ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 20
ऋषिः - सिकता निवावारी
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
म॒नी॒षिभि॑: पवते पू॒र्व्यः क॒विर्नृभि॑र्य॒तः परि॒ कोशाँ॑ अचिक्रदत् । त्रि॒तस्य॒ नाम॑ ज॒नय॒न्मधु॑ क्षर॒दिन्द्र॑स्य वा॒योः स॒ख्याय॒ कर्त॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठम॒नी॒षिऽभिः॑ । प॒व॒ते॒ । पू॒र्व्यः । क॒विः । नृऽभिः॑ । य॒तः । परि॑ । कोशा॑न् । अ॒चि॒क्र॒द॒त् । त्रि॒तस्य॑ । नाम॑ । ज॒नय॑न् । मधु॑ । क्षर॑त् । इन्द्र॑स्य । वा॒योः । स॒ख्याय॑ । कर्त॑वे ॥
स्वर रहित मन्त्र
मनीषिभि: पवते पूर्व्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशाँ अचिक्रदत् । त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरदिन्द्रस्य वायोः सख्याय कर्तवे ॥
स्वर रहित पद पाठमनीषिऽभिः । पवते । पूर्व्यः । कविः । नृऽभिः । यतः । परि । कोशान् । अचिक्रदत् । त्रितस्य । नाम । जनयन् । मधु । क्षरत् । इन्द्रस्य । वायोः । सख्याय । कर्तवे ॥ ९.८६.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 20
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मनीषिभिः) विद्वद्भिरुपदिष्टः (पूर्व्यः) अनादिसिद्धः परमात्मा (पवते) अस्मान् पवित्रयति। यः परमात्मा (कविर्नृभिः) विद्वद्भिः (यतः) गृहीतोऽस्ति। सः (कोशान्) प्रकृतेः कोशान् (अचिक्रदत्) शब्दादिभिः प्रसिद्धयति। सः (मधु) सानन्दः परमात्मा (त्रितस्य) सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्थारूपप्रकृतिपुञ्जं (नाम, जनयन्) नामरूपे विभजमानः (इन्द्रस्य) कर्म्मयोगिनः (वायोः) तथा ज्ञानयोगिनः (सख्याय) मैत्रीं (कर्तवे) कर्तुं (क्षरत्) निजानन्दं प्रवाहयति ॥२०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मनीषिभिः) विद्वानों से उपदेश किया हुआ (पूर्व्यः) अनादिसिद्ध परमात्मा (पवते) हमको पवित्र करता है, जो परमात्मा (कविर्नृभिः) विद्वानों द्वारा (यतः) ग्रहण किया हुआ है, वह (कोशान्) प्रकृति के कोशों को (अचिक्रदत्) शब्दादि द्वारा प्रसिद्ध करता है। वह (मधु) आनन्दयुक्त परमात्मा (त्रितस्य) सत्त्व, रज और तमोगुण की साम्यावस्थारूप प्रकृतिपुञ्ज को (नाम जनयन्) नामरूप में विभक्त करता हुआ (इन्द्रस्य) कर्मयोगी के (वायोः) तथा ज्ञानयोगी के साथ (सख्याय) मैत्री (कर्तवे) करने के लिये (क्षरत्) अपने आनन्द को प्रवाहित करता है ॥२०॥
भावार्थ
कर्मयोगी और ज्ञानयोगी लोग परमात्मगुणों के धारण करने से परमात्मा के साथ एक प्रकार की मैत्री उत्पन्न करते हैं। अर्थात् “अहं वा त्वमसि भगवो देव त्वं वा अहमस्मि” कि “मैं तू” और “तू मैं” इस प्रकार की अहंग्रह उपासना द्वारा अर्थात् अभेदोपासना द्वारा परमात्मा का ध्यान करते हैं ॥२०॥
विषय
आत्मा में भी व्यापक परमेश्वर।
भावार्थ
(पूर्व्यः कविः) पूर्व के विद्यमान विद्वान् जनों से उपासित, सर्वोपदेष्टा अनादि प्रभु (यतः) नियमों में बद्ध, (परि कोशान् अचिक्रदत्) समस्त कोशों, हृदयों और लोकों में व्याप्त है, इससे वह (मनीषिभिः) मन और ज्ञान को प्रेरणा देनेवाले, बुद्धिमान्, बुद्धिप्रद (नृभिः) मनुष्यों और प्राणों द्वारा (पवते) हमें प्राप्त होता है। वह (इन्द्रस्य) इस देह के प्राणच्छिद्रों को विदारण करनेवाले भोक्ता आत्मा के (वायोः) प्राणवायु से (सख्याय कर्त्तवे) मैत्रीभाव करने के लिये (त्रितस्य) तीनों लोकों वा देह के तीनों भागों में व्याप्त आत्मा के (मधु) तृप्तिकारक और (क्षरत् नाम) द्रवरूप जल वा द्रव रुधिर को भी (जनयन्) उत्पन्न करता है। इति पञ्चदशो वर्गः॥
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥
विषय
'इन्द्रस्य वायोः सख्याय कर्तवे'
पदार्थ
(मनीषिभिः) = विद्वानों से, मन का शासन करनेवालों से यह सोम (पवते) = [पूयते] पवित्र किया जाता है। (पूर्व्य:) = यह पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम है । (कविः) = क्रान्तदर्शी है, हमारी बुद्धियों को सूक्ष्म बनाकर यह हमें तत्त्वद्रष्टा बनाता है। (नृभिः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोगों से (यतः) = काबू किया हुआ यह सोम कलशान् इन शरीर कलशों को (परि अचिक्रदत्) = समन्तात् प्रभु के आह्वानवाला बनाता है । अर्थात् सोमरक्षण से इस शरीर में सतत प्रभुस्मरण होने लगता है, शरीर में सब क्रियाएँ प्रभुस्मरण पूर्वक होती हैं। यह सोम (त्रितस्य) = काम, क्रोध, लोभ को तैरनेवाले के नाम (जनयन्) = यश को पैदा करता हुआ, (मधुक्षरत्) = जीवन में माधुर्य का संचार करता हुआ (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के तथा (वायो:) = गतिशील पुरुष के (सख्याय कर्तवे) = प्रभु के साथ मैत्री को करने के लिये होता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम 'पूर्व्य' है, कवि है । यह जितेन्द्रिय गतिशील पुरुष को प्रभु का मित्र बनाता है। अब इसके जीवन में सब क्रियाएं प्रभुस्मरण पूर्वक होने लगती हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Eternal, all-watchful, poetic creator celebrated by sages and meditated by pious people pervades, energises and holds to the centre all forms of existence from the cell and particle upto the expansive universe, creating from Prakrti and its three modes of sattva, rajas and tamas all forms and names of things, letting streams of honey sweets flow, and releasing the joint, cooperative and friendly activity of Indra and Vayu, energy and its flow at the cosmic level, and the soul and mind at the human level.
मराठी (1)
भावार्थ
कर्मयोगी व ज्ञानयोगी लोक परमात्मगुणांना धारण करण्याने परमात्म्याबरोबर एक प्रकारची मैत्री करतात. अर्थात ‘‘अहं वा त्वासि भगवो देव त्वं वा अह्मस्मि’’ ‘‘मी तू’’ व ‘‘तू मी’’ या प्रकारे अहंग्रह उपासनेद्वारे अर्थात अभेदोपासनेद्वारे परमात्म्याचे ध्यान करतात. ॥२०॥
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