अनादि सिद्ध, आनन्दमय ब्रह्म का साक्षात् कराता है । वह बड़ा स्तुत्य ज्ञान प्रदाता, ( वाजी ) ज्ञानैश्वर्यवान् अपने प्राप्तव्य पद को पहुंचा हुआ, कृतकृत्य आत्मा ‘पैद्व’ है । और (अर्यः) सबका स्वामी परमेश्वर ही सदा ( हव्यः ) अर्थात् उपास्य और शरण योग्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे सभा, सेनापती व व्यापाऱ्यांचे चांगल्या प्रकारे रक्षण करून त्यांना रथ इत्यादी यानात बसवून द्वीपद्वीपान्तरी पोचवितात. तेव्हा ते अत्यंत धनवान बनून सदैव सुखी होतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, experts of velocity and motion, the brilliant white solar car which you provide for the adventurous traveller is all-time auspicious. That gift of yours is great, admirable all over the earth. The super fast car is of undiminishing value and adorable in the economic world of business and industry.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
All men should exert themselves in this way, because it helps to secure enjoyments. These cars mentioned above are to be constructed by the use of the white steam which the scientific men generate by properly employing the aforesaid Ashvins (water and fire) for the purpose of swift locomotion. Those conveyances are always a source of comfort. This power of the Ashvins (Water and fire etc.) is fit to be bestowed as a gift and as it is conductive to happiness, it is invigorating. It is full of great capabilities and most praiseworthy. It is productive of excellent good to others. This fire is a swift horse which causes these cars to move rapidly on their tracks. We should employ this fire, the cause of swift locomotion, to our use. The merchants should use it in particular.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अश्विना) जलपृथिव्याविव आशु सुखदातारौ = Quick givers of happiness like the earth and water. (अश्वम्) अध्वव्यापिनमग्निम् = Fire which pervades the path, here the meaning of electricity has been taken. (अघाशवाय) हन्तुम् अयोग्याय शीघ्रं गमयित्रे = For a Vaishya (Trader) who is not to be killed and who makes things move rapidly by the use of steam and electricity etc. (पैद्वः) सुखेन प्रापकः = Conveyer with ease. (वाजी) ज्ञानवान् = Full of knowledge or wisdom.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those Presidents of the Assembly and Commanders of the Army, who protect the traders well and send them to distant lands for business, become prosperous and enjoy happiness constantly.
Translator's Notes
अग्निर्वा अश्वः श्वेतः (शतपथ० ३.६.२.५ ) So the meaning of अश्व as अग्नि (fire in the form of electricity) given by Rishi Dayananda is well authenticated. पैद्व: is from पद-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था:- ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च here the third meaning has been taken. वाज is derived from वज-गतौ here the first meaning off as or knowledge has been taken. It is note-worthy that while Sayanacharya, Venkata Madhava, Prof. Wilson, Griffith and some other commentators have taken to be a white horse, Rishi Dayananda Sarasvati on the clear authority of the Shatapath Brahmana ३. ५. २.५ अग्निर्वा अश्व: श्वेतः (शतपथ ३. ६. २.५ ) has taken it for fire in the form of electricity.
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