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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 86/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अकृष्टा माषाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    राजा॑ समु॒द्रं न॒द्यो॒३॒॑ वि गा॑हते॒ऽपामू॒र्मिं स॑चते॒ सिन्धु॑षु श्रि॒तः । अध्य॑स्था॒त्सानु॒ पव॑मानो अ॒व्ययं॒ नाभा॑ पृथि॒व्या ध॒रुणो॑ म॒हो दि॒वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    राजा॑ । स॒मु॒द्रम् । न॒द्यः॑ । वि । गा॒ह॒ते॒ । अ॒पाम् । ऊ॒र्मिम् । स॒च॒ते॒ । सिन्धु॑षु । श्रि॒तः । अधि॑ । अ॒स्था॒ट् सानु॑ । पव॑मानः । अ॒व्यय॑म् । नाभा॑ । पृ॒थि॒व्याः । ध॒रुणः॑ । म॒हः । दि॒वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    राजा समुद्रं नद्यो३ वि गाहतेऽपामूर्मिं सचते सिन्धुषु श्रितः । अध्यस्थात्सानु पवमानो अव्ययं नाभा पृथिव्या धरुणो महो दिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    राजा । समुद्रम् । नद्यः । वि । गाहते । अपाम् । ऊर्मिम् । सचते । सिन्धुषु । श्रितः । अधि । अस्थाट् सानु । पवमानः । अव्ययम् । नाभा । पृथिव्याः । धरुणः । महः । दिवः ॥ ९.८६.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 86; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    यः परमात्मा (पृथिव्याः) पृथिवीलोकस्य अपि च (महः, दिवः) अस्य महतो द्युलोकस्य (धरुणः) आधारोऽस्ति। (पवमानः) सर्वं पवित्रयन् परमात्मा (नद्यः) सर्वाः समृद्धीः अपि च (अव्ययं, समुद्रं) अविनाशिमन्तरिक्षं (वि, गाहते) विगाहनं करोति (अपां, ऊर्मिं) जलतरङ्गरूपनदीः (सिन्धुषु) महासागरेषु (सचते) सङ्गताः करोति (श्रितः) स सर्वस्याश्रयो भूत्वा (अधि, अस्थात्) विराजते। अपि च (सानु, नाभा) अत्युच्चशिखराणामपि मध्ये विराजते ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    जो परमात्मा (पृथिव्याः) पृथिवीलोक और (महो दिवः) इस बड़े द्युलोक का (धरुणः) आधार है। (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाला परमात्मा (नद्यः) सब समृद्धिओं को और (अव्ययं समुद्रम्) इस अविनाशी अन्तरिक्ष को (वि गाहते) विगाहन करता है। (अपामूर्मिम्) जल की लहरें-रूप नदियों को (सिन्धुषु) महासागरों में (सचते) संगत करता है। (श्रितः) वह सबका आश्रय होकर (अध्यस्थात्) विराजमान हो रहा है और (सानु नाभा) उच्च से उच्च शिखरों के मध्य में भी विराजमान है ॥८॥

    भावार्थ

    यद्यपि स्थूल दृष्टि से ये पृथिव्यादिलोक अन्य पदार्थों के अधिष्ठान प्रतीत होते हैं, तथापि सर्वाधिष्ठान एक मात्र परमात्मा ही है, क्योंकि सब लोक-लोकान्तरों की रचना करनेवाला और नदियों को सागरों के साथ संगत करनेवाला और ग्रह-उपग्रहों को सूर्य्यादि बड़ी-बड़ी ज्योतियों में संगत करनेवाला एकमात्र परमात्मा ही सबका अधिष्ठान है, कोई अन्य वस्तु नहीं ॥८॥

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    विषय

    व्यापक प्रभु और आत्मा का तुल्य वर्णन।

    भावार्थ

    (राजा) सबका स्वामी, प्रकाशमान् प्रभु (नद्यः) सदा स्तुति योग्य है। वह (समुद्रं वि गाहते) इस महान् आकाशमय वा कामनामय समुद्र को पार करता, उसमें व्यापता है। (अपाम् ऊर्मिम्) प्राणियों के प्राणों के उर्ध्व शक्ति को (सचते) प्राप्त किये है, वह उनका स्वामी है। वह (सिन्धुषु श्रितः) देहस्थ आत्मा रक्त से पूर्ण नाड़ियों, रंगों में भी व्याप्त है, वह प्रभु गतियुक्त समस्त शक्तिशाली पदार्थों में भी व्याप्त है। वह (पवमानः) सर्वव्यापक, सर्वप्रेरक प्रभु (अव्ययं) अक्षय, सर्वरक्षामय ऐश्वर्य को (अधि अस्थात्) अपने वशकर उसपर मालिक के समान बैठा, उसपर शासन करता है। (अयं) यह (पृथिव्याः नाभा) पृथिवी के केन्द्र में बैठा है वह (महः दिवः) बड़े भारी सूर्य का भी (धरुणः) धारण करने वाला परमाश्रय है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१—१० आकृष्टामाषाः। ११–२० सिकता निवावरी। २१–३० पृश्नयोऽजाः। ३१-४० त्रय ऋषिगणाः। ४१—४५ अत्रिः। ४६–४८ गृत्समदः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, २१, २६, ३३, ४० जगती। २, ७, ८, ११, १२,१७, २०, २३, ३०, ३१, ३४, ३५, ३६, ३८, ३९, ४२, ४४, ४७ विराड् जगती। ३–५, ९, १०, १३, १६, १८, १९, २२, २५, २७, ३२, ३७, ४१, ४६ निचृज्जगती। १४, १५, २८, २९, ४३, ४८ पादनिचृज्जगती। २४ आर्ची जगती। ४५ आर्ची स्वराड् जगती॥

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    विषय

    महो दिवः धरुणः

    पदार्थ

    आत्मज्ञान यदि 'समुद्र' है- 'स+मुद्' अद्भुत आनन्द को देनेवाला है, तो विज्ञान अपने नाना रूपों [नद्यः] नदियों के समान है। शरीर में सुरक्षित सोम 'राजा' जीवन को दीप्त करनेवाला है, यह (समुद्रं) = ज्ञान समुद्र को तथा नद्यः - विज्ञान की नदियों को विगाहते विलोड़ित करता है । सुरक्षित सोम ज्ञान-विज्ञान को बढ़ानेवाला होता है । यह (अपाम्) = कर्मों की (ऊर्मिम्) = [row, line] पंक्ति को (सचते) = सेवन करता है, अर्थात् सोम हमें शक्ति देकर कर्त्तव्य कर्मों के पूर्ण करने के योग्य बनाता है । यह (सिन्धुषु श्रितः) = यहाँ ज्ञान-विज्ञान की नदियों में आशय करता है, अथवा 'स्यन्दन्ते', निरन्तर क्रियाशील पुरुषों में यह स्थिर होकर रहता है। यह (पवमानः) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाला सोम (अव्ययम् सानु) = अविनाशी ज्ञान - शिखर पर (अध्यस्थात्) = स्थित होता है । यह (पृथिव्याः नाभा) = [ अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः] पृथिवी के केन्द्रभूत यज्ञों में स्थित होता है तथा (महः दिवः धरुणः) = महान् स्तुति [दिव् स्तुतौ] का धारण करनेवाला है। यह सोम हमें 'ज्ञानी - यज्ञशील व स्तोता' बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम हमें ज्ञानी यज्ञ आदि कर्मों में प्रवृत्त तथा साधन की वृत्तिवाला बनाता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Shining and ruling it plunges and rolls in the oceans of space and plays with the currents of winds. It joins the waves of floods of water and waxes with the seas. Pure, purifying and flowing, it rises on top of imperishable existence. It is the centre-hold of the universe and mighty foundation of the heavens of light.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जरी स्थूल दृष्टीने ही पृथ्वी इत्यादी लोक इतर पदार्थांचे अधिष्ठान वाटते, तरी सर्वाधिक परमात्माच आहे. कारण सर्व लोकलोकांतराची रचना करणारा व नद्यांना सागरासमवेत एकत्र करणारा व ग्रह-उपग्रहांना सूर्य इत्यादी मोठमोठ्या ज्योतीत संगत करणारा एकमात्र परमात्माच सर्वांचे अधिष्ठान आहे. कोणी दुसरी वस्तू नाही. ॥८॥

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