ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 44
वि॒प॒श्चिते॒ पव॑मानाय गायत म॒ही न धारात्यन्धो॑ अर्षति । अहि॒र्न जू॒र्णामति॑ सर्पति॒ त्वच॒मत्यो॒ न क्रीळ॑न्नसर॒द्वृषा॒ हरि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒पः॒ऽचिते॑ । पव॑मानाय । गा॒य॒त॒ । म॒ही । न । धा॒रा॒ति॒ । अन्धः॑ । अ॒र्ष॒ति॒ । अहिः॑ । न । जू॒णाम् । अति॑ । स॒र्प॒ति॒ । त्वच॑म् । अत्यः॑ । न । क्रीळ॑न् । अ॒स॒र॒त् । वृषा॑ । हरिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विपश्चिते पवमानाय गायत मही न धारात्यन्धो अर्षति । अहिर्न जूर्णामति सर्पति त्वचमत्यो न क्रीळन्नसरद्वृषा हरि: ॥
स्वर रहित पद पाठविपःऽचिते । पवमानाय । गायत । मही । न । धाराति । अन्धः । अर्षति । अहिः । न । जूणाम् । अति । सर्पति । त्वचम् । अत्यः । न । क्रीळन् । असरत् । वृषा । हरिः ॥ ९.८६.४४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 44
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे ज्ञानिपुरुषाः ! (विपश्चिते) सर्वज्ञपरमात्मने (पवमानाय) यः सर्वपावकोऽस्ति। तस्मै त्वं (गायत) गानं कुरुत यः (धारा, न) धारेव (मही) महत् (अति, अन्धः) ऐश्वर्यं (अर्षति) ददाति। यदभिज्ञाय पुरुषः (अहिः) सर्पस्य (जूर्णां, त्वचं, न) जीर्णत्वच इव (अति, सर्पति) परित्यज्य गच्छति। (अत्यः, न) विद्युदिव (क्रीळन्) क्रीडन् (असरत्) सर्वत्र गतिशीलो भवति। अपि च (वृषा) सर्वान् कामान् वर्षति (हरिः) तथा सर्वा विपत्तीर्हरति ॥४४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे ज्ञानीपुरुषो ! (विपश्चिते) सर्वज्ञ परमात्मा के (पवमानाय) जो सबको पवित्र करनेवाला है, उसके लिये आप (गायत) गान करें, जो (धारा न) धारा के समान (मही) बड़े (अत्यन्धः) ऐश्वर्य को (अर्षति) देनेवाला है। जिसको जानकर पुरुष (अहिः) साँप की (जूर्णा त्वचं न) जीर्ण त्वचा के समान (अतिसर्पति) त्यागकर गमन करता है (अत्यो न) विद्युत् के समान (क्रीळन्) क्रीड़ा करता हुआ (असरत्) सर्वत्र गतिशील होता है और (वृषा) सब कामनाओं की वृष्टि करता है (हरिः) तथा सब विपत्तियों को हर लेता है ॥४४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा की उपासना का कथन किया गया है कि हे उपासक लोगों ! तुम उस सर्वज्ञ पुरुष की उपासना करो, जो सर्वोपरि विज्ञानी ओर पतितोद्धारक है। इस मन्त्र में “विपश्चिते” शब्द परमात्मा के लिये आया है और पहिले-पहिल “विपश्चित्” शब्द मेधावी के लिये वेद में ही आया है, इसी का अनुकरण आधुनिक कोषों में भी किया गया है ॥४४॥
विषय
देह से देहान्तर में केंचुली से सर्पवत् जाने वाले आत्मा का ज्ञानोपदेश।
भावार्थ
हे विद्वान् लोगो ! आप लोग (पवमानाय) एक देह से अन्य देह में जाते हुए, एवं विषय, इन्द्रिय देहादि संघात से सर्वथा निःसङ्ग, परिशुद्ध होते हुए (विपश्चिते) इस लोक में ज्ञान और कर्म का सञ्चय और ज्ञान करने वाले मेधावी, उस आत्मा का (गायत) उपदेश करो। जो (अन्धः) प्राणशक्ति को धारण करने वाला, (मही धारा न) बड़ी भारी जलधारा के समान, (अति अर्षति) पार कर जाता है। और जो (जूर्णाम् त्वचम्) पुरानी खाल या कैंचुली को सांप के समान (अति सर्पति) छोड़ कर अलग हो जाता है, और जो (वृषा) बलवान् (हरिः) आत्मा (अत्यः नः) अश्व के समान (क्रीडन्) इस देह में विहार करता हुआ (असरत्) भाग निकलता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥
विषय
अहिर्न जुर्णामति सर्पति त्वचम्
पदार्थ
(विपश्चिते) = हमारे ज्ञान को बढ़ानेवाले (पवमानाय) = पवित्र करनेवाले सोम के लिये (गायत) = स्तुति शब्दों का गायन करो। (अन्धः) = यह सोम [] अन्धसस्पते-सोमस्यपते श० ९.१.२.४] (महीधारा न) = महत्वपूर्ण धारा के समान (अति अर्षति) = अतिशयेन प्राप्त होता है, जैसे एक जलधारा शरीर को बाहर से पवित्र कर देती है, इसी प्रकार यह सोम अन्दर से पवित्र करनेवाला होता है। (न) = जैसे (अहि:) = साँप (जूर्णां) = जीर्ण (त्वचम्) = त्वचा को (अतिसर्पति) = छोड़कर आगे बढ़ जाता है, उसी प्रकार यह सोम सब मलों को छोड़ता हुआ आगे बढ़ने का कारण बनता है। यह (वृषा) = शक्तिशाली (हरिः) = सब दुःखों का हरण करनेवाला सोम (अत्यः न) = सततगामी अश्व के समान (क्रीडन्) = क्रीड़ा करता हुआ (असरत्) = गतिवाला होता है । सोमरक्षण से शक्ति सम्पन्न होकर हम आलस्य शून्य होते हैं और क्रीडक की मनोवृत्ति से निरन्तर क्रियाओं में लगे रहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम हमें 'ज्ञान-पवित्रता व क्रियाशीलता' को प्राप्त कराता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O people, sing in honour of Soma, omniscient spirit of life, pure and purifier that brings us food, energy, honour and excellence in torrential streams. Knowing that, man, free from want, suffering and small mindedness, goes forward with life happy, youthful, playful as a colt and generous as showers of rain, and at the end of life goes on again, having left this body as a snake casts off its old skin and goes free and youthful again.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमेश्वराच्या उपासनेचे कथन केलेले आहे. हे उपासकानो! तुम्ही त्या सर्वज्ञ पुरुषाची उपासना करा, जो सर्वांत मोठा विज्ञानी व पतितोद्धारक आहे. या मंत्रात विपश्चित शब्द परमेश्वरासाठी आलेला आहे व सर्वात प्रथम (विपश्चित्) शब्द मेधावीसाठी वेदातही आलेला आहे. याचेच अनुकरण आधुनिक कोशात ही केलेले आहे. ॥४४॥
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