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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अकृष्टा माषाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अत्यो॒ न हि॑या॒नो अ॒भि वाज॑मर्ष स्व॒र्वित्कोशं॑ दि॒वो अद्रि॑मातरम् । वृषा॑ प॒वित्रे॒ अधि॒ सानो॑ अ॒व्यये॒ सोम॑: पुना॒न इ॑न्द्रि॒याय॒ धाय॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्यः॑ । न । हि॒या॒नः । अ॒भि । वाज॑म् । अ॒र्ष॒ । स्वः॒ऽवित् । कोश॑म् । दि॒वः । अद्रि॑ऽमातरम् । वृषा॑ । प॒वित्रे॑ । अधि॑ । सानौ॑ । अ॒व्यये॑ । सोमः॑ । पु॒ना॒नः । इ॒न्द्रि॒याय॑ । धाय॑से ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्यो न हियानो अभि वाजमर्ष स्वर्वित्कोशं दिवो अद्रिमातरम् । वृषा पवित्रे अधि सानो अव्यये सोम: पुनान इन्द्रियाय धायसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत्यः । न । हियानः । अभि । वाजम् । अर्ष । स्वःऽवित् । कोशम् । दिवः । अद्रिऽमातरम् । वृषा । पवित्रे । अधि । सानौ । अव्यये । सोमः । पुनानः । इन्द्रियाय । धायसे ॥ ९.८६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोमः) हे परमात्मन् ! (पुनानः) सर्वं पवित्रयन् (इन्द्रियाय, धायसे) धनधारणाय (अव्यये) अविनाशिने (पवित्रे) पवित्रात्मनि (अधि, सानौ) यः सर्वोपरि विराजमानोऽस्ति। एवंविधपवित्रात्मने (वृषा) सर्वकामान् वर्षकः परमात्मा (स्वर्वित्) यः सर्वज्ञोऽस्ति। (अत्यः) गतिशीलपदार्थस्य (न) समानः (हियानः) प्रेरकः परमात्मा (वाजं) यज्ञस्य (अभि) सम्मुखे (अर्ष) गच्छति। (दिवो, अद्रिमातरं) द्युलोकान् मेघस्य निर्माता (कोशं) निधानमुत्पादयति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोमः) परमात्मा (पुनानः) सबको पवित्र करता हुआ (इन्द्रियाय धायसे) धन के धारण कराने के लिये (अव्यये) अविनाशी (पवित्रे) पवित्र आत्मा में (अधिसानौ) जो सर्वोपरि विराजमान है, ऐसे पवित्र आत्मा के लिये (वृषा) सब कामनाओं की वृष्टिकर्ता परमात्मा (स्वर्वित्) जो सर्वज्ञ है (अत्यः) गतिशील पदार्थ के (न) समान (हियानः) प्रेरणा करनेवाला परमात्मा (वाजम्) यज्ञ के (अभि) सम्मुख (अर्ष) गति करता है, (दिवो, अद्रिमातरम्) द्युलोक से मेघ का निर्म्माता (कोशम्) निधि को उत्पन्न करता है ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा विद्युदादि पदार्थों के समान गतिशील है और प्रकाशमात्र के आधार निधियों का निर्म्माता है। वही परमात्मा पवित्र अन्तःकरणवाले पुरुष को ऐश्वर्य्यसम्पन्न करता है ॥३॥

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    विषय

    अश्ववत् भक्त विद्वान् का प्रभु की ओर बढ़ना।

    भावार्थ

    (हियानः अत्यः) प्रेरित हुआ अश्व जिस प्रकार (वाजम् अभि) संग्राम की ओर बढ़ता है, उसी प्रकार (स्व:-वित्) प्रकाशमय ज्ञान का लाभ कर लेने वाला, हे विद्वन् ! तू (अद्रि-मातरम्) मेघ के उत्पादक (दिवः कोशम्) अन्तरिक्ष के जल से पूर्ण वायुमण्डल के तुल्य (अद्रि-मातरम्) मेघतुल्य ज्ञानप्रद उदार पुरुषों को उत्पन्न करने वाले (दिवः कोशम्) ज्ञान-प्रकाश के अपार भण्डार उस प्रभु को (अभि अर्ष) प्राप्त हो। तू (वृषा) बलशाली, होकर (पावत्रे) परम पवित्र, (अव्यये) रक्षामय, अविनाशी, (सानौ अधि) ऐश्वर्यमय परम पद में (पुनानः) प्राप्त (सोमः) ऐश्वर्यवान् होकर (धायसे) सर्वधारक, सर्वपोषक (इन्द्रियाय) परमेश्वर्यवान् प्रभु के प्राप्त करने के लिये (अभि-अर्ष) आगे बढ़।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥

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    विषय

    इन्द्रिपाय धायसे

    पदार्थ

    [१] (अत्यः न) = सततगामी अश्व के समान (हियानः) = प्रेरित किया जाता हुआ तू (वाजं अभि अर्ष) = संग्राम की ओर चलनेवाला है। घोड़ा बाह्य संग्रामों में विजय का साधन बनता है, इसी प्रकार यह सोम शरीर के अन्दर रोगवृत्तियों के साथ संग्राम में हमें विजयी बनाता है । (स्वर्वित्) = प्रकाश को प्राप्त करानेवाला तू (अद्रिमातरम्) = उपासक के निर्माण करनेवाले, हमें उपासनामय जीवनवाला बनानेवाले (दिवः कोशम्) = विज्ञानमय कोश की ओर तू [ आधर्ष ] गतिवाला हो। हमें यह सोम प्रभु का 'ज्ञानी उपासक' बनाता है। [२] (वृषा) = शक्ति का सेचन करनेवाला तू (पवित्रे) = पवित्र रूप में तथा (अव्यये) = अविनाशी अधि सानो समुचित प्रदेश में, विज्ञानमय कोश में अथवा मस्तिष्क रूप द्युलोक में (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ यह सोम (इन्द्रियाय) = बल के लिये होता है तथा (धायसे) = हमारे धारण के लिये होता है। यह सोम पवित्र हृदय में तथा विज्ञानमय कोश में पवित्र होता है, अर्थात् हृदय में वासनाओं को न आने देने पर तथा स्वाध्याय में लगे रहने पर यह सोम पवित्र बना रहता है। शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ यह शरीर का धारण करता है और उसे बल सम्पन्न करता है एवं इन्द्रिय को यह सबल बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम शरीर में रोमकृमियों के साथ संग्राम में हमें विजयी बनाता है । उपासना व स्वाध्याय से पवित्र बनाया गया सोम हमारा धारण करता है और हमें सबल बनाता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Inspired and energised like a shot fired for the target of battle, O soma spirit of omniscience, flow to the victorious soul of the celebrant like liquid energy showering from the sun to the cloud in formation in the sky. O generous vibrant presence, pure and purifying on top of the sanctified and imperishable soul, flow on for the sustenance of its honour and excellence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा विद्युत इत्यादी पदार्थांप्रमाणे गतिशील आहे व प्रकाशाच्या आधार निधींचा निर्माता आहे. तोच परमात्मा पवित्र अंत:करणाच्या पुरुषाला ऐश्वर्यसंपन्न करतो. ॥३॥

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