ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 29
ऋषिः - पृश्नयोऽजाः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
त्वं स॑मु॒द्रो अ॑सि विश्व॒वित्क॑वे॒ तवे॒माः पञ्च॑ प्र॒दिशो॒ विध॑र्मणि । त्वं द्यां च॑ पृथि॒वीं चाति॑ जभ्रिषे॒ तव॒ ज्योतीं॑षि पवमान॒ सूर्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । स॒मु॒द्रः । अ॒सि॒ । वि॒श्व॒ऽवित् । क॒वे॒ । तव॑ । इ॒माः । पञ्च॑ । प्र॒ऽदिशः॑ । विऽध॑र्मणि । त्वम् । द्याम् । च॒ । पृ॒थि॒वीम् । च॒ । अति॑ । ज॒भ्रि॒षे॒ । तव॑ ज्योतीं॑षि । प॒व॒मा॒न॒ । सूर्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं समुद्रो असि विश्ववित्कवे तवेमाः पञ्च प्रदिशो विधर्मणि । त्वं द्यां च पृथिवीं चाति जभ्रिषे तव ज्योतींषि पवमान सूर्य: ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । समुद्रः । असि । विश्वऽवित् । कवे । तव । इमाः । पञ्च । प्रऽदिशः । विऽधर्मणि । त्वम् । द्याम् । च । पृथिवीम् । च । अति । जभ्रिषे । तव ज्योतींषि । पवमान । सूर्यः ॥ ९.८६.२९
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 29
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(विश्ववित्, कवे) हे सर्वविश्वज्ञ ! परमात्मन् ! (त्वं) पूर्वोक्तस्त्वं (समुद्रोऽसि) समुद्रः “सम्यग्द्रवन्ति भूतानि यस्मात् स समुद्रः”, यस्मात् सर्वभूतान्युत्पद्यन्ते तस्येह नाम समुद्रः। (तव, विधर्मणि) तव विशेषसत्तायां (इमाः, पञ्च, प्रदिशः) एषां पञ्चभूतानां सूक्ष्माणि पञ्च तन्मात्राणि विराजन्ते। अपि च (त्वं, द्याञ्च) त्वं द्युलोकस्य (पृथिवीञ्च) पृथिवीलोकस्य च (अति, जभ्रिषे) भरणं पोषणञ्च करोषि। अन्यच्च हे परमात्मन् ! (सूर्य्यः) सूर्य्योऽपि (तव, ज्योतींषि) तव तेजांस्यस्ति ॥२९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(विश्ववित् कवे) हे सम्पूर्ण विश्व के ज्ञाता परमात्मन् ! (त्वं) तुम (समुद्रोऽसि) समुद्र हो “सम्यग् द्रवन्ति भूतानि यस्मात् स समुद्रः” जिसमें सब भूत उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को प्राप्त हों, उसका नाम यहाँ समुद्र है। (तव विधर्म्मणि) तुम्हारी विशेष सत्ता में (इमाः पञ्च प्रदिशः ) इन पाँचो भूतों के सूक्ष्म पञ्च तन्मात्र विराजमान हैं और (त्वं द्याञ्च) आप द्युलोक को (पृथिवीञ्च) और पृथिवीलोक को अति (जभ्रिषे) भरण-पोषण करते हैं और हे पवमान परमात्मन् ! (सूर्य्यः) सूर्य्य भी (तव ज्योतींषि) तुम्हारी ज्योति है ॥२९॥
भावार्थ
सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का हेतु होने से परमात्मा का नाम समुद्र है। उसी सर्वाधार सर्वनिधि महासागर से इस सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय होते हैं, किसी अन्य से नहीं ॥२९॥
विषय
वह समुद्रवत् अपार, सर्वज्ञ सर्वेश्वर है। पक्षान्तर में आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
हे (कवे) क्रान्तिदर्शिन् विद्वन् ! (त्वं समुद्रः असि) तू समुद्र के समान अपार और गम्भीर ज्ञानों और गुणों का भण्डार है। तू (विश्व-वित्) जगत् के समस्त पदार्थों को जानने, सब को सब प्रकार के पदार्थ प्राप्त कराने वाला है (तव विधर्मणि) तेरे विशेष शासन में (इमाः पञ्च प्र-दिशः) ये पांचों मुख्य दिशाएं आत्मा के अधीन पांच इन्द्रियों, राजा के अधीन पांचों प्रजाओं के तुल्य हैं। तू (द्यां च पृथिवीं च) आकाश और भूमि को (अति) पार करता, उनका धारण करता और पालता है, उनसे कहीं बड़ा है। हे (पवमान) सर्वप्रेरक प्रभो ! (सूर्यः तव ज्योतींषि) यह सूर्य भी तेरी ही ज्योतियें है। अथवा (सूर्यः तव ज्योतींषि जभ्रिषे) सूर्य तेरी ही ज्योतियों को धारण करता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥
विषय
'समुद्रः विश्ववित्' सोमः
पदार्थ
हे (कवे) = आनन्दप्रज्ञ सोम ! हमें तीव्र बुद्धि को प्राप्त करानेवाले सोम ! (त्वम्) = तू (समुद्रः असि) = ज्ञान का समुद्र है अथवा 'सन्मुद्' सदा आनन्द के साथ रहनेवाला है। नीरोगता आदि के द्वारा आनन्द को प्राप्त करानेवाला है। (विश्ववित्) = तू सर्वज्ञ व सब कुछ प्राप्त करानेवाला है [विद् लाभे] । (इमा) = ये (पञ्चप्रदिशः) = ये विस्तृत [पचि विस्तारे] दिशायें इनमें रहनेवाले प्राणी, (तव विधर्मणि) = तेरे विशिष्ट धारण में ही स्थित है । (त्वम्) = तू (द्यां च) = मस्तिष्क रूप द्युलोक को (च) = तथा (पृथिवीं च) = शरीर रूप पृथिवी को (अतिजभ्रिषे) = अतिशयेन धारण करता है। सोम ही मस्तिष्क व शरीर को स्वस्थ रखता है। हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले सोम ! (सूर्य:) = मस्तिष्क रूप द्युलोक में उदित होनेवाला सूर्य तव ज्योतींषि तेरी ही ज्योतियों को [जभ्रिषे ] धारण करता है, अर्थात् ज्ञानसूर्य के उदित होने का संभव तेरे ही कारण होता है ।
भावार्थ
भावार्थ-शरीर में सोम ही हमारी बुद्धि को सूक्ष्म करता है, यही हमारे ज्ञान को बढ़ाता है । मस्तिष्क व शरीर का स्वास्थ्य इसी पर निर्भर करता है। यही सबका धारण करता है, यही सब कुछ प्राप्त कराता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
You are the original infinite womb of life in existence and the ultimate haven, absolute master of the entire universe, O poet creator. Within you and in your order of Dharma are contained and sustained all the five dimensions of existence, material, psychic, spiritual, temporal and spatial. You hold and sustain the heaven and earth, absolutely, and, O lord immaculate, purifying and vibrant, the stars are but reflections of your self-refulgence.
मराठी (1)
भावार्थ
संपूर्ण भूतांची उत्पत्ती, स्थिती व प्रलयाचा हेतू असल्यामुळे परमेश्वराचे नाव समुद्र आहे. त्याच सर्वाधार सर्वनिधी महासागरापासून या संपूर्ण जगाची उत्पत्ती, स्थिती, प्रलय होतो. दुसऱ्या कुणाकडून नव्हे. ॥२९॥
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