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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 14
    ऋषिः - सिकता निवावारी देवता - पवमानः सोमः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    द्रा॒पिं वसा॑नो यज॒तो दि॑वि॒स्पृश॑मन्तरिक्ष॒प्रा भुव॑ने॒ष्वर्पि॑तः । स्व॑र्जज्ञा॒नो नभ॑सा॒भ्य॑क्रमीत्प्र॒त्नम॑स्य पि॒तर॒मा वि॑वासति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्रा॒पिम् । वसा॑नः । य॒ज॒तः । दि॒वि॒ऽस्पृश॑म् । अ॒न्त॒रि॒क्ष॒ऽप्राः । भुव॑नेषु । अर्पि॑तः । स्वः॑ । ज॒ज्ञा॒नः । नभ॑सा । अ॒भि । अ॒क्र॒मी॒त् । प्र॒त्नम् । अ॒स्य॒ । पि॒तर॑म् । आ । वि॒वा॒स॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्रापिं वसानो यजतो दिविस्पृशमन्तरिक्षप्रा भुवनेष्वर्पितः । स्वर्जज्ञानो नभसाभ्यक्रमीत्प्रत्नमस्य पितरमा विवासति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्रापिम् । वसानः । यजतः । दिविऽस्पृशम् । अन्तरिक्षऽप्राः । भुवनेषु । अर्पितः । स्वः । जज्ञानः । नभसा । अभि । अक्रमीत् । प्रत्नम् । अस्य । पितरम् । आ । विवासति ॥ ९.८६.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 14
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (द्रापिं) यः स्वकवचकर्म्मभिः (वसानः) शारीरिकीं यात्रां करोति। (यजतः) अमुं कर्म्मशीलं (दिविस्पृशं) सत्कर्म्मभिरुच्चपुरुषं (अन्तरिक्षप्राः) अन्तरिक्षपूरकः परमात्मा (भुवनेषु, अर्पितः) यः सर्वत्र विद्यते (स्वः, जज्ञानः) स्वर्गादिलोकानामुत्पादकः (नभसा) सूक्ष्मसूत्रात्मभिः (अक्रमीत्) चेष्टते (अस्य, पितरं) अस्य ब्रह्माण्डस्य पिता (प्रत्नं) अपि च प्राचीनोऽस्ति। तमुपासकः (आ, विवासति) स्वलक्ष्यं कृत्वा गृह्णाति ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (द्रापिम्) जो अपने कवचरूपी कर्म्मों के द्वारा (वसानः) शारीरिक यात्रा करता है, (जयतः) उस कर्म्मशील (दिविस्पृशम्) सत्कर्म्मों द्वारा उच्च पुरुष को (अन्तरिक्षप्राः) अन्तरिक्ष की पूर्ति करनेवाला परमात्मा (भुवनेष्वर्पितः) जो सर्वत्र व्याप्त है, (स्वर्जज्ञानः) स्वर्गादि लोकों को उत्पन्न करनेवाला (नभसा) सूक्ष्मसूत्रात्मा द्वारा (अक्रमीत्) चेष्टा करता है। (अस्य पितरं) इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड का जो पिता है (प्रत्नं) और जो कि प्राचीन है, उसको उपासक पुरुष (आविवासति) अपना लक्ष्य बनाकर ग्रहण करता है ॥१४॥

    भावार्थ

    स्वर्गलोक के अर्थ यहाँ सुख की अवस्थाविशेष के हैं ॥१४॥

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    विषय

    ज्ञानी आत्मा का स्वतन्त्र लोकों में विचरण।

    भावार्थ

    वह (यजतः) सत्संगशील होकर (दिवि-स्पृशम् द्रापिं वसानः) ज्ञान प्रकाश का स्पर्श कराने वाले, कवच के तुल्य रक्षक, गुरु के अधीन वास करता हुआ, (अन्तरिक्ष-प्राः) सूर्य के प्रकाश से अन्तरिक्ष को जैसे, वैसे गुरु के ज्ञान से अपने अन्तःकरण को पूर्ण करता हुआ यह जीव (भुवनेषु) लोकों और देहों में स्थित होता है। वह (स्वः जज्ञानः) प्रभु के ज्ञानोपदेश का ज्ञान लाभ करता हुआ (नभसा) आकाशमार्ग से सूर्य के समान, अनवलम्ब, असहाय मार्ग में भी निर्भय होकर (अभि अक्रमीत्) विचरता है और (अस्य प्रत्नं पितरम्) अपने पुराने, सनातन पालक प्रभु की (आ विवासति) परिचर्या, सेवा, उपासना, स्तुति आदि करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥

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    विषय

    प्रत्न पिता का पूजन

    पदार्थ

    [१] (दिविस्पृशम्) = मस्तिष्क रूप द्युलोक में स्पर्श करनेवाले (द्रापिम्) = कवच को (वसानः) = आच्छादित करता हुआ (यजतः) = अत्यन्त आदरणीय व संगतिकरण योग्य यह सोम (अन्तरिक्षप्राः) = हृदयान्तरिक्ष का पूरण करनेवाला होता है और (भुवनेषु) = शरीर के सब भुवनों में, अंग-प्रत्यंग में यह (अर्पितः) = अर्पित होता है। शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ सोम कवच का काम करता है, मस्तिष्क को भी सुरक्षित करता है और शरीर को भी रोगों से आक्रान्त नहीं होने देता । साथ ही यह हृदय को भी वासनाओं के आक्रमण से बचाता है । [२] (स्वः) = प्रकाश को (जज्ञान:) = प्रादुर्भाव करता हुआ यह (नभसा) = मस्तिष्क रूप द्युलोक से (अभ्यक्रमीत्) = गतिवाला होता है । सोम का मस्तिष्क रूप द्युलोक की ओर गतिवाला होना ही 'ऊर्ध्वरता' बनता है, इस समय यह सोम (अस्य) = इस जीव के (प्रत्नम् पितरम्) = उस सनातन पिता प्रभु का (आविवासति) = पूजन करता है । इस प्रकार यह सोम हमें ब्रह्मलोक में पहुँचानेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम शरीर के लिये कवच के समान है। इस कवच के कारण शरीर में रोग नहीं आ पाते, मस्तिष्क में कुविचार नहीं आते, हृदय वासनाओं से हीन अवस्था में नहीं पहुँचाया जाता। मनुष्य प्रभु प्रवण होता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The spirit of divine joy wearing the aura of divinity, touching the heights of heaven, adorable in yajna, vibrating in the skies and pervading all regions of the world, creating the bliss of paradise, rises and floats with the clouds where it shines and glorifies its eternal generator, self-refulgent Soma.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    स्वर्गलोक याचा अर्थ येथे सुखाची अवस्था विशेष होय. ॥१४॥

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