ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 11
ऋषिः - सिकता निवावारी
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
अ॒भि॒क्रन्द॑न्क॒लशं॑ वा॒ज्य॑र्षति॒ पति॑र्दि॒वः श॒तधा॑रो विचक्ष॒णः । हरि॑र्मि॒त्रस्य॒ सद॑नेषु सीदति मर्मृजा॒नोऽवि॑भि॒: सिन्धु॑भि॒र्वृषा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽक्रन्द॑न् । क॒लश॑म् । वा॒जी । अ॒र्ष॒ति॒ । पतिः॑ । दि॒वः । श॒तऽधा॑रः । वि॒ऽच॒क्ष॒णः । हरिः॑ । मि॒त्रस्य॑ । सद॑नेषु । सी॒द॒ति॒ । म॒र्मृ॒जा॒नः । अवि॑ऽभिः । सिन्धु॑ऽभिः । वृषा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभिक्रन्दन्कलशं वाज्यर्षति पतिर्दिवः शतधारो विचक्षणः । हरिर्मित्रस्य सदनेषु सीदति मर्मृजानोऽविभि: सिन्धुभिर्वृषा ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽक्रन्दन् । कलशम् । वाजी । अर्षति । पतिः । दिवः । शतऽधारः । विऽचक्षणः । हरिः । मित्रस्य । सदनेषु । सीदति । मर्मृजानः । अविऽभिः । सिन्धुऽभिः । वृषा ॥ ९.८६.११
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 11
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अभिक्रन्दन्) स्वसत्तया गर्जन् (कलशं) अस्मै ब्रह्माण्डाय (वाजी, अर्षति) बलपूर्वकं गतिं ददाति। अन्यच्च (दिवः) द्युलोकस्य (पतिः) रक्षकः तथा (शतधारः) अनेकानन्दानां स्रोतस्तथा (विचक्षणः) सर्वद्रष्टा अपि च (हरिः) सर्वशक्तीनां स्वाधीनकारकोऽस्ति। अपरञ्च (मित्रस्य) प्रेमपात्राणाम् (सदनेषु) अन्तःकरणेषु (सीदति) विराजते। तथा (मर्मृजानः) सर्वं परिशोधयन् (अविभिः, सिन्धुभिः) स कृपासागरः (वृषा) निजकृपावृष्टिभिः सर्वं सिञ्चति ॥१२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अभिक्रन्दन्) स्वसत्ता से गर्जता हुआ (कलशं) इस ब्रह्माण्ड को (वाज्यर्षति) बलपूर्वक गति देनेवाला है और (दिवः) द्युलोक का (पतिः) स्वामी है तथा (शतधारः) अनन्त प्रकार के आनन्दों का स्रोत है तथा (विचक्षणः) सर्वद्रष्टा और (हरिः) सब शक्तियों को स्वाधीन रखनेवाला है और (मित्रस्य) प्रेमपात्र लोगों के (सदनेषु) अन्तःकरणों में (सीदति) विराजमान होता है तथा (मर्मृजानः) सबको शुद्ध करता हुआ (अविभिः, सिन्धुभिः) वह कृपासिन्धु (वृषा) अपनी कृपारूप वृष्टि से सबको सिञ्चित करता है ॥१२॥
भावार्थ
उपासकों को चाहिये कि अपने मनोरूप मन्दिर को इस प्रकार से मार्जित करें, जिससे परमात्मा का निवासस्थान बनकर मन उनकी उपासना का मुख्य साधन बने ॥१२॥
विषय
षोडशकल आत्मा हरि का वर्णन।
भावार्थ
वह (विचक्षणः) विविध इन्द्रियों से नाना भोग्य पदार्थों को देखने वा ज्ञान करने हारा, (शत-धारः) सैकड़ों वाणियों, स्तुतियों को करने वाला, नाना अनेक सामर्थ्यवान् (दिवः पतिः) अपनी कामना का स्वयं स्वामी, स्वतन्त्र कामनावान् (वाजी) बल, ऐश्वर्य से और ज्ञान से युक्त जीव (कलशं अभि) १६ कलाओं से युक्त इस देह को प्राप्त होता हुआ (अर्षति) संसार में गति करता है। वह (हरिः) जीव, (विभिः) ज्ञानवान् पुरुषों, प्राणों और (सिन्धुभिः) जलप्रवाहों के समान स्वच्छ करने वाले आप्तजनों, प्राणों, इडा पिंगला आदि नाड़ियों द्वारा (मर्मृजानः) अति शुद्ध, पवित्र होता हुआ, (मित्रस्य) परमस्नेही प्रभु के (सदनेषु) लोकों में (सीदति) विराजता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥
विषय
मित्रस्य सदनेषु सीदति
पदार्थ
(अभिक्रन्दन्) = प्रातः-सायं प्रभु के नामों का उच्चारण करता हुआ (वाजी) = शक्ति को देनेवाला यह सोम (कलशं अर्षति) = इस शरीर कलश को प्राप्त होता है। प्रभु स्मरण सोमरक्षण का सर्वोत्तम साधन है। रक्षित सोम हमें शक्तिशाली बनाता है। यह (दिवः पतिः) = ज्ञान का रक्षक होता है, (शतधारः) = शरीर को शतवर्ष पर्यन्त धारित करनेवाला बनाता है । (विचक्षणः) = यह हमारा विशेष रूप से (द्रष्टा) = ध्यान करनेवाला [look after] होता है। (हरि:) = सब रोगों व मलों का हरण करनेवाला यह सोम (मित्रस्य सदनेषु सीदति) = उस मित्र प्रभु के लोकों में (आसीन) = होता है, अर्थात् यह सोम हमें ब्रह्मलोक की प्राप्ति करानेवाला होता है। (अविभिः) = वासनाओं से अपना रक्षण करनेवाले (सिन्धुभिः) = [स्यन्द्] गतिशील पुरुषों से (मर्मृजान:) = शुद्ध किया जाता हुआ यह सोम (वृषा) = हमारे जीवनों में सुखों का सेचन करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम ज्ञान का व शक्ति का वर्धन करता हुआ अन्ततः ब्रह्मलोक प्राप्ति का साधन बनता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Roaring, the omnipotent pervades in the universe and flows with a thousand streams, all watching sustainer of the light of existence. Beatific, glorious, dispeller of darkness and sufferance, it abides in the homes of love and friendship, cleansing, purifying and consecrating with its protective favours and showers of grace, infinitely potent and generous since it is.
मराठी (1)
भावार्थ
उपासकांनी आपल्या मनोरूपी मन्दिराला या प्रकारे मार्जित करावे की ज्यामुळे परमेश्वराचे निवासस्थान बनून मन त्याच्या उपासनेचे मुख्य साधन बनावे. ॥११॥
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