ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 25
अव्ये॑ पुना॒नं परि॒ वार॑ ऊ॒र्मिणा॒ हरिं॑ नवन्ते अ॒भि स॒प्त धे॒नव॑: । अ॒पामु॒पस्थे॒ अध्या॒यव॑: क॒विमृ॒तस्य॒ योना॑ महि॒षा अ॑हेषत ॥
स्वर सहित पद पाठअव्ये॑ । पु॒ना॒नम् । परि॑ । वारे॑ । ऊ॒र्मिणा॑ । हरि॑म् । न॒व॒न्ते॒ । अ॒भि । स॒प्त । धे॒नवः॑ । अ॒पाम् । उ॒पऽस्थे॑ । अधि॑ । आ॒यवः॑ । क॒विम् । ऋ॒तस्य॑ । योना॑ । म॒हि॒षाः । अ॒हे॒ष॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अव्ये पुनानं परि वार ऊर्मिणा हरिं नवन्ते अभि सप्त धेनव: । अपामुपस्थे अध्यायव: कविमृतस्य योना महिषा अहेषत ॥
स्वर रहित पद पाठअव्ये । पुनानम् । परि । वारे । ऊर्मिणा । हरिम् । नवन्ते । अभि । सप्त । धेनवः । अपाम् । उपऽस्थे । अधि । आयवः । कविम् । ऋतस्य । योना । महिषाः । अहेषत ॥ ९.८६.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 25
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अव्ये, वारे) वरणीयपुरुषं (ऊर्मिणा) प्रीत्या (पुनानं) पवित्रकर्तारं (हरिं) परमात्मानं (सप्त, धेनवः) इन्द्रियाणां सप्तवृत्तयः (अभि, नवन्ते) प्राप्नुवन्ति (अपां, उपस्थे) कर्म्माध्यक्षतायां यः (कविं) सर्वज्ञोऽस्ति तं (अधि, आयवः) उपासकाः किम्भूताः (महिषाः) महाशयाः (ऋतस्य, योना) सत्यस्थानेषु (अधि, अहेषत) उपासनां कुर्वन्ति ॥२५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अव्ये, वारे) वरणीय पुरुष को (ऊर्मिणा) प्रेम से (पुनानं) पवित्र करनेवाले (हरिम्) परमात्मा को (सप्तधनेवः) इन्द्रियों की सात वृत्तियें (अभिनवन्ते) प्राप्त होती हैं, (अपामुपस्थे) कर्म्मों की अध्यक्षता में जो (कविं) सर्वज्ञ है। उसको (अध्यायवः) उपासक लोग जो (महिषाः) महाशय हैं, वे (ऋतस्य योना) सच्चाई के स्थान में (अध्यहेषत) उपासना करते हैं ॥२५॥
भावार्थ
सदा सद्विवेकी लोग अन्य उपास्य देवों की उपासना को छोड़कर सब कर्म्मों के अधिष्ठाता परमात्मा की ही एकमात्र उपासना करते हैं, किसी अन्य की नहीं ॥२५॥
विषय
वेदाभ्यास।
भावार्थ
(अव्ये वारे) ज्ञानमय आवरण में (ऊर्मिणा) उत्साह से (पुनानं) वृद्धि को प्राप्त करते हुए (हरिम्) ज्ञानधारक शिष्य को (सप्त धेनवः अभिनवन्ते)। वेद की सातों छन्दों की वाणियां प्राप्त होती हैं। (अपाम् उपस्थे) जलों के समीप विद्यमान (कविम्) क्रान्तदर्शी विद्वान् को प्राप्त होकर (आयवः) मनुष्य (महिषाः) बड़ा ज्ञान और बल प्राप्त करके (ऋतस्य योनौ अधि) सत्य ज्ञान के आश्रय रूप उसके अधीन (अहेषते) शास्त्र का अभ्यास करें। इति षोडशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥
विषय
आयवः- महिषाः
पदार्थ
(अव्ये) = रक्षा करनेवालों में उत्तम [अव् य] (वारे) = वासनाओं का निवारण करनेवाले पुरुष में (ऊर्मिणा) = ज्ञान रश्मियों से (परिपुनानम्) = पवित्र किये जाते हुए (हरिम्) = सर्वदुः खहर्ता सोम को (अभि) = लक्ष्य करके (सप्तधेनवः) = सात छन्दोंवाली ये वेदवाणीरूप गौवें (नवन्ते) = प्राप्त होती हैं। स्वाध्याय से वासनाओं का विनाश होकर सोम पवित्र होता है । सोम के रक्षण होने पर ये वेद धेनुएँ हमारे लिये ज्ञानदुग्ध को देनेवाली होती हैं। (अपाम्) = कर्मों की (उपस्थे) = गोद में (अधि आयवः) = आधिक्येन चलने का तथा (ऋतस्य योनौ) = ऋत के उत्पत्ति स्थान प्रभु में (महिषाः) = पूजा की वृत्तिवाले (कविम्) = इस हमें क्रान्तप्रज्ञ बनानेवाले सोम को (अहेषत) = अपने अन्दर प्रेरित करते हैं। सोम को शरीर में ही सुरक्षित करने के लिये आवश्यक है कि हम क्रियाशील हों और उपासना की वृत्तिवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ- स्वाध्याय द्वारा सोम पवित्र होता है। इसके रक्षण के लिये आवश्यक है कि हम कर्मों में लगे रहें और उपासना की वृत्तिवाले हों ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Seven faculties of the soul, i.e., five senses, mind and intellect, and seven metres of the Vedic voice exult in the presence of Hari, divine dispeller of darkness and want, pure, purifying and streaming forth in waves in the heart of the chosen and protected soul of the devotee. Holy men and veteran sages and scholars delight and adore the omniscient all watching Soma at the closest in their actions at the yajnic level of universal truth and observance of divine law.
मराठी (1)
भावार्थ
सदसद्विवेकी लोक इतर उपास्य देवांची उपासना सोडून सर्व कर्मांचा अधिष्ठाता असलेल्या परमात्म्याची उपासना करतात दुसऱ्या कुणाची नाही. ॥२५॥
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