ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 30
त्वं प॒वित्रे॒ रज॑सो॒ विध॑र्मणि दे॒वेभ्य॑: सोम पवमान पूयसे । त्वामु॒शिज॑: प्रथ॒मा अ॑गृभ्णत॒ तुभ्ये॒मा विश्वा॒ भुव॑नानि येमिरे ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । प॒वित्रे॑ । रज॑सः । विऽध॑र्मणि । दे॒वेभ्यः॑ । सो॒म॒ । प॒व॒मा॒न॒ । पू॒य॒से॒ । त्वाम् । उ॒शिजः॑ । प्र॒थ॒माः । अ॒गृ॒भ्ण॒त॒ । तुभ्य॑ । इ॒मा । विश्वा॑ । भुव॑नानि । ये॒मि॒रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं पवित्रे रजसो विधर्मणि देवेभ्य: सोम पवमान पूयसे । त्वामुशिज: प्रथमा अगृभ्णत तुभ्येमा विश्वा भुवनानि येमिरे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । पवित्रे । रजसः । विऽधर्मणि । देवेभ्यः । सोम । पवमान । पूयसे । त्वाम् । उशिजः । प्रथमाः । अगृभ्णत । तुभ्य । इमा । विश्वा । भुवनानि । येमिरे ॥ ९.८६.३०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 30
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(त्वं) पूर्वोक्तस्त्वं (पवित्रे, विधर्मणि) स्वपूतस्वरूपे (देवेभ्यः, रजसः) दिव्यगुणयुक्तरजोगुणस्य परमाणुभिरिदञ्जगदुत्पादयसि। (सोम) हे परमात्मन् ! (पवमान) निखिलपवित्रकर्तः त्वं (पूयसे) पवित्रयसि। (त्वां, उशिजः) पूर्वोक्तं त्वां विज्ञानिनः (प्रथमाः) प्रथमं (अगृभ्णत) अग्रहीषुः। (तुभ्य, इमाः) तुभ्यमिमानि (विश्वा, भुवनानि) निखिललोकलोकान्तराणि (येमिरे) आत्मानं समर्पयन्ति ॥३०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(त्वं) तुम (पवित्रे विधर्म्मणि) अपने पवित्र स्वरूप में (देवेभ्यो रजसः) दिव्यगुणयुक्त रजोगुण के परमाणुओं से इस संसार को उत्पन्न करते हो। (सोम) हे परमात्मन् ! (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाले (पूयसे) तुम पवित्र करते हो। (त्वामुशिजः) तुमको विज्ञानी लोगों ने (प्रथमाः) पहले (अगृभ्णत) ग्रहण किया। (तुभ्य इमाः) तुम्हारे लिये ये (विश्वा, भुवनानि) सम्पूर्ण लोक-लोकान्तर (येमिरे) अपने आपको समर्पित करते हैं ॥३०॥
भावार्थ
परमात्मा सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों की उत्पत्ति का कर्ता है और उसी की विभूति को सब लोक-लोकान्तर प्रदीप्त कर रहे हैं ॥३०॥
विषय
सर्वधारक प्रभु।
भावार्थ
हे (पवमान सोम) सब जगत् को प्रेरित और पवित्र करने वाले, सर्वव्यापक प्रभो ! हे सर्व जगत् के उत्पादक परमेश्वर ! (त्वं) तू (देवेभ्यः) समस्त देवों के लिये (रजसः) समस्त लोकों के (पवित्रे) सर्वप्रेरक (विधर्मणि) सब के धारक पद पर (पूयसे) अभिषिक्त होता है। (प्रथमाः उशिजः) सर्व प्रथम, सर्व श्रेष्ठ तुझे चाहनेवाले, तेरे प्रेमी जन (त्वाम् अगृभ्णत) तेरा आश्रय ग्रहण करते, तेरा प्रत्यक्ष ज्ञान करते हैं, (इमा विश्वा भुवनानि) ये समस्त लोक (तुभ्य येमिरे) तेरी ही बल से बद्ध हैं। इति सप्तदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥
विषय
रजोगुण का विशिष्टरूप में स्थापन
पदार्थ
हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! (त्वम्) = तू (पवित्रे) = पवित्र हृदयवाले पुरुष में (रजसः) = रजोगुण के (विधर्मणि) = विशिष्ट रूप से धारण करने के निमित्त होता है। यह सोम का रक्षण ही एक सात्त्विक पुरुष को रजोगुण के विशिष्ट रूप में धारण के द्वारा क्रियाशील बनाता है । हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले सोम ! (प्रथमा:) = अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाले (उशिज:) = मेधावी पुरुष (त्वां अगृभ्णत) = तेरा ग्रहण करते हैं, तुझे अपने अन्दर सुरक्षित करने का प्रयत्न करते हैं। इ(मा विश्वा भुवनानि) = ये सब भुवन (तुभ्य येमिरे) = तेरे लिये ही अपने को देनेवाले होते हैं [यच्छन्त्यात्मानम् सा०] अर्थात् सब भुवन तेरे पर ही आश्रित हैं। सोम ही सब का आधार है व नियामक है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम हमारे जीवनों में रजोगुण का विशिष्टरूप में स्थापन करता है और हमें गतिशील बनाता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
In this holy order of existence governed by the law of divinity, O Soma, light of life immaculate, your presence emanates from every particle of the divine elements of Prakrti, from all the divine regions of the universe in balanced motion, and the same presence is distilled in purity by the wise for noble humanity. The first vibrant lovers of divinity perceive and realise this presence at the dawn of creation. From you the entire worlds of existence emerge and unto you they all return.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्माच संपूर्ण लोकलोकांतराचा उत्पत्ती कर्ता आहे व त्याच्याच विभूतीला (शक्तीला) सर्व लोकलोकांतर प्रदीप्त करत आहेत. ॥३०॥
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